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भारतीय राष्ट्रीय राजनीति में अलगाववादी प्रवृत्तियां

भारतीय राष्ट्रीय राजनीति में अलगाववादी प्रवृत्तियां

अलगाववादी प्रवृत्तियां

अलगाववादी प्रवृत्तियों कारण

भारतीय राष्ट्रीय राजनीति में अलगाववादी प्रवृत्तियों के विस्तार की मुख्य वजह अल्पसंख्यक मुसलमानों द्वारा बहुसंख्यक हिन्दुओं के व्यापार, उद्योग, सरकारी नौकिरियाँ, शिक्षा तथा व्यवसाय में प्रभुत्व के विरोध-स्वरूप विकसित हुआ।

अंग्रेजों के आने पर मुसलमानों को राजनैतिक सत्ता के साथ-साथ आर्थिक तथा सामाजिक क्षति भी उठानी पङी। 1857 की क्रांति की असफलता ने मुसलमानों को और नुकसान पहुँचाया। सरकारी नौकरियों में अंग्रेजी भाषा को और नुकसान पहुँचाया। सरकारी नौकिरियों में अंग्रेजी भाषा की अनिवार्यता की वजह से उनकी क्रमशः कम होती गयी।

पश्चिमी ज्ञान का विरोध, व्यापार तथा उद्योग से विमुखता और सामंती प्रवृत्तियों की बहुलता की वजह से वो लोग पिछङ गए।

अलगाववादी प्रवृत्तियां

देश की अर्थव्यवस्था के पिछङेपन ने भी अलगाववादी प्रवृत्तियों को बढावा दिया। बेरोजगारी भी एक विकट समस्या थी, जिसकी वजह से कम नौकरियों के लिये ज्यादा मारा-मारी थी। बहुत से लोगों ने इसका निदान साम्प्रदायिक, क्षेत्रिय तथा जातिय आधार पर नौकिरियों में आरक्षण के रूप में किया।

सर सैयद अहमद खान द्वारा शुरू किए गए शिक्षा आंदोलन ने मुसलमानों की अपनी सम्प्रदाय के प्रति हीन भावना को और बढाया। हिन्दू विचारकों ने भारत को भारतीयों के लिये का नारा बुलंद किया अर्थात् बहुसंख्यकों का राज्य।

ज्यादातर मुसलमानों ने भारतीय गणतंत्र के इस राष्ट्रवादी स्वरूप को नकार दिया, जिसमें मुसलमानों की सुरक्षा के प्रति कोई प्रावधान नहीं किया गया। फलस्वरूप राष्ट्रवादियों या हिन्दूविरोधी गतिविधियों का नया चरण शुरू हुआ।

स्कूलों और महाविद्यालयों में इतिहास शिक्षण पद्धति ने भी सम्प्रदायवादी विचारों को प्रबल बनाया। अंग्रेज तथा भारतीय इतिहासकारों ने मध्यकाल को मुस्लिमकाल तथा प्राचीनकाल को हिन्दूकाल के नाम से प्रचारित किया। इतिहास के प्रति इस साम्प्रदायिक रवैये ने अलगाववादी प्रवृत्तियों को भङकाया।

राष्ट्रीय एकता को छोङकर बाकी सब क्षेत्रों में उग्रवाद तथा क्रांतिकारी आतंकवाद ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उग्रपंथी तथा क्रांतिकारी आतंकवाद ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

उग्रपंथी तथा क्रांतिकारियों के लेखन और भाषण में एक प्रबल हिन्दू धार्मिक स्वर सुनाई पङता है। उन्होंने प्राचीन भारतीय संस्कृति को बढावा देते हुये मध्यकालीन भारतीय संस्कृति का बहिष्कार किया। इससे यह बिल्कुल नहीं समझना चाहिये की उग्रपंथी मुस्लिम विरोधी थे और न ही पूर्णत साम्प्रदायिक।

इनमें ज्यादातर हिन्दू-मुस्लिम एकता के हिमायती थे, फिर भी उनके राजनैतिक लेखन और विचारों में हिन्दू धर्म उन्मुखता को नकारा नहीं जा सकता।

