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द्वितीय विश्व युद्ध के परिणाम

द्वितीय विश्व युद्ध के परिणाम – (Consequences of World War II)

द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति से इतिहास के एक अध्याय का अथवा युग का अंत हो गया । यह मानव इतिहास का सर्वाधिक क्रूर, भयानक और विनाशकारी युद्ध था। युद्ध में संलग्न सभी राष्ट्रों ने अपने वैज्ञानिक अनुसंधानों का प्रयोग किया। फलतः युद्धकाल में दोनों ही पक्षों को अपार क्षति उठानी पङी।

विनाश का सबसे अधिक वीभत्स दृश्य सोवियत रूस को देखना पङा, क्योंकि रूस के बार-बार कहने पर भी पश्चिमी राष्ट्रों ने 1944 तक धुरी राष्ट्रों के विरुद्ध कोई दूसरा मोर्चा नहीं खोला, इसलिये जर्मनी का प्रहार सबसे अधिक लाल सेना को ही सहन करना पङा। इसी प्रकार ब्रिटेन और फ्रांस को भी भारी हानि उठानी पङी, किन्तु उनकी क्षति रूस की तुलना में कुछ कम थी। पराजित राष्ट्रों ने जो क्षति उठाई, उसकी तो कल्पना ही नहीं की जा सकती है। द्वितीय विश्व युद्ध के परिणामों से एक नवीन युग का सूत्रपात हुआ।

द्वितीय विश्व युद्ध

द्वितीय विश्व युद्ध के परिणाम निम्नलिखित थे-

यूरोपीय प्रभुत्व का अंत

द्वितीय विश्व युद्ध के पूर्व तक यूरोप विश्व इतिहास का निर्माता था, किन्तु द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोपीय राष्ट्र आर्थिक एवं राजनैतिक दृष्टि से अपाहिज हो चुके थे। विश्व समाज को अनुशासित करने वाला यूरोप अब समस्या प्रधान यूरोप बन गया। विश्व युद्ध के बाद जर्मनी पूर्णतः पंगु हो चुका था, इटली सर्वनाश के कगार पर खङा सिसक रहा था तथा ब्रिटेन और फ्रांस की स्थिति तृतीय श्रेणी के राष्ट्रों जैसी हो गयी थी।

अब विश्व में केवल दो ही महाशक्तियाँ रह गई थी – सोवियत रूप और संयुक्त राज्य अमेरिका । युद्ध के बाद ये दोनों ही प्रथम श्रेणी के राष्ट्रों के रूप में उभरकर सामने आए तथा विश्व के राष्ट्र तेजी से उनके प्रभाव क्षेत्रों में बँटने लगे। इस प्रकार विश्व राजनीति का नेतृत्व अब यूरोप के हाथों से निकलकर इन दो महाशक्तियों के हाथों में चला गया और ये दोनों ही राष्ट्र परस्पर विरोधी विचारधाराओं के प्रतीक बन गए। रूस साम्यवादी विचारधारा का पोषक बन गया और अमेरिका लोकतंत्र एवं पूँजीवादी आकांक्षाओं के लिये सहारा बन गया। विश्व राजनीति क्षितिज पर रूस और अमेरिका रूपी दो सितारे चमक उठे, जिन्होंने विश्व नेतृत्व की कुंजी यूरोप के हाथों से छीन ली और इस प्रकार विश्व में यूरोपियन प्रभुत्व का अंत हो गया।

द्वितीय विश्व युद्ध

राष्ट्रीयता का नवजागरण

युद्ध के बाद यूरोपीय देशों के साम्राज्यों में राष्ट्रीयता की भावनाएँ प्रज्ज्वलित हुई। एशिया और अफ्रीका के राष्ट्रीय जागरण ने तो यूरोपीय राष्ट्रों के अवशिष्ट प्रभाव को भी समाप्त कर दिया।यूरोपीय देशों के साम्राज्यों में राष्ट्रीयता एवं नवजागरण की शक्तियाँ इतनी प्रबल हो उठी कि यूरोपीय राष्ट्रों के लिये अपने साम्राज्यों को बनाए रखना कठिन हो गया। पराजित राष्ट्रों – जर्मनी, इटली और जापान के साम्राज्य तो छीन ही लिये गये थे, किन्तु विजयी राष्ट्र भी अपने साम्राज्यों की रक्षा नहीं कर सके। परिस्थितियों से विवश होकर महायुद्ध के बाद ब्रिटिश सरकार ने अपनी नीति में परिवर्तन किया, जिससे भारत, बर्मा, पाकिस्तान, मलाया, मिस्र आदि देशों को स्वतंत्रता प्रदान की गयी। अफ्रीका के अनेक देशों को भी स्वतंत्रता प्राप्त हुई। फ्रेंच हिन्द चीन में फ्रांसीसी साम्राज्य समाप्त हो गया।

