प्राचीन भारतइतिहासकुषाण वंश

परवर्ती कुषाण शासक

वासुदेव के बाद कुषाणों का इतिहास अंधकारपूर्ण है। सिक्कों से कुछ कुषाण राजाओं के नाम ज्ञात होते हैं। उन्होंने द्वितीय शताब्दी के उत्तरार्द्ध से तृतीय शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक शासन किया। उन्हें परवर्ती अथवा उत्तर-कुषाण कहा गया है। उसका इतिहास अपने – आप में पूर्ण तथा स्वतंत्र है।

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परवर्ती कुषाण शासकों के नाम निम्नलिखित हैं-

कनिष्क तृतीय-

परवर्ती कुषाण राजाओं में सर्वप्रथम वासुदेव के बाद हमें एक तीसरे कनिष्क का पता चलता है, जिसने संभवतः 180 से 210 ईस्वी तक राज्य किया। बैक्ट्रिया, अफगानिस्तान, गंधार, सीस्तान, पंजाब आदि से उसके बहुसंख्यक सिक्के नहीं मिलते। इससे पता चलता है, कि अब कुषाणों का शासन मथुरा अथवा उत्तर प्रदेश से समाप्त हो गया था। कनिष्क तृतीय के शासन के अंत तक कुषाण राज्य केवल पंजाब, कश्मीर, सीस्तान, अफगानिस्तान तथा बैक्ट्रिया तक ही सीमित रहा।

कनिष्क के सिक्कों पर उसके कुछ क्षत्रपों के नामांश प्राप्त होते हैं, जैसे वास्तु, विरू, मही आदि। अल्तेकर ने इन्हें वासुदेव, विरुपाक्ष तथा महीश्वर बताया है। वासुदेव सीस्तान में तथा विरुपाक्ष एवं महीश्वर क्रमशः पंजाब और अफगानिस्तान में क्षत्रप थे। क्षत्रपों के हिन्दू नाम से स्पष्ट है, कि इस समय तक कुषाणों के भारतीयकरण की प्रक्रिया पूर्ण हो चुकी थी। सिक्कों पर क्षत्रपों का उल्लेख उनके बढते हुए प्रभाव का द्योतक है।

वासुदेव द्वितीय-

अल्तेकर के अनुसार कनिष्क तृतीय के बाद वासुदेव द्वितीय राजा हुआ। वह कनिष्क तृतीय का पुत्र तथा उत्तराधिकारी था। शिव तथा नंदी प्रकार के सिक्के, जिन पर वासु नाम उत्कीर्ण है, बैक्ट्रिया तथा अफगानिस्तान से मिले हैं। इससे पता चलता है, कि उसका अधिकार इसी भाग में था तथा सीस्तान और पंजाब में उसके राज्यपाल स्वतंत्र हो गये थे। उसने संभवतः 210 ईस्वी से 230 ईस्वी तक राज्य किया।

वासुदेव द्वितीय के समय तक कुषाण साम्राज्य के विघटन की प्रक्रिया पूरी हो चुकी थी। भारत में अनेक जातियों ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। मथुरा तथा पद्मावती में नागवंशों का उदय हुआ। नागवंश के अतिरिक्त यौधेय, मालव, कुणिन्द आदि गणराज्यों ने भी अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी।

पश्चिमोत्तर सीमाओं पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार भारत के आंतरिक तथा उत्तरी-पश्चिमी प्रदेशों से कुषाण -सत्ता का अंत हुआ।

अब यह सिद्ध हो चुका है, कि ससैनियनों द्वारा पराजित कुषाण नरेश वासुदेव द्वितीय ही था, न कि वासुदेव प्रथम। उसके सिक्के प्रथम वासुदेव से इस अर्थ से भिन्न हैं, कि उन पर यूनानी का अधिक विकृत रूप मिलता है, मोनोग्राम भिन्न है तथा क्षत्रपों के नामांश भी अंकित हैं। ससैनियनों ने वासुदेव द्वितीय को परास्त कर उसके शिव तथा नंदी प्रकार के सिक्कों को ग्रहण कर लिया।

इन सिक्कों को ससैनियन-कुषाण-सिक्के कहा जाता है। इसने अग्रभाग ससैनियन तथा पृष्ठ भाग परवर्ती कुषाम सिक्कों की भाँति हैं।

कुषाण साम्राज्य के पतन के कारण-

कुषाण साम्राज्य के पतन के कारणों के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। इतना तो निश्चित है, कि कुषाणों का पतन किसी कारण विशेष का परिणाम नहीं था।

कुषाणों के पतन के कारण निम्नलिखित थे-

  • राखल दास बनर्जी के अनुसार कुषाण सत्ता का विनाश गुप्तवंश के उदय के कारण हुआ था। परंतु यह मत निराधार है, क्योंकि समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति से पता चलता है, कि उत्तरी भारत में गुप्त साम्राज्य की स्थापना के पहले ही कुषाण शासन समाप्त हो चुका था।
  • काशीप्रसाद जायसवाल का मत है, कि पंजाब तथा मध्य प्रदेश में कुषाणों का पतन भारशिव नागों के उदय के कारण हुआ। भारशिव नागों के कार्य को प्रवरसेन प्रथम के नेतृत्व में वाकाटकों का कुषाणों से कोई संबंध नहीं था।
  • अल्तेकर का विचाह है, कि यौधेयों ने कुणिन्द, अर्जुनायन आदि गणराज्यों की मदद से कुषाणों को परास्त कर सतलज नदी के पार खदेङ दिया। परंतु अल्तेकर का महोदय का यह मत यौधेयों के सिक्कों पर आधारित है। उनके सिक्कों पर जयमंत्रधार तथा यौधेयानाम् जयः मुद्रालेख उत्कीर्ण मिलता है। जिससे उनकी विजयों की सूचना मिलती है, परंतु हम यह नहीं कह सकते, कि ये विजयें उन्होंने कुषाणों के विरुद्ध ही प्राप्त की होंगी।
  • घिर्शमन् महोदय ने बेग्राम की खुदाई में मिले अवशेषों के विरुद्ध पर यह निष्कर्ष निकाला है, कि वासुदेव के शासन काल के अंत में ससैनियन नरेश शापुर प्रथम ने कुषाण साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। कुषाण पूर्णतया उखाङ फेंके गये तथा शापुर प्रथम ने पश्चिमोत्तर प्रदेशों पर अधिकार कर लिया।

Reference :https://www.indiaolddays.com/

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