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एटली की घोषणा एवं मंत्रिमंडल मिशन

एटली की घोषणा एवं मंत्रिमंडल मिशन

एटली की घोषणा एवं मंत्रिमंडल मिशन

भारत के उत्तेजित वातावरण के कारण 15 मार्च, 1946 को ब्रिटिश संसद में एक साहित्यिक घोषणा की गयी। इस घोषणा में भारतीयों के आत्मनिर्णय के अधिकार को स्वीकार किया गया। भारतीयों को ब्रिटिश राष्ट्रमंडल में रहने अथवा छोङने की भी छूट दी गयी। यह भी कहा गया कि यद्यपि ब्रिटिश सरकार अल्पसंख्यकों के हितों के बारे में बहुत चिंतित है, किन्तु किसी भी अल्पसंख्यक वर्ग को बहुमत की प्रगति रोकने के लिए निषेधाधिकार नहीं दिया जा सकता। यह भी घोषणा की गयी कि ब्रिटिश सरकार भारतीय गतिरोध को हल करने के लिए एक मंत्रिमंडल मिशन भेज रही है।

मंत्रिमंडल मिशन में ब्रिटिश मंत्रिमंडल के तीन सदस्य – लार्ड पैथिक लारेन्स, सर स्टेफर्ड क्रिप्स और ए.वी.अलेक्जेण्डर शामिल थे। यह मंत्रिमंडल मिशन 24 मई, 1946 को दिल्ली पहुँचा। इस मिशन का उद्देश्य एक नवीन वैधानिक रूपरेखा तैयार करना तथा केन्द्र में एक अस्थायी सरकार की स्थापना करना था। इस मिशन ने आते ही विभिन्न विचारधाराओं के लोगों से बातचीत आरंभ कर दी।

सर्वाधिक जटिल समस्या कांग्रेस और मुस्लिम लीग में समझौते की थी। मुस्लिम लीग अपनी पाकिस्तान की माँग पर अङी हुई थी, जबकि कांग्रेस अखंड भारत की माँग पर अडिग थी। मुस्लिम लीग के नेताओं ने अपने भाषणों में ऐसा जहर उगलना आरंभ कर दिया था, जो देश की एकता के लिए घातक था। मुस्लिम लीग के एक नेता चुन्द्रीगर ने घोषणा की कि अंग्रेजों को यह अधिकार नहीं है कि वे मुसलमानों को ऐसे लोगों के हाथ में सौंप दें, जिन पर हम हजारों वर्षों तक शासन करते रहे हैं। इस प्रकार मुस्लिम लीग ने अपनी पाकिस्तान की माँग मिशन के सामने प्रस्तुत की। मंत्रिमंडल मिशन ने दोनों की योजनाओं को अस्वीकृत कर दिया और स्पष्ट कह दिया कि पाकिस्तान का निर्माण साम्प्रदायिक समस्या का समाधान नहीं है।

जब मुस्लिम लीग और कांग्रेस में कोई समझौता न हो सका, तब मिशन ने विभिन्न दलों के प्रतिनिधियों का शिमला में एक सम्मेलन बुलाया। सम्मेलन 11 मई, 1946 तक चलता रहा, मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की माँग तथा इसके लिए जिन्ना की हठधर्मी के कारण सम्मेलन असफल हो गया। तब मिशन ने स्वयं ही एक योजना का निर्माण किया, जिसे मंत्रिमंडल मिशन योजना कहते हैं। 16 मई, 1946 को इस योजना की घोषणा कर दी गयी।

मंत्रिमंडल मिशन की योजना की मुख्य बातें निम्नलिखित थी –

भारत में एक संघ शासन की व्यवस्था होनी चाहिए, जिसमें ब्रिटिश भारत के सभी प्रांत तथा भारत की देशी रियासतें सम्मिलित हों। प्रांतों को पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त होनी चाहिये। संघ के पास वैदेशिक मामले, प्रतिरक्षा तथा संचार साधनों का दायित्व होना चाहिये। ऐसे सभी विषय जो स्पष्ट रूप से संघ को नहीं सौंप गये हैं, वे सभी प्रांतों के पास रहने चाहिये। जिन विषयों को देशी रियासतें संघ को नहीं सौपेंगी, उन सभी पर देशी रियासतों का अधिकार होगा।

भारत का संविधान बनाने के लिए एक संविधान सभा का गठन किया जायेगा, जिसमें प्रत्येक प्रांत को अपनी 10 लाख की जनसंख्या पर एक प्रतिनिधि चुनने का अधिकार होगा। संविधान सभा के कुल सदस्य 389 होंगे, इनमें 93 सदस्य देशी रियासतों के, 4 चीफ कमिश्नर प्रांतों के और शेष 292, मुस्लिम 78, सिक्ख 4 तथा चीफ कमिश्नर प्रांतों के 4 प्रतिनिधि होंगे।