कम्बोडिया, लाओस, वियतनाम आदि स्वतंत्र हुए। हालैण्ड के उपनिवेशों – जावा, सुमात्रा, बोर्निया आदि ने हिन्देशिया नामक संघराज्य की स्थापना की और वह भी स्वतंत्र हो गया। जर्मनी दो भागों में विभाजित हो गया, पश्चिमी जर्मनी मित्र राष्ट्रों के प्रभाव में आ गया और पूर्वी जर्मनी पर रूस का प्रभाव स्थापित हो गया। जापान के क्यूराइल द्वीपों एवं दक्षिणी सखालिन पर रूस ने अधिकार कर लिया। फारमोसा चीन ने ले लिया और उन्हें उपयुक्त समय पर स्वतंत्रता देने का आश्वासन दिया। यद्यपि पुर्तगाल और स्पेन आदि कुछ देश अफ्रीका के कुछ प्रदेशों में अभी तक जमे हुए थे, किन्तु अब यूरोपीय साम्राज्य का सूर्य अस्त हो चुका था।

वस्तुतः 1919 के बाद एशिया और अफ्रीका में यूरोप साम्राज्यवाद की पराजय आरंभ हुई और 1945 के बाद इसका उन्मूलन हो गया। वास्तव में द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति और संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के बाद एशिया और अफ्राका में इतनी तीव्र गति से घटनाएँ घटी कि वहाँ आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक क्रान्तियों का विस्फोट हो गया। 1945 के बाद साम्राज्यवाद को कितना गहरा आघात पहुँचा, इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है इस युद्ध के पूर्व विश्व की संख्या का 33 प्रतिशत उपनिवेशों में निवास करता था, किन्तु आज उनकी संख्या केवल तीन या चार प्रतिशत रह गई है।

दो शक्तिशाली गुटों का उत्कर्ष

द्वितीय विश्व युद्ध का एक महत्त्वपूर्ण परिणाम यह भी निकला कि प्राचीन शक्ति संतुलन पूरी तरह से नष्ट हो गया। विश्व की दो प्रमुख फासिस्ट शक्तियों – जर्मनी और इटली का पूर्ण पराभव हो चुका था तथा फ्रांस अपने विनाश की दहलीज पर खङा था। ब्रिटेन आर्थिक, सामरिक और राजनीतिक दृष्टि से पहले की अपेक्षा अधिक क्षीण हो चुका था।

यूरोपीय महाद्वीप पर युद्धकालीन महाक्षतियों के बावजूद शक्तिशाली होकर निकलने वाला एकमात्र राष्ट्र रूस था, किन्तु युद्धकालीन क्षति उसके लिये वरदान सिद्ध हुई। रूस को विशाल प्रदेशों की उपलब्धि हुई तथा अन्क पङौसी देशों पर उसकी आर्थिक नीतियों का प्रभाव पङा। अब उसकी सीमाओं में वे सभी प्रदेश सम्मिलित हो गये, जो किसी समय जारकालीन रूस में शामिल थे।

प्रथम विश्व युद्ध के बाद रूस को जितना अपमान सहन करना पङा था, अब उसका उतना ही सम्मान बढ गया। विश्व राजनीति में साम्यवादी सिद्धांतों में लोगों की आस्था बढने लगी। पोलैण्ड, रूमानिया, हंगरी, बलेगिरिया, चेकोस्लोवाकिया आदि की जो सरकारें बनीं, वे सोवियत रूस की मित्र बनी। आंतरिक क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की भावना का प्रादुर्भाव हुआ। अल्पकाल में ही रूसियों ने बङे उत्साह और जोश के साथ नाजी आक्रमण के अवशेषों को मिटा दिया और शीघ्र ही वह विश्व की एक महाशक्ति बन गया।

