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बंगाल में द्वैध शासन की स्थापना की परिस्थितियों का विश्लेषण कीजिये।इस व्यवस्था के गुण व दोष क्या थे?

बंगाल में द्वैध शासन

बंगाल में द्वैध शासन

बंगाल में द्वैध शासन की स्थापना किसने की?

प्रस्तावना

दक्षिण में फ्रांसीसियों को हराने के बाद क्लाइव ने सबसे धनी प्रांत बंगाल पर अधिकार करने के लिए कार्य किया। वैसे भी अंग्रेजों के अत्याचारों और नामुमकिन माँगों के कारण बंगाल का नवाब मीरकासिम भी दुःखी हो गया था। इससे पहले नवाब सिराजुद्दौला और मीरजाफर अंग्रेजों के व्यवहार से दुःखी हो चुके थे, परंतु क्लाइव तो ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल का स्वामी बनाना चाहता था। मीरकासिम अंग्रेजों के बंधन से मुक्त होना चाहता था।

वह एक योग्य, कुशल और शक्तिशाली शासक था और उसने विदेशी नियंत्रण से अपने आपको मुक्त करने का पक्का इरादा कर लिया था। वह सोचता था कि उसे गद्दी पर बैठाने के बदले में उसने ईस्ट इंडिया कंपनी और उसके कर्मचारियों को काफी धन दे दिया था। वह यह महसूस करता था कि अपनी स्वतंत्रता बनाये रखने के लिए पर्याप्त खजाना और कुशल सेना होनी चाहिए।

बंगाल में द्वैध शासन

इसीलिए उसने जनता में अव्यवस्थाओं को रोकने के लिए और राजस्व प्रशासन से भ्रष्टाचार समाप्त करने आय बढाने के लिए प्रयत्न किये। उसने अपनी सेना को यूरोपीय सेनाओं की भाँति आधुनिक व अनुशासित बनाने का भी प्रयत्न किया, परंतु अंग्रेजों को यह सब पसंद नहीं था।

ईस्ट इंडिया कंपनी और उसके कर्मचारियों को फरमान और दस्तक द्वारा जो व्यापारिक चुँगी का लाभ मिलता था उसके दोषों को दूर करने के लिए उसने एक कङा कदम उठाया और आंतरिक व्यापार पर सभी प्रकार की चुँगियाँ समाप्त कर दी, परंतु अंग्रेज व्यापारी भारतीय व्यापारियों को अपने समान स्तर पर देखने के लिए तैयार नहीं थे और उन्होंने माँग की की कि भारतीय व्यापारियों पर चुँगी कर फिर से लगा दिया जाए। यहीं से दोनों में युद्ध की शुरूआत हुई और मीरकासिम को कई युद्धों में परास्त करके अंत में बक्सर के युद्ध में पूरी तरह समाप्त कर दिया।

मीरजाफर को पुनः नवाब बनाना

सन 1763 में अंग्रेजों ने मीरजाफर को पुनः बंगाल का नवाब बना दिया और उससे कंपनी तथा उसके उच्च अधिकारियों के लिए काफी धन प्राप्त कर लिया। मीरजाफर की मृत्यु होने पर उसके द्वितीय पुत्र निजामुद्दौला को गद्दी पर बैठा दिया और 20 फरवरी, 1765 को उसके साथ एक नयी संधि की।

बंगाल में द्वैध शासन

20 फरवरी, 1765 को निजामुद्दौला के साथ की गयी संधि के अनुसार अन्य बातों के अलावा एक बात यह भी थी कि बंगाल का प्रशासन एक नायब सूबेदार के द्वारा चलाया जाएगा जिसकी नियुक्ति ईस्ट इंडिया कंपनी करेगी और उसकी बिना अनुमति के उसे हटाया नहीं जा सकेगा। इस प्रकार बंगाल की रक्षा का नियंत्रण भी अंग्रेजी सेना के अधिकार में आ गया। अब तो अपनी आंतरिक व बाह्य सुरक्षा के लिए नवाब अंग्रेजों के ऊपर निर्भर हो गया।