संविधान सभा की प्रारंभिक बैठक के बाद सभी प्रांत तीन समूह में विभाजित हो जायेंगे। पहले समूह में मद्रास, बंबई, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रांत, बिहार तथा उङीसा होंगे, दूसरे समूह में सिन्ध, बलूचिस्तान, उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रांत और पंजाब शामिल होंगे तथा तीसरे समूह में बंगाल और असम होंगे। प्रत्येक समूह को यह अधिकार होगा कि वह जिस प्रकार की शासन व्यवस्था चाहे स्थापित कर सकता है और संपूर् समूह के लिए अलग संविधान का निर्माण हो सकता है। प्रांतों को अपने समूह से संबंध विच्छेद करने का अधिकार होगा।

ब्रिटिश सरकार संविधान सभा द्वारा बनाये गये संविधान को पूरी तरह लागू करेगी।

भारतीय देशी रियासतें पर नियंत्रण का अधिकार न तो संघ को होगा और न अँग्रेज सरकार के पास रहेगा।

मंत्रिमंडल मिशन योजना में यह भी कहा गया था कि जब तक संविधान का निर्माण नहीं हो पाता, तब तक के लिए एक अंतरिम सरकार की स्थापना की जायेगी। इसमें 14 सदस्य होंगे, जिनमें 6 काँग्रेस, 5 मुस्लिम लीग, भारतीय ईसाइयों, सिक्ख और पारसियों का एक-एक प्रतिनिधि होगा। प्रशासकीय मामलों में ब्रिटिश सरकार, अंतरिम सरकार को पूर्ण सहयोग देगी तथा सत्ता का जल्दी से जल्दी हस्तांतरण कर देगी।

भारत के संवैधानिक गतिरोध को दूर करने का यह एक ईमानदार प्रयत्न था। इसने पाकिस्तान की माँग को स्पष्ट रूप से अस्वीकार कर दिया। लेकिन मुस्लिम लीग को संतुष्ट करने के लिए केन्द्र को निर्बल रखा गया तथा कांगेस की माँग को ध्यान में रखते हुए एक संघ स्थापित करने की व्यवस्था की गयी। संविधान सभा में जनसंख्या के आधार पर प्रतिनिधित्व देकर संविधान सभा को लोकतंत्रीय बनाने का प्रयास किया गया।

इस संविधान सभा को पूर्ण स्वतंत्रता और सभी अधिकार दिये गये। इसमें अंतरिम सरकार की व्यवस्था करके सभी विभाग भारतीयों को सौंपने को कहा गया। स्वयं गाँधीजी ने कहा था कि तत्कालीन परिस्थितियों में वह सर्वोत्तम प्रलेख है। जिन्ना ने भी स्वीकार किया कि अल्पसंख्यकों की समस्या के समाधान का इससे उत्तम उपाय नहीं हो सकता था।

इस योजना में प्रांतों को समूह में बाँटना, इसका सबसे बङा दोष था। इससे राष्ट्रीय एकता महत्त्वहीन हो गयी। प्रांतों को अपना अलग संविधान बनाने का अधिकार देने से संपूर्ण देश में एक ही प्रकार की शासन पद्धति स्थापित नहीं हो सकती थी। समूहों का फार्मूला भी अस्पष्ट था, अतः काँग्रेस और लीग में विवाद आरंभ हो गया। काँग्रेस के अनुसार समूह में शामिल होना अथवा संविधान को मानना ऐच्छिक था, जबकि मुस्लिम लीग इसे अनिवार्य मानती थी। अंतरिम सरकार में राष्ट्रवादी मुसलमानों को कोई मान्यता नहीं दी गयी अर्थात् काँग्रेस किसी मुसलमान सदस्य को मनोनीत नहीं कर सकती थी।

6 जून, 1946 को मुस्लिम लीग ने इस योजना को स्वीकार कर लिया तथा 14 जून, 1946 को कांग्रेस ने भी इसे स्वीकार कर लिया। किन्तु कांग्रेस ने अंतरिम सरकार में भाग लेने से इन्कार कर दिया, क्योंकि कांग्रेस किसी राष्ट्रवादी मुसलमान को अंतरिम सरकार में मनोनीत करना चाहती थी। जुलाई, 1946 को कांग्रेस ने भी इसे स्वीकार कर लिया। किन्तु कांग्रेस ने अंतरिम सरकार में भाग लेने से मना कर दिया, क्योंकि कांग्रेस किसी राष्ट्रवादी मुसलमान को अंतरिम सरकार में मनोनीत करना चाहती थी। जुलाई, 1946 में योजना के अनुसार चुनाव हुए, जिसमें कांग्रेस को भारी सफलता मिली।

10 जुलाई, को पंडित नेहरू ने बंबई में एक वक्तव्य दिया कि कांग्रेस संविधान सभा में भाग लेने के लिए सहमत है और मंत्रिमंडल समझती है। पंडित नेहरू का यह वक्तव्य गलत था, क्योंकि जिन्ना ने अपने लाभ के लिए इसका खूब प्रयोग किया। 29 जुलाई, 1946 को मुस्लिम लीग ने इस योजना को अस्वीकार कर दिया। लार्ड विवल केवल मुस्लिम लीग के सहयोग से अंतरिम सरकार बनाने को तैयार नहीं हुआ (कांग्रेस ने अंतरिम सरकार की योजना अस्वीकृत कर दी थी)। जिन्ना ने कहा कि मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की माँग को त्याग कर भारी कुर्बानी दी थी। अब उसने पाकिस्तान की प्राप्ति के लिए सीधी कार्यवाही करने की धमकी दी।

