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यूरोप में धर्म सुधार आंदोलन के कारण

यूरोप में धर्म सुधार आंदोलन के कारण

यूरोप में धर्म सुधार आंदोलन के कारण (Reasons for the Reformation Movement in Europe)

पुनर्जागरण

शताब्दियों तक शोषित एवं बंधनों में जकङे मानव मस्तिष्क को पुनर्जागरण की बौद्धिक एवं नवीन चेतना ने स्फूर्ति एवं स्वतंत्र चिन्तन शक्ति प्रदान की। प्रचलित अंधविश्वासों एवं जीवन में मुक्ति पाने की चाह से भयभीत मानवता ने अब निर्भीक और स्वच्छन्द वातावरण में श्वास लेना प्रारंभ किया। पुनर्जागरण का अर्थ क्या है, पुनर्जागरण इटली में ही क्यों हुआ, पुनर्जागरण के परिणाम

तार्किक शक्ति से चर्च के आदेशों को परखा जाने लगा। धर्म के सात्विक स्वरूप को जाना गया। चर्च और पादरियों पर निर्भरता समाप्त होने लगी। प्रगतिवादी साहित्य सृजन और मानववाद के उदय ने मनुष्य का ईश्वर के साथ सीधा संपर्क स्थापित किया। चर्च की झूठी मध्यस्थता का परित्याग एवं अज्ञान के आवरण को हटाकर यूरोप का मनुष्य धर्म सुधार हेतु कटिबद्ध हुआ।

आर्थिक जीवन में परिवर्तन

यूरोप का मनुष्य मध्य युग के सामंतों पर निर्भर था, क्योंकि कृषि और समस्त उद्योग धंधे आदि जीविकोपार्जन के साधन पूर्णतः सामंती नियंत्रण में थे। अतुल संपत्ति का स्वामी चर्च यूरोप की अर्थव्यवस्था का केन्द्र था, अतः मनुष्य जीवन पर चर्च का अंकुश सामंतों से भी अधिक था। व्यापार के विकास और राष्ट्रीय राज्यों के उदय से यूरोप में एक नवीन वर्ग का जन्म हुआ, जो पूंजी निवेश द्वारा अपनी शर्त्तों पर उत्पादन कराने को तत्पर हुआ। इस नव धनाढ्य वर्ग ने स्वयं के द्वारा अर्जित धने से ऐश्वर्य का जीवन बिताना चाहा, इस हेतु चर्च के प्रतिबंध से मुक्ति हेतु प्रयत्न प्रारंभ किए।

दूसरा, इस वर्ग ने रोजगार के नये साधन प्रदान कर दयनीय कृषकों व श्रमिकों को अपनी ओर आकृष्ट किया, अब वे चर्च व सामंत वर्ग पर निर्भर नहीं रहे। नवीन आर्थिक वर्ग ने धर्म विरुद्ध समुद्री यात्रा और ब्याज का लेन देन शुरू किया। राज्य को भी इस वर्ग से आय होने लगी अतः इन्हें राजकीय संरक्षण भी प्राप्त होने लगा। 16 वीं शताब्दी तक हुए आर्थिक परिवर्तनों ने चर्च के बंधनों की परवाह किए बिना ही प्रचलित रूढिवादी परंपराओं के विरुद्ध विद्रोह कर धर्म सुधार आंदोलने को गति प्रदान की।

वैज्ञानिक प्रगति

ईश्वर को सृष्टि और मनुष्य दोनों का नियंता मानकर यूरोप का संपूर्ण ईसाई समाज आजन्म धर्म और पुरोहितों के पूर्ण प्रभाव में रहना ही अपनी नियती समझता था। धर्म संबंधी विषयों में तर्क करना नर्कगामी होना मान्य था। पर्यवेक्षण और परीक्षण की नवीन वैज्ञानिक पद्धति ने सृष्टि व मानवोत्पत्ति की रूढिवादी सोच को नकार दिया। अरस्तू का चिन्तन, कि सृष्टि की प्रत्येक वस्तु वायु, जल, पृथ्वी और अग्नि का परिणाम है, पुनः मान्य होने लगा।

टॉलेमी का प्राचीन सिद्धात कि पृथ्वी सौर मंडल का केन्द्र है, माना जाने लगा।

कॉपरनिकस ने सिद्ध किया कि पृथ्वी अपनी कक्षा में सूर्य का चक्कर लगाती है।

लियोनार्डो ने मानव शरीर का सूक्ष्म अध्ययन किया। अनेक वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध किया कि मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का विधाता है। धर्म सम्मत मान्यताओं के विरुद्ध इन विचारों को विद्रोही गया और इन्हें दबाने के निर्दयी प्रयास भी हुए लेकिन बुद्धिवाद की विजय होने लगी। ईसाइयत के प्रचलित स्वरूप पर पुनर्विचार हेतु बाध्य होना पङा।

बाइबिल के मूल रूप और अन्य संस्कृतियों के धर्मों के अध्ययन ने कैथोलिक धर्म के आडंबरों की पोल खोल कर रख दी अतः धर्म सुधार की ज्योति जलने लगी।