दीवान के रूप में कंपनी राजस्व इकट्ठा करती थी और नायब सूबेदार की नियुक्ति करके बंगाल के प्रशासन पर भी अपना अधिकार रखती थी। यह नायब सूबेदार एक ही व्यक्ति होता था जो नायब दीवान के रूप में तो राजस्व इकट्ठा करता था और नायब सूबेदार के रूप में बंगाल का प्रशासन चलाता था। भारतीय इतिहास में यही व्यवस्था द्वैध शासन के नाम से विख्यात है।

नवाब के हाथ में प्रशासन का उत्तरदायित्व केवल नाममात्र के लिए था क्योंकि प्रशासन में काम करने वालों की नियुक्ति अंग्रेजों द्वारा की जाती थी। नवाब केवल नाममात्र का शासक था उसको 53 लाख रुपया वार्षिक पेन्शन दी जाती थी। बंगाल में वसूल किये गये राजस्व में से प्रशासन का व्यय तथा नवाब की पेन्शन काटकर जो धन बचता था वह कंपनी के कोष में जमा कर दिया जाता था। इस प्रकार इस द्वैध शासन प्रबंध के द्वारा समस्त सत्ता अंग्रेजों के हाथ में आ गयी थी।

द्वैध शासन के लाभ

  • कंपनी के कार्य का हल्का होना

कंपनी ने प्रशासन का कार्य नवाब को दे दिया और स्वयं दीवानी का कार्य अपने हात में रखा। इससे कंपनी का कार्य भार हल्का हो गया।

  • भारतीय कर्मचारियों की नियुक्ति

अंग्रेज कंपनी को शासन संबंधित कार्यों का ज्ञान नहीं था, इसीलिए कंपनी ने मालगुजारी वसूल करने तथा न्याय-व्यवस्था के लिए भारतीय कर्मचारियों की नियुक्ति की। इसका परिणाम यह हुआ कि कंपनी को भारतीयों का सहयोग प्राप्त हो गया।

  • विदेशी जातियों की ईर्ष्या से मुक्ति

अंग्रेजी कंपनी इस द्वैध शासन के माध्यम से यह सिद्ध करना चाहती थी कि वे भारत में व्यापार करने के लिए ही आए थे, न कि साम्राज्य स्थापित करने। द्वैध शासन के फलस्वरूप वे अपने इस उद्देश्य की पूर्ति में सफल हुए।

  • अंग्रेजों के उद्देश्यों की पूर्ति

अंग्रेजी कंपनी इस द्वैध शासन के माध्यम से यह सिद्ध करना चाहती थी कि वे भारत में व्यापार करने के लिए ही आए थे, न कि साम्राज्य स्थापित करने। द्वैध शासन के फलस्वरूप वे अपने इस उद्देश्य की पूर्ति में सफल हुए।

  • आर्थिक स्थिति में सुधार

द्वैध शासन व्यवस्था से ईस्ट इंडिया कंपनी की आर्थिक स्थिति सुदृढ हो गयी। कंपनी को 1765 से 1772 ई. के बीच बंगाल और बिहार से लगभग 3 करोङ रुपये मालगुजारी के रूप में प्राप्त हुए।

  • अंग्रेजी साम्राज्य की स्थापना

द्वैध शासन व्यवस्था से भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की नींव मजबूत हो गयी। अब बंगाल का नवाब नाममात्र का शासक रह गया और शासन की समस्त सत्ता अंग्रेजों के हाथ में आ गयी।

द्वैध शासन के दोष

  • केन्द्रीय सत्ता का अभाव होना

द्वैध शासन व्यवस्था ने बंगाल में दो शक्तियों का प्रभुत्व स्थापित कर दिया, परंतु सुदृढ सत्ता का अभाव हो गया। कंपनी के कर्मचारी नवाब के आदेशों एवं कानूनों की जरा भी परवाह नहीं करते थे। फलस्वरूप नवाब की प्रशासन व्यवस्था बिल्कुल शिथिल पङ गयी और चारों ओर अराजकता फैल गई।

  • किसानों का आर्थिक शोषण होना

इस समय मालगुजारी वसूल करने में अधिक निर्दयता से काम लिया जाता था। जमींदारी नीलामी द्वारा खरीदी जाती थी जो सबसे अधिक नीलामी बोल देता था वही उसका अधिकारी बनता था। इन जमीदारों को अधिक मालगुजारी अदा करनी पङती थी। अतः वे किसानों से मनमाना लगान वसूल करते थे। फलस्वरूप किसानों की आर्थिक स्थिति बङी शोचनीय हो गयी।