अंतरिम सरकार

जब मुस्लिम लीग ने मंत्रिमंडल मिशन योजना को अस्वीकार कर दिया तब कांग्रेस ने बाद में अंतरिम सरकार में भाग लेने की योजना स्वीकार कर ली। अतः 12 अगस्त, 1946 को गवर्नर-जनरल ने पंडित नेहरू को अंतरिम सरकार बनाने का निमंत्रण भेजा। मुस्लिम लीग ने कांग्रेस के साथ मंत्रिमंडल में सम्मिलित होने से इन्कार कर दिया तथआ 16 अगस्त, 1946 को सीधी कार्यवाही करने का निश्चय किया। 16 अगस्त, से साम्प्रदायिक दंगों का सिलसिला आरंभ हो गया, जिसमें लाखों व्यक्तियों की जानें गयी तथा करोङों रुपये की सम्पत्ति का नुकसान हुआ।

बंगाल में मुस्लिम लीग की सरकार थी और सुहरावर्दी वहाँ का मुख्यमंत्री था। उसने 16 अगस्त को घोषणा की छुट्टी घोषित कर दी। अतः बंगाल में सबसे अधिक दंगे हुए। 24 अगस्त को घोषणा कर दी गयी कि 2 सितंबर को अंतरिम मंत्रिमंडल शपथ ग्रहण करेगा।

24 अगस्त के बाद लार्ड वेवल ने मुस्लिम लीग का समर्थन करना आरंभ कर दिया। वह चाहता था कि मुस्लिम लीग को उसकी शर्तों के अनुसार मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया जाय। लेकिन भारत सचिव ने इसका समर्थन नहीं किया। 2 सितंबर, 1946 को अंतरिम सरकार ने शपथ ग्रहण की। वेवल के प्रयत्नों से मुस्लिम लीग ने भी अंतरिम सरकार में अपना प्रतिनिधि भेजना स्वीकार कर लिया।

मुस्लिम लीग को अंतरिम सरकार में लेने के बाद वेवल ने मंत्रिमंडल के संयुक्त उत्तरदायित्व को स्थापित करने का कोई प्रयत्न नहीं किया। मुस्लिम लीग द्वारा अंतरिम सरकार को कोई सहयोग प्राप्त नहीं हुआ, क्योंकि वह तो कांग्रेस की नीतियों को समाप्त करना चाहती थी। मुस्लिम लीग के प्रतिनिधि लियाकत अली वित्त मंत्री थे।

उन्होंने नया बजट प्रस्तुत करते समय उद्योगपतियों एवं व्यापारियों पर भारी कर लगाये। उनका कहना तो यह था कि ये कर कांग्रेस की नीतियों – आर्थिक विषमताओं को दूर करने के लिये लगाये जा रहे हैं। लेकिन ये कर स्पष्टतः साम्प्रदायिकता से प्रेरित थे क्योंकि अधिकांश व्यापारी व उद्योगपति हिन्दू थे। अतः कांग्रेस और मुस्लिम लीग मिलकर कार्य नहीं कर सकी।

पाकिस्तान की माँग को लेकर सारे देश में दंगे हो रहे थे। कलकत्ता के बाद नोआखली में हिन्दुओं पर मुसलमानों ने बहुत अत्याचार किये। इसकी प्रतिक्रिया बिहार, गढमुक्तेश्वर और अहमदाबाद में हुई, जहाँ हिन्दुओं ने मुसलमानों पर अत्याचार किये। मुस्लिम लीग ने मुसलमानों को भङकाने के लिए बिहार दिवल मनाया। फलस्वरूप उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत, पंजाब आदि में भी दंगे फैल गये।

एटली की घोषणा

भारत की विषम स्थिति से इंग्लैण्ड की सरकार भली भाँति परिचित थी। अब उसने भारत को ऐसी बिगङी स्थिति में छोङकर भारत से अपना अधिकार समाप्त करना ही श्रेष्ठ समझा। अतः लार्ड एटली ने 20 फरवरी, 1947 को घोषणा की कि ब्रिटिश सरकार जून, 1948 तक भारत के उत्तरदायी व्यक्तियों को सत्ता सौंप देगी। इसके साथ ही यह घोषणा की गयी कि लार्ड वेवल को भारत से वापस बुला लिया जायेगा और उसके स्थान पर लार्ड माउण्टबेटन को गवर्नर-जनरल नियुक्त किया जायेगा, जो भारत के अंतिम गवर्नर-जनरल होंगे। 14 मार्च, 1947 को माउण्टबेटन ने गवर्नर-जनरल का पद ग्रहण कर लिया।

भारत के गवर्नर, गवर्नर जनरल एवं वायसराय से संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्य

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