आधुनिक भारतइतिहास

सिराजुद्दौला का इतिहास में योगदान

सिराजुद्दौला

सिराजुद्दौला – सिराजुद्दौला का पूरा नाम मिर्जा मोहम्मद सिराजुदोल्लाह था।

सिराज के पिता बिहार के शासक थे और उसकी माँ नवाब अलीवर्दी खान की सबसे छोटी बेटी थी। इसके पिता का नाम जेउद्दीन अहमद खान था और माता का नाम अमीना बेगम था।

सिराजुद्दौला

10 अप्रैल, 1756 ई. को 82 वर्षीय अलीवर्दीखाँ की मृत्यु हो गयी। उसके कोई पुत्र न था। केवल तीन पुत्रियाँ थी, उन्हें उसने अपने तीन भतीजों को विवाह दिया और उन्हें पूर्णिया, ढाका तथा पटना के गवर्नर पदों पर नियुक्त किया। दुर्भाग्यवश, अलीवर्दीखाँ के तीनों दामादों (भतीजों) का देहांत उसके जीवनकाल में ही हो गया, जिससे सशस्त्र संघर्ष की संभावना स्पष्ट लगने लगी। अलीवर्दीखाँ भी इस स्थिति से परीचित था। अतः उसने अपने जीवनकाल में ही अपनी सबसे छोटी पुत्री के लङके सिराजुद्दौला को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया, परंतु उसके निर्णय से सिराजुद्दौला के विरोधियों को संतोष नहीं हुआ।

अलीवर्दीखाँ की सबसे बङी लङकी घसीटी बेगम ने सिराजुद्दौला के स्वर्गीय बङे भाई के अल्पवयस्क लङके मुराउद्दौला को गोद ले लिया था और उसे बंगाल का नवाब बनाने का स्वप्न देख रही थी।

घसीटी बेगम का दीवान राजवल्लभ काफी चतुर एवं योग्य राजनीतिज्ञ था और वह उसे पूरा-पूरा सहयोग दे रहा था। दूसरी लङकी का लङका शौकतजंग जो पूर्णिया का गवर्नर था, अपने आपको बंगाल की नवाबी का सही उत्तराधिकारी समझता था। अलीवर्दीखाँ का बहनोई और प्रधान सेनानायक मीरजाफर भी शासन तंत्र को अपने नियंत्रण में रखने का इच्छुक था। इस प्रकार, सिराजुद्दौला को अपने ही संबंधियों से सुलझना था।

अलीवर्दीखाँ की मृत्यु के बाद सिराजुद्दौला का राज्याभिषेक तो बिना किसी बाधा के संपन्न हो गया, परंतु इसके तत्काल बाद सिराजुद्दौला ने अपनी बङी मौसी घसीटी बेगम को छल-कपट से बंदी बना लिया। उसने शौकतजंग के विरुद्ध भी सैनिक कार्यवाही करके उसे अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश किया।

सिराजुद्दौला की मृत्यु

सिराज मुर्शिदाबाद की तरफ भाग गया जहां उसने अपने विशवास-पात्र लोगों को एकत्र किया और वहां से नाव में पटना चला गया, जहां एक रात के लिए उसने राजमहल में शरण ली।हालांकि मीर जाफर के आदमी ने उसे पहचान लिया था,और उसे पकडकर मीर जाफर के बेटे मीर मीरन को सौंप दिया जिसके आदेश पर मोहम्मद अली बेग ने 2 जुलाई 1757 को सिराज को मार दिया और उसे मुर्शिदाबाद के खुश्बाग में दफना दिया।

सिराज भले प्लासी का युद्ध हार गया था लेकिन अंग्रेजों के विरुद्ध उसकी कोशिश ने उसे स्वतंत्रता सेनानी बना दिया। आज भी वेस्ट बंगाल और बांग्लादेश में उसका सम्मान किया जाता है, और बहुत से शैक्षिक संस्थाओं के नाम उसके नाम पर हैं।1967 में उसकी वीरता के सम्मान में एक बायोपिक नवाब सिराजुदोल्लाह भी रिलीज की गयी।

अंग्रेजों के साथ संघर्ष के कारण

अंग्रेज इतिहासकारों के अनुसार अंग्रेज और सिराजुद्दौला के मध्य संघर्ष के मुख्य कारण सिराजुद्दौला की विलासिता, क्रूरता और शासन में अत्याचार थे। उन विद्वानों का यह भी मत है कि चूँकि सिराजुद्दौला को नवाबी से हटाने के लिए कुचक्र एवं षङयंत्र चल रहे थे, अँग्रेजों ने भी अपनी सुरक्षा के निमित सिराजुद्दौला के विरोधियों को सहयोग प्रदान कर दिया क्योंकि नवाब सिराजुद्दौला शुरू से ही अँग्रेजों से घृणा करता था।

परंतु अब अँग्रेज इतिहासकारों के उपर्युक्त दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं किया जाता है। आज के विद्वानों की मान्यता है कि सिराजुद्दौला के शासन तथा उसके समकालीन अन्य भारतीय शासकों के शासन में कोई अंतर नहीं था। दोनों के मध्य संघर्ष के कारण कुछ दूसरे ही थे, जो इस प्रकार थे-