इस दशा को देखकर कंपनी के एक अधिकारी रिचर्ड बीयर ने 24 मई, 1769 को डायरेक्टरों की गुप्त समिति को जो पत्र लिखा उससे अव्यवस्था का स्पष्टीकरण हो जाता है। उसने लिखा था कि जिस अंग्रेज के पास विवेक हो उसे यह सोचकर अवश्य दुःख होगा कि कंपनी की दीवानी मिलने के समय से इस देश के लोगों की दशा पहले से अत्यधिक शोचनीय हो गयी…। यह सुन्दर देश जो अधिक निरंकुश और स्वेच्छाचारी शासक के अन्तर्गत भी समृद्ध तथा खुशहाल था, अपने विनाश की ओर चलता रहा है।

डॉ.एम.एस.जैन के अनुसार जहाँ दीवानी प्राप्त किये जाने के पूर्व बंगाल-बिहार से 80 लाख रुपये का भू-राजस्व प्राप्त होता था, वहां 1766-67 में 2,24,67,500 रुपये भू-राजस्व से प्राप्त होते थे। स्पष्ट है कि इससे किसानों की कमर टूट गयी। उनकी स्थिति दयनीय होती चली गयी। हजारों किसानों ने खेती करना छोङ दिया। फलस्वरूप खेती के योग्य भूमि भी बेकार हो गयी और जंगल विकसित होने लगे।

  • कंपनी की शोषणकारी नीति

कंपनी को हर समय धन की आवश्यकता पङती थी। इसलिए वह कठोरपूर्वक जनता से धन वसूल करती थी। इसके अतिरिक्त धन की आवश्यकता की पूर्ति के लिए मालगुजारी बङी कठोरता तथा नृशंसता से वसूल की जाती थी। इससे बंगाल की जनता की दशा आधिक दयनीय हो गयी थी। गवर्नर वल्सर्ट ने ठीक ही लिखा है, … कंपनी के नौकर बर्बरता से ऐसे काण्ड, जिनकी समानता किसी भी देश के इतिहास में नहीं मिलती, करने के बाद धनराशि से लदे हुए इंग्लैंड लौटे हैं…।

  • भारतीय उद्योग-धंधों का विनाश होना

बंगाल में कंपनी का अधिकार हो जाने से वहाँ के व्यापार पर भी उसका एकाधिकार स्थापित हो गया। इससे भारतीय कारीगरों को अंग्रेजों के हाथ माल बेचने को बाध्य किया जाता था। कंपनी के अधिकारी ही देशी कारीगरों द्वारा बनाई गयी वस्तुओं का मूल्य निर्धारित करते थे। इस नीति ने भारतीय उद्योग-धंधों को नष्ट कर दिया।

  • कंपनी के लिए हितकारी सिद्ध होना

बंगाल में कंपनी का अधिकार हो जाने से वहाँ के व्यापार पर भी उसका एकाधिकार स्थापित हो गया। इससे भारतीय कारीगरों को अंग्रेजों के हाथ माल बेचने को बाध्य किया जाता था। कंपनी के अधिकारी ही देशी कारीगरों द्वारा बनाई गयी वस्तुओं का मूल्य निर्धारित करते थे। इस नीति ने भारतीय उद्योग-धंधों को नष्ट कर दिया।

  • कंपनी के लिए अहितकारी सिद्ध होना

बंगाल का द्वैध शासन स्वयं कंपनी के लिए अहितकारी सिद्ध हुआ। इससे कंपनी के कर्मचारियों के अत्याचारों में बङी वृद्धि हुई और भारत की जनता को अनेक कष्ट उठाने पङे। गवर्नर वल्सर्ट के शब्दों में, बंगाल की शासनकारिणी के रूप में तथा देश के संपूर्ण व्यापार की एकाधिकारिणी के रूप में कंपनी के विभिन्न हित प्रत्यक्ष रूप से विरोधी दिशाओं में कार्य कर रहे हैं और वे एक-दूसरे के लिए घातक सिद्ध हो रहे हैं।