स्वरूप तथा विस्तार

1906 ई. में ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की स्थापना के साथ ही मुसलमानों के एक वर्ग में अलगाववादी प्रवृत्तियाँ अपने चरम पर पहुँची। लीग ने बंगाल विभाजन का समर्थन किया तथा मुसलमानों की सुरक्षा के प्रति विशेष प्रावधानों की मांग की।

उसके बाद पृथक निर्वाचन की मांग भी पूरी करवा ली। विकसित होते हुये राष्ट्रीय आंदोलन के खिलाफ अंग्रेजों ने लीग में अपना एक महत्त्वपूर्ण समर्थक पाया।

देखा जाय तो मुस्लिम लीग के समकक्ष कोई भी हिन्दू सम्प्रयायिक पार्टी विकसित नहीं हुई थी तथापि साम्प्रदायिक भावनाओं का जोर बढ रहा था।बहुत से हिन्दू लेखकों और राजनीतिज्ञों ने हिन्दू राष्ट्रवाद की बातचीत भी शुरू की तथा मुसलमानों को विदेशी भी घोषित किया।

1925 में मदनमोहन मालवीय द्वारा हिन्दू महासभा की स्थापना के साथ ही हिन्दू राष्ट्रवाद का संस्थागत विकास देखने को मिलता है। उसके बाद 1925 में आर.एस.एस. की स्थापना से संस्थागत हिन्दू सम्प्रदायिक को बढावा मिला।

हिन्दू सम्प्रदायिक ताकतों में मुस्लिम सम्प्रदायिक ताकतों की प्रतिध्वनि सुनने को मिलती है और दो राष्ट्रों की अवधारणा को समर्थन भी दिया।

अपने-अपने सम्प्रदायों की आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक विकास की बहुत ही संकीर्ण स्वतेन्द्रित नजरिए से देखते हुए अपने हितों की बात शुरू की। यह प्रवृत्ति ब्रिटिशों द्वारा फूट डालो और राज करो की नीति के द्वारा और ज्यादा प्रज्जवलित की गयी।

ब्रिटिश राजनीतिज्ञ भारत में अपने साम्राज्य के स्थायित्व के प्रति चिंतित थे। राष्ट्रीय एकता को भंग करने के लिये उन्होंने धर्म का सहारा लिया। 1905 का बंगाल विभाजन तथा 1906 के सुधारों द्वारा पृथक निर्वाचन मंडल को मान्यता, अंग्रेजों की फूट डालो और राज्य करो की नीति को साफ दर्शाती है।

कांग्रेस के खिलाफ एकजुट होने में साम्प्रदायिक ताकतें कभी नहीं हिचकी। सरकार समर्थक रुख अपना लेना इनकी दूसरी महत्त्वपूर्ण राजनैतिक प्रवृत्ति थी। विदेशी ताकतों से युद्ध में साम्प्रदायिक ताकतों ने कभी हिस्सा नहीं लिया।

सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि इन्होंने कभी भी जनमानस की मांगों का प्रतिनिधित्व नहीं किया। यह अन्य वर्ग की संस्था के रूप में जन्मे और उन्हीं का प्रतिनिधित्व करते रहे।

परिणाम

  • अलगाववादी ताकतों ने साम्प्रदायिक भावनाओं के आधार पर राष्ट्रवादी आंदोलन को कमजोर किया।
  • साम्प्रदायिक संस्थाओं का उद्भव और विकास हुआ।
  • इनकी वजह से स्वतंत्रता प्राप्ति को कम से कम कुछ वर्षों के लिये रुकना पङा।
  • मुसलमानों के लिये अलग राज्य की मांग, जिसके फलस्वरूप राष्ट्र का विभाजन हुआ।
  • सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि स्वतंत्र भारत में भी साम्प्रदायिक दंगों की प्रक्रिया अनवरत जारी है और लाखों निर्दोष व्यक्तियों की नृशंस हत्या होती रही है।
References :
1. पुस्तक- भारत का इतिहास, लेखक- के.कृष्ण रेड्डी

Online References
wikipedia : अलगाववादी प्रवृत्तियां

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