राजनीतिक कारण

सिराजुद्दौला ने अपनी सत्ता को सुदृढ बनाने का प्रयत्न किया, जबकि उसके विरोधी – घसीटी बेगम और दीवान राजवल्लभ, शौकतजंग तथा मीरजाफर आदि उसको नवाबी से हटाने के लिए षङयंत्र रच रहे थे। सिराजुद्दौला को ऐसा अनुभव हुआ कि अँग्रेज व्यापारी उसकी सत्ता की अवज्ञा ही नहीं कर रहे हैं, अपितु उसके विरोधियों के साथ साँठ-गाँठ करके उन्हें सहयोग एवं प्रोत्साहन भी दे रहे हैं। अतः सिराजुद्दौला ने अँग्रेजों के प्रभाव को कम करने का प्रयास किया। दूसरी तरफ अँग्रेजों का विश्वास थी कि भावी संघर्ष में नवाब हार जायेगा। इसलिए उन्होंने विरोधियों का साथ दिया, ताकि भविष्य में उन्हें अधिक व्यापारिक तथा राजनीतिक सुविधाएँ उपलब्ध हो सकें।

अंग्रेजों के प्रति संदेह

अँग्रेजों का मानना है कि नवाब सिराजुद्दौला आरंभ से ही अँग्रेजों को संदेह की दृष्टि से देखा करता था। परंतु तत्कालीन साक्ष्यों से पता चलता है कि आरंभ में सिराजुद्दौला अँग्रेजों के साथ सहानुभूति रखता था। 1752 ई. में जब कंपनी के अध्यक्ष हुगली आये थे, तब सिराजुद्दौला ने आदरपूर्वक उनका सम्मान किया था।

यदि हॉलवेल का विश्वास किया जाए तो अलीवर्दीखाँ ने मरने से पूर्व सिराजुद्दौला को अँग्रेजों पर कङी नजर रखने की चेतावनी दी थी, क्योंकि उसे आशंका थी कि कर्नाटक का नाटक बंगाल में भी दोहराया जा सकता है। अतः नवाब बनने के बाद सिराजुद्दौला के रुख में अंतर आ गया और वह अँग्रेजों को संदेह की दृष्टि से देखने लगा तथा उनकी कार्यवाहियों को नियंत्रित करने का प्रयत्न किया, जिससे अँग्रेज उसके शत्रु बन गये।

नवाब के प्रति अंग्रेजों की अशिष्टता

भारत में यह परंपरा रही है कि जब कोई व्यक्ति नया शासक बनता है, तब उसके राज्याभिषेक के अवसर पर उसके प्रति सम्मान प्रदर्शित करने की दृष्टि से प्रतिष्ठित नागरिक, अधिकारी एवं जमीदार लोग उसे मूल्यवान भेंटें प्रदान करते हैं। सिराजुद्दौला के राज्याभिषेक के अवसर पर अँग्रेज अधिकारी जान-बूझकर अनुपस्थित रहे और उन्होंने सिराजुद्दौला को भेंट भी नहीं दी। उनकी यह कार्यवाही एक प्रकार से नवाब के प्रति अशिष्टता थी।

इस घटना के कुछ दिनों बाद ही जब सिराजुद्दौला ने अँग्रेजों की कासिम बाजार की फैक्टरी को देखने की इच्छा व्यक्त की तो अँग्रेजों ने उसे फैक्टरी दिखाने से ही मना कर दिया। जब नवाब ने उनसे उनके व्यापार के बारे में जानकारी चाही तो अँग्रेजों ने जानकारी देना उचित न समझा। उनके इस प्रकार के अशिष्ट व्यवहार से सिराजुद्दौला के सम्मान को ठेस पहुँची।

व्यापारिक झगङा

मुगल सम्राट फर्रुखसियर ने 1717 ई. में एक शाही फरमान द्वारा उन्हें बंगाल में बिना चुँगी दिये व्यापार करने की सुविधा प्रदान की थी। इससे एक तरफ तो भारतीय व्यापारियों के हितों को हानि पहुँच रही थी और दूसरी तरफ नवाब के राजकोष को भी हानि हो रही थी। बाद में अँग्रेजों ने अपनी इस सुविधा का दुरुपयोग करना शुरू कर दिया है। वे भारतीय व्यापारियों से कुछ ले देकर उनके माल को भी अपना बताकर चुँगी बचा लेते थे। बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी का पत्र जारी करता था। इसे दस्तक कहा जाता है। इस प्रकार दस्तक वाले सामान पर चुँगी-कर वसूल नहीं किया जाता था।

इस समय कंपनी के अधिकांश कर्मचारी भी निजी व्यापार में लग चुके थे और वे लोग अपने व्यापार के सामान को भी कंपनी का बताकर चुँगी बचा लेते थे। इससे बंगाल की सरकार को काफी हानि उठानी पङ रही थी। नवाब सिराजुद्दौला कंपनी के साथ कोई नया समझौता करना चाहता था, जिससे कि मौजूदा अव्यवस्था को दूर किया जा सके। अँग्रेज अपने इस विशेषाधिकार को छोङने के लिए तैयार न थे। अतः दोनों पक्षों में तनाव का बढना स्वाभाविक ही था। वस्तुतः दोनों के मध्य संघर्ष का मूल कारण यही था।