प्रगतिशील शिक्षा का प्रसार

धर्म और चर्च के प्रति समर्पण से ओत प्रोत, पुरोहितों द्वारा दी जाने वाली शिक्षा से बाहर मनुष्य कुछ भी न सोच पाने को विवश था। सर्वप्रथम इटली में प्राचीन रोमन सभ्यता की शिक्षा दी जाने लगी। शनैः शनैः संपूर्ण यूरोप में इतिहास, भूगोल, गणित, सौन्दर्य शास्त्र, संगीत जैसे धर्म निरपेक्ष पाठ्य विषय शिक्षा पद्धति में शामिल किए जाने लगे। धर्म के स्थान पर मानववाद शिक्षा का विषय हो गया। जन भाषाओं में मानवोपयोगी उन्नत साहित्य सृजन होने लगा। छापेखाने के उपयोग से मौलिक, लौकक व धार्मिक साहित्य सहज सुलभ होने लगा। नये विश्वविद्यालय स्थापित हुए। अतः नवीन बुद्धिवादी चिन्तन के विकास ने धर्म सुधार को संभव बनाया।

चर्च में व्याप्त दोष

रोमन कैथोलिक धर्म गुरु पोप से छोटे पादरी तक सभी चर्च के पदाधिकारी, प्रतिबंध मुक्त एवं वैभव संपन्न थे। वे भ्रष्ट एवं विलासी हो गए। धर्म के पावन स्थल चर्च भ्रष्टाचार के केन्द्र बन गए। धर्माधिकारियों पर किसी राजा का कानून लागू नहीं होता था। अविवाहित रहकर भी ये सांसारिकता में आकंठ डूबे हुए थे।

पोप स्वयं को संपूर्ण ईसाई जगत का सम्राट और ईश्वर मानता था। वह ईसाई राज्यों का संरक्षक था। उसके प्रतिनिधि लिमेट एवं ननसियस राज्यों पर नियंत्रण रखते थे। इन्टरडिक्ट नामक विशेषाधिकार से किसी भी राज्य के चर्च को बंद किया जा सकता था। जिससे जन्म से मृत्यु तक सारे संस्कारों पर रोक लग जाती थी।

एक्ट कम्यूनिकेशन नामक विशेषाधिकार से किसी भी राजा को धर्म व पद से हटाया जा सकता था। राजा व प्रजा दोनों चर्च से भयभीत रहते थे। नवचेतना के उदय से पोप व चर्च की प्रभुसत्ता पर प्रश्न उठाये जाने लगे। चर्च को आय का दसवां भाग अनिवार्यतः देना बंद किया जाने लगा। मनुष्य भूखा रहकर भी चर्च को भेंट, चढावा आदि देने के लिये बाध्य था।

एक ओर निर्भनता, परिवार पालन और चर्च की अथाह संपत्ति और पादरियों का जीवन, रिक्त राजकोष युक्त राजा और भूखी नंगी प्रजा दोनों को अखरने लगी। बहुसंख्यक कृषक, श्रमिक, दास चर्च के अथाह वैभव और सम्पन्नता में अपना खून-पसीना और भूख ढूंढने लगे। चर्च व पोप का विरोध निरंतर बढता गया, जो कि धर्म सुधार पर आकर रुका।

राजनीतिक कारण

मध्य युगीन यूरोप में धर्म गुरु पोप ने असीमित सत्ता प्राप्त कर राजा को गौण बना दिया। विभिन्न दैवीय विशेषाधिकारों से युक्त पोप शासकीय व्यवस्था और कानून से भी ऊपर हो गए। धर्म संप्रभु पोप अपनी शक्तियों का भरपूर दुरुपयोग करने लगा। न केवल राजा के राजनीतिक कार्य-कलापों में बल्कि राजा के व्यक्तिगत जीवन में भी अमर्यादित हस्तक्षेप करने लगा। चर्च के न्यायालय राजा के निर्णयों को रद्द करने लगे। जनसामान्य और राजा दोनों इस दोहरी एवं विरोधाभासी व्यवस्था से दुःखी थे।

राजा या राजकुमार का विवाह और तलाक लेना भी पोप की अनुमति पर निर्भर था। इंग्लैण्ड के हेनरी अष्टम (1509-1547ई.) अपनी पत्नी केथरीन से तलाक लेना चाहता था। पोप द्वारा हस्तक्षेप करने पर, उसने पोप की अधीनता को चुनौती दे दी। इस प्रकार इन असह्य अतिक्रमणों को हटाने के प्रयत्न प्रारंभ हुए। पोप और राजा की व्यवस्था में टकराव प्रकट होने लगे। पुनर्जागरण के बाद राष्ट्रीय शक्ति संपन्न राजा पोप के अनुचित अधिकारों को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे।