विध्वंशकारी महायुद्ध से अस्त-व्यस्त विश्व में केवल एक देश ऐसा था, जो सोवियत रूस का मुकाबला कर सके। यह देश था – संयुक्त राज्य अमेरिका।युद्ध में अमेरिका का कोई विशेष नुकसान नहीं हुआ था, अतः आर्थिक दृष्टि से विश्व का वह सर्वाधिक सम्पन्न राष्ट्र था तथा विश्व के सभी पूँजीवादी राष्ट्र अमेरिका की सहायता से अपनी अर्थव्यवस्था ठीक करने का प्रयास कर रहे थे।

इस प्रकार युद्ध के बाद विश्व में शक्ति के दो प्रमुख केन्द्र बन गए – सोवियत रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका।इन दोनों महाशक्तियों के नेतृत्व में दो विरोधी गुटों का निर्माण होने लगा, जिसने भयानक शीत युद्ध को जन्म दिया। शक्ति के इन दो प्रमुख केन्द्रों के स्थापित हो जाने से अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों पर भी इसका प्रभाव पङा। सोवियत रूस की अपेक्षा अमेरिका के प्रभाव में निरंतर कमी होती गयी।

युद्धोत्तर विश्व में सिद्धांतों का संघर्ष

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व में सिद्धांतों एवं आदर्शों पर बल देने की प्रवृत्ति एक प्रमुख विशेषता बन गई। युद्धोत्तर विश्व में विभिन्न सिद्धांतों एवं विचारधाराओं ने सिर उठाया, जिनमें कुछ में तो साम्य था तो कुछ में परस्पर विरोध। युद्धोत्तर विश्व में विभिन्न विचारधाराएं पल्लवित होती गयी और अपनी शाखाओं और उपशाखाओं का विस्तार करती रही। युद्धोपरांत अमेरिका ने उदारवादी नीति ने उदारवादी नीति अपनाई तथा आर्थिक दृष्टि से पस्त राष्ट्रों को आर्थिक पुनर्निर्माण के लिये सहायता प्रदान की। दूसरी ओर उसने पिछङे हुए एशियाई राष्ट्रों को भी सहायता देने की नीति अपनाई। इस विचारधारा को अमेरिकन उदारवाद की संज्ञा दी जाती है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सोवियत रूस साम्यवाद को अमेरिकन उदारवाद की संज्ञा दी जाती है।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सोवियत रूस साम्यवाद का प्रमुख केन्द्र बन गया। जिसका एकमात्र लक्ष्य विश्व में साम्यवा का प्रसार करना हो गया। उसने किसानों के समर्थन एवं पूँजीपतियों के विरुद्ध अपने आकर्षक विचारों से साम्यवाद की ओर जन सामान्य का ध्यान आकर्षित किया। पराधीन राष्ट्रों को साम्यवाद ने स्वाधीनता का आश्वासन दिाय, उनमें साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के विरुद्ध कटु प्रचार करके राष्ट्रीय भावनाओं को जागृत किया। अपने आकर्षक आर्थिक सिद्धांतों से एशिया और अफ्रीका के अनेक देशों को अपने प्रभाव में लाने में सफलता प्राप्त की। साम्यवादी रूस, पूँजीवादी अमेरिका का कट्टर शत्रु है, अतः अमेरिका एवं अन्य पूँजीवादी देशों ने साम्यवाद के बढते हुये प्रभाव का डटकर विरोध किया।

इस प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप आज संपूर्ण विश्व साम्यवादी और पूँजीवादी दो खेमों में विभाजित है और प्रत्येक एक-दूसरे के प्रभाव को नष्ट करने के लिये प्रयत्नशील है। द्वितीय महायुद्ध के बाद 1947 में भारत स्वतंत्रता के साथ ही असंलग्नतावाद की विचारधारा का प्रार्दुभाव हुआ।यह विचारधारा न तो साम्यवाद की ओर आकर्षित होने को कहती है और न पूँजीवाद के मध्य समन्वय स्थापित करने के लिये असंलग्नवाद की विचारधारा विकसित हुई थी। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अन्तर्राष्ट्रीयवाद की विचारधारा को लोकप्रियता प्राप्त हुई। संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्था को इस विचारधारा का प्रबल पोषक माना गया। इस प्रकार द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अनेक विचारधाराओं का विकास हुआ ।

