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दिल्ली सल्तनत के पतन के कारण | Delhi saltanat ke patan ke kaaran | Reasons for the fall of Delhi Sultanate

दिल्ली सल्तनत के पतन के कारण

दिल्ली सल्तनत के पतन के कारण (Reasons for the fall of Delhi Sultanate)-

दिल्ली सल्तनत की स्थापना कुतुबुद्दीन ऐबक के द्वारा 1206 ई. में की गई थी। उसने दास वंश के शासन की स्थापना की थी, अत: दास वंश के अन्तर्गत दिल्ली सल्तनत अपने शैशवकाल में थी। खिलजी वंश के शासनकाल में यह अपनी प्रौढ़ावस्था में पहुँची और तुगलक वंश के अन्तिम दो-तीन शासकों के समय में दिल्ली सल्तनत अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई थी। यहीं से उसका पतन आरम्भ हुआ।

सन् 1398 में तैमूर ने तुगलक साम्राज्य को आघात पहुँचाया और 1526 ई. में बाबर ने पानीपत के मैदान में लोदी वंश की सत्ता को समाप्त कर दिया।

दिल्ली सल्तनत के पतन के कारण

दिल्ली सल्तनत के पतन के कारण | Delhi saltanat ke patan ke kaaran

(1) स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश शासन-

दिल्ली के सुल्तानों ने स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश शासन स्थापित किया। सुल्तान को असीमित शक्तियाँ एवं अधिकार प्राप्त होते थे। वे अपनी इच्छा के अनुसार कानून बनाते थे तथा कानूनों कोलागू करते थे। बलबन तथा अलाउद्दीन जैसे सुल्तानों ने सरदारों की शक्ति को भी कुचल डाला था। ऐसा स्वेच्छाचारी शासन स्थायी नहीं हो सकता था। अयोग्य सल्तानों के समय सल्तनत का पतन स्वाभाविक ही था।

(2) विशाल साम्राज्य-

दिल्ली सल्तनत के अन्तर्गत उत्तर भारत के लगभग सभी राज्य तथा दक्षिण भारत के कुछ दूरस्थ राज्य भी शामिल हो गए थे। आवागमन के पर्याप्त साधन न होने के कारण सल्तनत काल में सेना आदि का आवागमन नहीं हो पाता था। यातायात के साधनों की कमी के कारण सुदूर प्रदेशों पर नियन्त्रण रखना कठिन हो गया था। .

(3) केन्द्रीय शक्ति की दुर्बलता –

फिरोज तुगलक की मृत्यु के उपरान्त केन्द्रीय शक्ति अत्यन्त दुर्बल हो गई थी और विभिन्न प्रान्तों के सूबेदारों ने विद्रोह कर अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया था।

(4) प्रजा का असहयोग –

दिल्ली सल्तनत के पतन का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह भी था कि उसे प्रजा का पूर्ण सहयोग प्राप्त न हो सका। वहाँ की अधिकांश प्रजा हिन्दू थी और उनकी दृष्टि में मुस्लिम शासक विदेशी बने रहे। इसके अतिरिक्त दिल्ली सल्तनत के अधिकांश सुल्तानों ने धार्मिक असहिष्णुता की नीति का अनुसरण किया और हिन्दू प्रजा पर घोर अत्याचार किए। अतएव जब कभी उन्हें अवसर मिलता था, वे विद्रोह कर देते थे और सल्तनत को क्षति पहुँचाने का प्रयत्न करते थे।

(5) उत्तराधिकार के नियमों का अभाव-

सुल्तान की मृत्यु के पश्चात् अक्सर उसके उत्तराधिकारियों को युद्ध करना पड़ता था। जो जीतता था, वहीं राजगद्दी पर बैठता था। इससे सल्तनत काल में राजनीतिक स्थायित्व की कमी रही।

(6) सहिष्णुता का अभाव-

कुछ सुल्तानों में सहिष्णुता का अभाव था, जिससे प्रजा को कष्ट भोगना पड़ा। उन्होंने अपने धर्मावलम्बियों को प्राथमिकता दी तथा अन्य धर्मों के लोगों को समान अवसर नहीं दिए, जिससे समाज के कुछ वर्गों में वर्ग-संघर्ष प्रारम्भ हो गया और विद्रोह की भावना पनपने लगी।

(7) दरबार में एकता का अभाव-

 सुल्तानों के दरबार में सहयोग एवं एकता का अभाव रहा। वहाँ अमीरों और उलेमाओं का अधिक प्रभाव रहा। सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी और सुल्तान मुहम्मद-बिन-तुगलक ने राजनीति को धर्म से अलग रखने के प्रयास किए थे और यह वास्तव में एक अच्छा कदम था, परन्तु सभी सुल्तान इस नीति पर अमल नहीं कर सके। उनके दरबारों में एकता का अभाव रहा। दरबारों में प्रायः गुटबन्दी होने लगी, जिससे आपस में युद्ध हुए और सुल्तानों की शक्ति कम होने लगी।

