इतिहासदक्षिण भारतमध्यकालीन भारत

दक्षिण भारत की भौगोलिक एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

दक्षिण भारत –

उत्तर में हिमालय और दक्षिण में कन्याकुमारी भारत के भौगोलिक विस्तार के दो मूल बिंदु रहे हैं। ऐतिहासिक दृृष्टि से विंध्य पर्वतमाला एवं नर्मदा नदी उत्तर भारत को दक्षिण से विभाजित करती है और विंध्य नर्मदा क्षेत्र का त्रिकोणात्मक दक्षिणी भाग दक्षिण भारत या दक्कन माना जाता है। नर्मदा एक ताप्ती नदियाँ, विंध्य तथा सतपुङा पर्वतमालाएँ और महाकांतार सघन जंगल, उत्तर एवं दक्षिण के मध्य एवं पंचमुखी प्राचीर थे। परिणामस्वरूप जहाँ दक्षिण भारत उत्तर-पश्चिम की ओर से होने वाले विदेशी आक्रमणों से मुक्त रहा, वहाँ उत्तर एवं दक्षिण भारत की राजनैतिक एकता विभिन्न ऐतिहासिक युगों में मात्र क्षणिक रही। साथ ही भौगोलिक बाधाओं के होने पर भी उत्तर और दक्षिण भारत के मध्य संचार तथा संपर्क में कभी अवरोध उत्पन्न नहीं हुआ। यद्यपि उत्तर एवं दक्षिण भारत के राजनीतिक इतिहास तथा आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन के मध्य अनेक विषमताएँ हैं, तथापि भारत की मूलभूत एकता पर इसका कभी भी दुष्प्रभाव नहीं पङा। इतिहासकार फरिश्ता ने भी भारत (हिंद) की इसी एकता का दर्शन करके लिखा है, हिंद के पुत्र दक्कन के तीन बेटे थे, जिनके मध्य दक्खिनी प्रदेश आपस में बँटे हुए थे। इन तीनों के नाम थे – मरठ (महाराष्ट्र), कल्हण (कन्नङ) और तिलंग (आंध्र-तेलंगाना)।

Prev 1 of 1 Next
Prev 1 of 1 Next

विंध्य के दक्षिण से कन्याकुमारी तक विस्तृत दक्षिण भारत की कुछ अपनी विशिष्ट भौगोलिक विशेषताएँ हैं। समुद्र की मेखला से मंडित दक्षिण भारत के पश्चिम में अरब महासागर और पूर्व में बंगाल की खाङी और धुर दक्षिण में (कन्याकुमारी में) हिंद महासागर है। कन्याकुमारी के उत्तर-पश्चिम में मलाबार समुद्र तट और उत्तर-पूर्व में कारोमंडल समुद्र तट दोनों ओर एक-एक हजार मील तक फैले हुए हैं। इन दोनों समुद्रतटों के किनारे सैकङों प्राकृतिक बंदरगाहों का विकास हुआ, परंतु कारोमंडल समुद्रतट की तुलना में पश्चिमी मलाबार समुद्र तट जहाजरानी के लिये अधिक उपयुक्त और लाभप्रद था। परिणामस्वरूप दक्षिण के सबसे अच्छे बंदरगाहों का विकास इसी ओर हुआ। सामुद्रिक मार्ग की दृष्टि से भी दक्षिण भारत की बङी विशिष्ट स्थिति थी। भूमध्य सागर और अफ्रीका से चीन तक विस्तृत लंबे सामुद्रिक मार्ग के केंद्र में स्थित होने के कारण शताब्दियों तक दक्षिण भारत देश के वैदेशिक व्यापार का केन्द्र बिंदु रहा। सामुद्रिक सीमाओं का सैन्य व्यवस्था पर भी प्रभाव पङा। यद्यपि पुर्तगालियों के आगमन से पूर्व भारत पर कभी सामुद्रिक आक्रमण नहीं हुए तथापि सामरिक एवं आर्थिक कारणों से दक्षिण के कुछ राजवंशों, जैसे सातवाहनों, पल्लवों, चोलों एवं मध्यकाल में गोलकुंडा के कुतुबशाही वंश को शक्तिशाली जल सेना का गठन करना पङा।