नवाब के शत्रुओं को संरक्षण देना

अँग्रेजों की कलकत्ता बस्ती नवाब के शत्रुओं तथा राजद्रोहियों के लिए आश्रयस्थल बनी हुई थी। जब नवाब ने घसीटी बेगम को बंदी बना लिया तो दीवान राजवल्लभ ने अपनी संपूर्ण संपत्ति को भी छिपाने का प्रयास किया। इस पर नवाब ने उसे दीवान पद से हटा दिया और कलकत्ता के अँग्रेज अधिकारियों से कृष्णवल्लभ को लौटाने की माँग की जिसे अँग्रेजों ने ठुकरा दिया। इससे सिराजुद्दौला को पक्का विश्वास हो गया कि अँग्रेज उसके शत्रुओं से मिले हुए हैं।

कलकत्ता की किलेबंदी

सिराजुद्दौला के नवाब बनते ही यूरोप में इंग्लैण्ड और फ्रांस में युद्ध छिङने की संभावना बढ गयी थी। अतः भारत में स्थित दोनों कंपनियों में भी पुनः सशस्त्र संघर्ष की आशंका उत्पन्न हो गयी। परिणामस्वरूप दोनों ने बंगाल में अपने-अपने स्थानों की किलेबंदी करना और सैनिकों की संख्या बढाना शुरू कर दिया। नवाब ने दोनों को आदेश दिया कि वे अपने स्थानों की किलेबंदी के काम को तुरंत बंद कर दें। फ्रांसीसियों ने तो नवाब के आदेश को मान लिया। परंतु अँग्रेजों ने आदेश की परवाह नहीं की। वे उस समय कलकत्ता के चारों तरफ एक खाई खुदवा रहे थे। जब नवाब के अधिकारियों ने उन्हें खाई को भर देने के लिए कहा तो एक अहंकारी अँग्रेज अधिकारी ने उन्हें जवाब दिया कि यह खाई अवश्य भर दी जायगी, परंतु मुसलमानों के सिरों से। जब सिराजुद्दौला को उनकी उद्दंडता की सूचना दी गयी तो उसने अँग्रेजों को सबक सिखाने का फैसला कर लिया।

इस प्रकार दोनों पक्षों के मध्य झगङे के कारण एकत्र होते गये। फिर भी नवाब ने तत्काल उनके विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करना उचित नहीं समझा और अपने अधिकारियों को उनसे बातचीत करने भेजा। परंतु अँग्रेज अधिकारियों ने नवाब के शांति-प्रस्ताव को ठुकरा दिया। ऐसी स्थिति में सिराजुद्दौला के लिए अपने सम्मान की रक्षा के लिए सैनिक कार्यवाही के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं बचा। इतिहासकार हिल ने भी यह स्वीकार किया है कि जिन कारणों पर नवाब ने अँग्रेजों पर आक्रमण किया उनमें तर्क अवश्य था। अकेले सिराजुद्दौला को इसके लिए उत्तरदायी ठहराना किसी भी दृष्टि से न्यायोचित नहीं होगा।

सैनिक कार्यवाही

4 जून, 1756 ई. को सिराजुद्दौला ने मुर्शिदाबाद के समीप स्थित अँग्रेजों की कासिम बाजार फैक्ट्री पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया। फैक्टरी के अँग्रेज अधिकारी वाट्स ने आत्मसमर्पण कर दिया। इसके बाद 5 जून को नवाब ने लगभग 50,000 सैनिकों के साथ कलकत्ता पर धावा बोल दिया। उस समय कलकत्ता में अँग्रेजों के पास केवल 500 सैनिक थे, फिर भी कलकत्ता के गवर्नर ड्रेक ने लङने का निश्चय किया। 15 जून को नवाब की सेना ने उसके दुर्ग फोर्ट विलियम को घेर लिया। पराजय और मृत्यु को सामने देखकर गवर्नर ड्रेक और बहुत से अँग्रेज अधिकारी अपने परिवारों सहित फोर्ट विलियम से भागकर हुगली नदी में जहाज पर सवार होकर फुल्टा टापू चले गये।

किले की रक्षा का भार हॉलवेल नामक व्यक्ति तथा थोङे से सैनिकों को सौंपा गया। दो दिन के बाद हॉलवेल को भी आत्म-समर्पण करना पङा और कलकत्ता पर नवाब का अधिकार हो गया। इस प्रसंग में ध्यान देने योग्य बात यह है कि बाद में वाट्स ने यह स्वीकार किया था कि नवाब के शांति-प्रस्ताव पर्याप्त थे और इन्हें ठुकराकर तथा कासिम बाजार की घटना से कोई सबक न लेकर गवर्नर ड्रेक ने स्वयं खतरा मोल ले लिया था।

Related Articles

error: Content is protected !!