अतः किसी अन्य नवीन व्यवस्था के बिना दशा अवश्य ही बिगङती जाएगी। यदि कंपनी को अपनी वर्तमान प्रणाली के अनुसार कार्य करने दिया गया तो वह अपना विनाश स्वयं कर बैठेगी…।

यद्यपि द्वैध शासन के अन्तर्गत कंपनी के कर्माचरी व्यक्तिगत व्यापार के द्वारा धनवान होते चले गये, परंतु स्वयं कंपनी की स्थिति दयनीय हो गयी। उसकी आय काफी घट गयी और वह दिवालिये की स्थिति में पहुँच गई।

  • अंग्रेजों में उत्तरदायित्व का अभाव

द्वैध शासन प्रणाली के अन्तर्गत वास्तविक शक्ति तो अंग्रेजी कंपनी के हाथों में थी जबकि प्रशासन का उत्तरदायित्व नवाब पर था। अतः अंग्रेज प्रशासन के उत्तरदायित्व से मुक्त हो गए। परिणामस्वरूप अंग्रेज प्रशासन को सुचारु रूप से चलाने में तनिक भी रुचि नहीं लेते थे, जिसके फलस्वरूप बंगाल में अशांति और अव्यवस्था फैलची चली गयी।

  • कर्मचारियों में लोक-कल्याण की भावना का अभाव

द्वैध शासन प्रणाली के फलस्वरूप कर्मचारी वर्ग में जनहित की भावना समाप्त हो गयी। लगान वसूल करने वाले भारतीय एजेण्ट जनता का शोषण करते थे। चूँकि नवाब को लगान में से कोई भाग नहीं मिलता था, इसलिए वह लगान इकट्ठा करने में रुचि नहीं लेता था। परिणामस्वरूप कर्मचारी बेईमान और भ्रष्ट हो गए।

  • प्रशासन में अव्यवस्था तथा भ्रष्टाचार

द्वैध शासन व्यवस्था के फलस्वरूप प्रशासन में अव्यवस्था तथा भ्रष्टाचार का बोलबाला स्थापित हो गया। चारों ओर लूटमार होने लगी और प्रजा को घोर कष्टों का सामना करना पङा। शासन की दुर्बलता के कारण संपूर्ण प्रान्त में अराजकता फैल गयी।

सन 1770 का अकाल

इन कठिनाइयों के अलावा बंगाल की जनता को उसी समय दैवी प्रकोपों का सामना करना पङा। 1770 ई. में बंगाल में भयंकर अकाल पङा तथा महामारी फैल गयी जिससे इस प्रदेश की एक-तिहाई जनसंख्या मौत का शिकार हुई। कलकत्ता, पटना और मुर्शिदाबाद की सङकें लाशों से पट गयी। स्थान-स्थान पर दिन-दहाङे जंगली जानवर लाशों को नोचते तथा खाते थे।

इस बारे में कंपनी के अधिकारी ने लिखा है कि दुर्दशा के जो दृश्य देखने में आये… वे इतने वीभत्स हैं कि उनका वर्णन करना असंभव है। वास्तविक बात यह है कि कई स्थानों पर जीवित प्राणों मृतक प्राणियों को खाकर जीवित रहे। उन्हीं दिनों कंपनी के कर्मचारियों ने इस स्थिति का लाभ उठाकर अन्न पर भी एकाधिकार कर लिया और ऊँचे दामों पर बेचना शुरू कर दिया। इससे प्रजा को अनेक कष्ट उठाने पङे। इस परिस्थिति में कंपनी ने अपनी पूरी मालगुजारी बङी निर्दयता से वसूल की। अतः इस बात में संदेह नहीं है कि अकाल द्वैध-शासन का ही परिणाम था।

द्वैध शासन का अंत

द्वैध-शासन के दुष्परिणामों को देखकर कंपनी के संचालकों ने गहरी चिन्ता व्यक्त की और सन 1772 ई. में वारेन हेस्टिंग्ज को बंगाल का गवर्नर बनाकर भारत भेजा गया। वारेन हेस्टिंग्ज ने द्वैध शासन को समाप्त कर दिया।

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