वस्तुतः चर्च के अधीन अधिकांश कृषि भूमि करमुक्त थी, जिससे राज्य को वित्तीय हानि हो रही थी, साथ ही चर्च विपुल धन संपदा के केन्द्र थे जिन पर राजाओं की दृष्टि थी। राष्ट्रीय भावना के उदय से अपने राष्ट्र के विकास में बाधक रूढिवादी चर्च के प्रभाव को सीमित करने की लालसा यूरोप के सभी देशों में जागृत हुई। अतः धर्म सुधार आंदोलन को सर्वत्र स्वीकृति मिली।

मानववाद का उदय

16 वीं शताब्दी में यूरोप का मनुष्य नवीन प्रगतिशील विचारों के पूर्ण प्रभाव में आ गया था। अब वह धर्म की अतार्किक रूढियों एवं अमर्यादित शोषण से मुक्त होने के उपाय खोजने लगा। मानववादी सिद्धांतों के प्रचार प्रसार ने मनुष्य को मानव मात्र के प्रति स्नेह और सहानुभूति की प्रेरक शिक्षा प्रदान की, जिससे वह स्वयं के भौतिक सुख, परिवार, निजी संपत्ति, निजी ज्ञान और राष्ट्र की प्रगति के बारे में अधिक विचार करने लगा। धर्म और चर्च का स्थान बाद में हो गया।

इरैस्मस, सेवानरोला, जैसे विद्वान मानववादी पादरी भी चर्च की अनैतिक व अंधविश्वासी प्रथाओं को चुनौती देने लगे। तर्क के जन्म ने प्रत्येक व्यक्ति में अन्वेषणात्मक अभिरूचि जागृत की। अब यूरोप का मनुष्य स्वयं के हित के मूल्य पर धर्म हितार्थ बलि चढने को तैयार नहीं था।

बौद्धिक प्रतिक्रिया

यूरोपीय समाज के प्रबुद्ध बुद्धिवादी लोगों में चर्च के अनैतिक, भ्रष्ट एवं विलासिता पूर्ण जीवन के विरुद्ध प्रतिक्रिया होने लगी कि पोप या पादरी जो स्वयं पतित एवं पापी है, पापों से मुक्ति कैसे दिला सकता है? पाप का दंड धर्म पुरोहितों के लिये क्यों नहीं? भक्तिवादी, मानववादी और सुधारवादी बौद्धिक विचारक अपने तर्क पूर्ण विरोध की आवाज बुलंद करने लगे।

भक्तिवादी विचारक, ईश्वर के प्रति पूर्ण श्रद्धा और भक्ति भाव से मुक्ति चाहते थे। पादरी इरबर्ट ने नैतिक एवं सात्विक जीवन यापन का आह्वान किया जिसे दंड दिया गया।

दांते, लोरेन्जो, बोकेसिओ आदि मानववादी चिन्तक मानव जीवन के सुख को धर्म से अधिक महत्त्व देते थे। सुधारवादी, चर्च में व्याप्त दुर्व्यवस्थाऔर पुरोहितों के जीवन चरित्र में सुधार लाना चाहते थे। इनमें, मार्टिन लूथर, जॉन वाईक्लिफ एवं जॉन हस जैसे सुधारक थे। इन्होंने चर्च व पादरियों की कटु आलोचना की और मूल धर्मशास्त्र (बाइबिल) को ही धर्म का सच्चा प्रदर्शक घोषित किया। बाइबिल की सात्विक व्याख्या प्रस्तुत की। पोप ने उन्हें धर्म विरोधी घोषित किया।

जॉन हस को जिन्दा जलवा दिया। उसकी शहादत ने यूरोप में धर्म क्रांति उत्पन्न की, जिसे मार्टिन लूथर, ज्विंगली, जॉन काल्विन जैसे सुधारकों ने समुचित नेतृत्व प्रदान किया।

क्षमापत्रों की बिक्री

धनार्जन की लालसा इतनी बढ गयी कि धर्म के ठेकेदारों ने मोक्ष का व्यापार प्रारंभ कर दिया। पोप लियो दशम् ने पाप मोचन पत्र बनवाये, जिन्हें खरीद कर कोई भी ईसाई अपने पापों से मुक्ति प्राप्त कर सकता था। धनाढ्य वर्ग के लोग पाप से अर्जित धन द्वारा ये क्षमा-पत्र खरीदने लगे।

आर्कबिशप अलबर्ट को पोप ने यह कार्य सौंपा, जिसने एक पादरी टेटजेल को इन क्षमापत्रों की बिक्री हेतु अधिकृत किया। वह यूरोप के विभिन्न प्रदेशों में गया। इन खरीदने वालों को बिना पश्चाताप के पाप मुक्ति की गारंटी दी जाती थी।

1517 ई. में पादरी टेटजेल जर्मनी के विटनबर्ग पहुंचा जहां मार्टिन लूथर ने इन क्षमापत्रों की बिक्री का भारी विरोध किया। पोप ने मार्टिन लूथर को धर्म बहिष्कृत कर दिया। इस घटना से ही रोमन कैथोलिक धर्म के विरुद्ध आंदोलन का प्रारंभ हो गया। पूर्वतः तैयार पृष्ठभूमि में केवल चिंगारी की आवश्यकता थी, जिसे क्षमापत्रों की बिक्री ने पूरी कर दी।

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