शीत युद्ध का श्रीगणेश

द्वितियी विश्व युद्ध के बाद अन्तर्राष्ट्रीय रंगमंच पर रूस और अमेरिका जैसी दो महाशक्तियों का उत्कर्ष हुआ था। नाजी जर्मनी को कुचलने की समान स्वार्थ भावना के कारण युद्धकाल में रूस तथा अमेरिका एवं पाश्चात्य शक्तियों में मैत्रीपूर्ण संबंध रहे, किन्तु युद्ध के बाद दोनों में मतभेद उग्र हो गए।

दोनों पक्षों की विचारधाराओं में विरोध तो पहले से ही विद्यमान था और युद्धकाल में दोनों एक दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखने थे। साम्यवादी रूस युद्धकाल में निरंतर अपना प्रभाव क्षेत्र बढाता जा रहा था, जिसे पाश्चात्य देश रोकने का प्रयत्न करते रहे। पाश्चात्य देशों ने भी रूस को युद्धकाल में उतना सहयोग नहीं दिया जितना देना चाहिये था, अतः युद्ध के बाद दोनों पक्षों ने खुलकर एक दूसरे पर आरोप लगाए।

साम्यवादी देशों का केन्द्र रूस बन गया तथा साम्यवाद विरोधी देशों का नेतृत्व अमेरिका करने लगा। दोनों के वाक् संघर्ष ने एक नए प्रकार के अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष को जन्म दिया, जिसे शीतयुद्ध के नाम से पुकारा जाता है। इस प्रकार के संबंधों में विरोधी राष्ट्रों के बीच कूटनीतिक संबंध बने रहते हैं और प्रत्यक्ष संघर्ष नहीं होता, किन्तु उनका पारस्परिक व्यवहार शत्रुतापूर्ण होता है। दोनों पक्ष अपने भाषणों में एवं समाचार पत्रों के माध्यम से एक दूसरे के विरुद्ध विषवमन करते रहते हैं।

प्रादेशिक संगठन

युद्ध के बाद कोई संतोषजनक शांति समझौता नहीं हो सका। संयुक्त राष्ट्र भी रूस व अमेरिका के बीच चलने वाले शीत युद्ध का अखाङा बन गया था। फलतः दोनों अपनी भावी सुरक्षा के लिये प्रादेशिक संगठनों के निर्माण की ओर अग्रसर हुए। एक ओर अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी राष्ट्रों ने साम्यवादी राष्ट्रों के चारों ओर सुरक्षा संगठनों का घेरा डालकर साम्यवाद पर अंकुश लगाने की चेष्टा की तो दूसरी ओर रूस ने अपने और पश्चिमी राष्ट्रों के बीच साम्यवादी सरकारों की स्थापना करके सुरक्षा को सुदृढ बनाने का प्रयत्न किया।

पश्चिमी राष्ट्रों के सुरक्षा संगठनों में उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (NATO), दक्षिई-पूर्वी एशिया संधि संगठन(SEATO), बगदाद पैक्ट आदि उल्लेखनीय हैं। साम्यवादी सुरक्षा संगठनों में वारसा पैक्ट प्रमुख हैं।

निःशस्रीकरण

द्वितीय विश्व युद्ध के पूर्व भी निःशस्रीकरण के प्रयास होते रहे थे, किन्तु द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इस समस्या का महत्त्व अधिक बढ गया था, क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध में नए-नए वैज्ञानिक अस्र-शस्त्रों तथा अणु बम जैसे विनाशकारी शस्रों का प्रयोग हो चुका था, जिससे भावी विश्व में शांति बनाए रखना अत्यन्त ही आवश्यक हो गया था, क्योंकि विनाशकारी शस्रों के आविष्कार के कारण यिद अब विश्व में तृतीय युद्ध लङा गया तो विश्व मात्र राख का ढोर बनकर रह जाएगा।