दक्षिण भारत के इतिहास में नदी घाटियों की बङी निर्णायक भूमिका रही है। मध्यकाल तक दक्षिण का राजनीतिक विकास नदी-घाटियों के मध्य विभिन्न भौगोलिक कोणों में हुआ और पंद्रहवीं शताब्दी तक राजवंशों का उदय और पतन दक्षिण की नदियों से घिरा रहा। नर्मदा, ताप्ती, गोदावरी, कृष्णा, तुंगभद्रा और कावेरी नदियों ने शताब्दियों तक इतिहास के प्रवाह को अपनी सीमाओं में आबद्ध रखा। दक्षिण भारत के लगभग सभी राजवंशों का उदय इन्हीं नदी घाटियों के बीच हुआ और इन भौगोलिक बाधाओं को पार कर दक्षिण भारत की राजनीतिक एकता की स्थापना विभिन्न राजवंशों के लिए दिवास्वप्न जैसी बनी रही। इसी प्रयास में क्रमशः बादामी के पश्चिमी चालुक्य, कांची के चालुक्य, तंजवुर के चोलों के बीच निरंतर संघर्ष की पुनरावृत्ति होती रही। कृष्णा एवं तुंगभद्रा दक्षिण भारत को उत्तरी एवं दक्षिणी भागों में विभाजित करने वाली भौगोलिक-राजनीतिक प्राचीर थी। इन दोनों नदियों के मध्य में स्थित रायचूर दोआब दक्षिण की राजनीतिक क्रीङास्थली था। इसके उत्तर में कल्याणी के चालुक्य और दक्षिण में पल्लव तथा चोल अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा से इस भौगोलिक बाधा को तोङने का अथक प्रयास करते रहे। विजय नगर साम्राज्य के पतन तक दक्षिण का इतिहास इसी भौगोलिक पृष्ठभूमि का सीधा परिणाम था।

दक्षिण की जलवायु ने वहाँ एक विशिष्ट अर्थव्यवस्था के विकास में योगदान दिया। पश्चिमी एवं पूर्वी घाटों के किनारे घने जंगलों में उत्पन्न बहुमूल्य सागौन, पाटल काष्ठ और चंदन की लकङी का विभिन्न उद्योगों में उपयोग किया जाता था। इसी प्रकार दक्षिण की जलवायु काली मिर्च, इलाइची, सुपारी और नारियल आदि फसलों के लिए उपयुक्त थी। दक्षिण-पूर्व एशिया के अनेक देशों में शताब्दियों तक इन वस्तुओं का निर्यात होता रहा और इससे दक्षिण की कृषिमूलकर अर्थव्यवस्था को विकास के लिए विस्तृत आधार प्राप्त हुआ।

उत्तर भारत की भाँति दक्षिण भारत में भी राजवंशीय उत्थान-पतन बहुत सामान्य रहे। राजनीतिक क्षेत्र में उत्तर भारत की ही भाँति दक्षिण भारत में भी विभिन्न प्रादेशिक खंडों में राजवंशों का उदय हुआ। परंतु कृष्णा नदी का उत्तरी एवं दक्षिणी भाग दक्षिण भारत की राजनीतिक महाशक्तियों के मध्य विभाजन रेखा बना रहा। 8 वीं शताब्दियों के मध्य कृष्णा के उत्तर में राष्ट्रकूट तथा दक्षिण में कांची के पल्लवों के राज्य की तरह 11 वीं एवं 12वीं शताब्दियों में क्रमशः यही स्थिति कल्याणी के चालुक्यों एवं तंजवुर के चोलों की थी।

8 वीं शताब्दी के भारतीय इतिहास में जहाँ उत्तर भारत में राजनीतिक विघटन की प्रक्रिया तीव्र हो रही थी वहाँ उसके विपरीत दक्षिण भारत के इतिहास में महानतम राजवंशों का उदय इसी काल में हुआ, जैसे राष्ट्रकूट, पल्लव, चोल एवं चालुक्य। 13 वीं शताब्दी के प्रथम चरण में दक्षिण के राजनीतिक वैभव का सूर्य अस्त हो गया और चोलों एवं चालुक्यों का स्थान अब चार नवीन शक्तियों ने ले लिया। इस राजनीतिक विघटन का तात्कालिक प्रभाव दक्षिण पर दिल्ली सल्तनत के प्रभाव का विस्तार था, जिसके परिणामस्वरूप 1296-1324 ई. के लगभग संपूर्ण दक्षिण भारत पर सल्तनत की शक्ति का विस्तार हो गया।

Related Articles

error: Content is protected !!