(8) मुहम्मद-बिन-तुगलक की अव्यावहारिक नीति –

मुहम्मद-बिन-तुगलक की अव्यावहारिक योजनाओं ने दिल्ली सल्तनत की जड़ों को खोखला कर दिया। राजधानी को दिल्ली से देवगिरि ले जाना, दोआब में कर वृद्धि, ताँबे के सिक्के चलाना, खुरासान व काजल पर आक्रमण आदि योजनाओं ने सल्तनत के राजकोष को खाली कर दिया और प्रजा विरोध पर उतर आई। देशी और विदेशी अमीरों के पृथक् होने से भी सल्तनत के पतन का मार्ग प्रशस्त हुआ।

(9) फिरोज तुगलक का उत्तरदायित्व

 दिल्ली सल्तनत के पतन में सुल्तान फिरोज तुगलक का भी हाथ रहा। उसकी जागीरदारी प्रथा, दास प्रथा, राजनीति में उलेमाओं की मध्यस्थता आदि भी सल्तनत के

पतन के लिए जिम्मेदार थे। सल्तनत के विद्रोही सूबों को अधीन बनाने के लिए उसने अमीरों की बात नहीं मानी। वास्तव में वह कोमल हृदय का होने के कारण रक्त बहाने का विरोधी था। इस कारण वह विद्रोहों को कुचलने में असफल रहा, परिणामस्वरूप सल्तनत का पतन आवश्यक हो गया।

(10) फिरोज तुगलक के अयोग्य उत्तराधिकारी –

फिरोज तुगलक के उत्तराधिकारी बड़े अयोग्य और विलासी थे। बड़े-बड़े सरदारों तथा जागीरदारों ने षड्यन्त्रों के द्वारा उन्हें अपने हाथ की कठपुतली बना लिया था। फिरोज तुगलक की मृत्यु के पश्चात् समस्त साम्राज्य में अव्यवस्था फैल गई और इसका लाभ उठाकर अनेक प्रान्तीय शासक स्वतन्त्र हो गए तथा दिल्ली साम्राज्य छिन्न-भिन्नहो गया।

(11) तैमूर का आक्रमण-

1398 ई. में समरकन्द के शासक तैमूर लंग ने भारत पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण में तुगलक वंश का अन्तिम शासक नासिरुद्दीन महमूद बुरी तरह पराजित हुआ और तैमूर ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया। इसके उपरान्त काबुल के सम्राट् बाबर ने दिल्ली सल्तनत को जड़ से उखाड़कर मुगल साम्राज्य स्थापित किया।

(12) लोदी सुल्तानों का दायित्व-

लोदी वंश के संस्थापक बहलोल लोदी.के समय में सल्तनत का साम्राज्य खण्डित होने लगा था। बाबर ने अप्रैल, 1526 में पानीपत के प्रथम युद्ध में इब्राहीम लोदी को बुरी तरह परास्त किया। इब्राहीम लोदी युद्धभूमि में वीरगति को प्राप्त हुआ। दिल्ली सल्तनत का अन्त हो गया और मुगल साम्राज्य की स्थापना हुई। इस प्रकार दिल्ली सल्तनत के पतन के लिए लोदी सुल्तान भी उत्तरदायी कहे जाते हैं।

(13) मंगोल आक्रमण

मंगोलों के बार-बार होने वाले आक्रमणों ने भी दिल्ली सल्तनत का पतन निकट ला दिया था। डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव का मत है कि “बार-बार होने वाले मंगोल आक्रमणों ने भी, जिनका आरम्भ 1240 ई. में रजिया की मृत्यु के पश्चात् हुआ, दिल्ली सल्तनत के भाग्य और नीति पर गहरा प्रभाव डाला।”

(14) स्थायी सेना का अभाव –

दिल्ली सल्तनत की अपनी कोई स्थायी सेना नहीं थी। संकट के समय सुल्तान अमीरों और प्रान्तीय शासकों की सेना की सहायता लेते थे, जो सुल्तान के प्रति वफादार नहीं होते थे और विश्वासघात करते थे। दिल्ली सल्तनत के पतन के लिए कोई एक कारण जिम्मेदार नहीं था।

मध्य काल में अनेक समस्याएँ, जो लगातार अस्तित्व में थीं, साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी थीं। ये समस्याएँ थीं-सुल्तान और उसके सरदारों तथा स्थानीय प्रशासकों और जमींदारों के बीच संघर्ष, प्रान्तीय और भौगोलिक समस्याएँ आदि। सुल्तानों ने इन समस्याओं को हल करने का प्रयास तो किया, परन्तु समूल नष्ट नहीं कर सके और न ही सामाजिक तथा प्रशासनिक संरचना में कोई मौलिक बदलाव ला सके।

जब कोई शक्तिशाली सुल्तान सत्ता में होता था, तो ये सभी तत्त्व सुप्त अवस्था में रहते थे। परन्तु कमजोर सुल्तान के आते ही पुन: जाग्रत होकर सम्मुख आ जाते थे और अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास करते थे। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि फिरोज तुगलक तक तो सल्तनत शक्तिशाली रही, तदुपरान्त शक्तिशाली शासक के अभाव में सल्तनत पतनोन्मुख होती चली गई।

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