अतः युद्ध के बाद अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अस्र-शस्त्रों को सीमित करने के प्रश्न पर गंभीर रूप से विचार होने लगा। इस प्रश्न के समाधान के लिये सरकारी और गैर-सरकारी, दोनों स्तरों पर प्रयत्न किए जाने लगे, किन्तु रूस और अमेरिका के बीच इस प्रश्न के संबंध में गंभीर मतभेद उत्पन्न हो गए। एक पूर्णतः निःशस्रीकरण के सभी प्रयास विफल हुए हैं, फिर भी द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद से लगातार आज तक किसी भी देश ने निःशस्रीकरण के महत्त्व को अस्वीकार नहीं किया है और उसका महत्त्व आज भी है।

संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना

द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका से सभी राष्ट्र आतंकित थे। इस युद्ध से भीषण ताण्डव ने विचारशील राजनीतिज्ञों को मानव जाति की रक्षा के लिये शांति को सुरक्षित रखने वाले एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के निर्माम की तीव्र आवश्यक्ता अनुभव कराई। पश्चिमी यूरोप तथा अमेरिका पिछले राष्ट्रसंघ से एक भिन्न संगठन बनाना चाहते थे। अमेरिका के राष्ट्रपति रुजवेल्ट ने कहा था, “राष्ट्रसंघ की असेम्बली जैसी संस्था के पुनर्निर्माण से अधिक नरर्थक कोई अन्य कार्य नहीं है।”

युद्ध में ही इसकी स्थापना के प्रयत्न आरंभ हो गए थे। अक्टूबर, 1943 में मास्को सम्मेलन में सामान्य सुरक्षा के लिये एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन स्थापित करने का विचार स्वीकार किया गया। उसके बाद भिन्न-भिन्न बैठकों में इसके संगठन एवं विधान का प्रारूप तैयार किया गया। तथा अप्रैल-जून, 1945 में सेन फ्रांसिस्को सम्मेलन में इसे अंतिम रूप दिया गया। इसके बाद 24 अक्टूबर, 1945 को संयुक्त राष्ट्रसंघ के विधान को लागू कर दिया गया।

निष्कर्षतः द्वितीय विश्व युद्ध के प्रभाव से विश्व का कोई भी राष्ट्र अछूता नहीं रहा। यहां तक कि जो देश इस युद्ध में तटस्थ रहे, वे भी इसके प्रभावों से मुक्त नहीं रह सके। युद्ध के परिणामस्वरूप शक्ति-संतुलन ब्रिटेन के हाथों से निकलकर अेरिका के हाथों में आ गया। वैज्ञानिक आविष्कारों की दौङ आरंभ हुई। शांति को बनाए रखने के नाम पर नए-नए विध्वंसक अस्र-शस्रों का निर्माण आरंभ हो गया।यद्यपि नए-नए आविष्कारकर्त्ता राष्ट्रों का कहना है कि वे इनका प्रयोग शांतिपूर्ण उद्योगों के लिये करेंगे, किन्तु वास्तव में इनका प्रयोग शांतिपूर्ण उपायों के लिये होगा या युद्ध के लिए, यह कहना कठिन है।

महत्त्वपूर्ण प्रश्न एवं उत्तर

प्रश्न : प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के कितने वर्ष बाद द्वितीय महायुद्ध शुरू हुआ

उत्तर : 20 वर्ष बाद

प्रश्न : यूरोप के उस देश का नाम बताइए जो दोनों विश्व युद्धों में तटस्थ रहा

उत्तर : स्पेन

प्रश्न : द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इंग्लैण्ड के किस प्रधानमंत्री को त्याग पत्र देना पङा

उत्तर : चेम्बरवेल को

प्रश्न : किस घटना ने संयुक्त राज्य अमेरिका को द्वितीय महायुद्ध में सम्मिलित होने के लिये विवश कर दिया

उत्तर : पर्लहार्बर पर जापानी आक्रमण से

प्रश्न : द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विश्व में किसके प्रभुत्व का अंत हो गया

उत्तर : यूरोपीय प्रभुत्व का

1. पुस्तक- आधुनिक विश्व का इतिहास (1500-1945ई.), लेखक - कालूराम शर्मा

Online References
wikipedia :द्वितीय महायुद्ध की गतिविधियाँ

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