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भारतीय पुनर्जागरण के कारण

भारतीय पुनर्जागरण के कारण

भारतीय पुनर्जागरण के कारण (Causes of Indian Renaissance) –

भारतीय पुनर्जागरण के कारण (bharatiy punarjagaran ke karan) निम्नलिखित थे-

पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव

भारतीय पुनर्जागरण के कारण

भारत का सैकङों वर्षों से विदेशों से संपर्क नहीं रहा था, जिससे उसका विकास अवरुद्ध हो गया था। जब यहाँ अंग्रेजों का राज्य स्थापित हो गया, तो भारत अन्य देशों के संपर्क में आ गया। जब भारत इस प्रकार विदेशी संपर्क में आया तो भारतीयों के राष्ट्रीय, धार्मिक और सामाजिक जीवन में नवचेतना का संचार हुआ और एक आंदोलन अनिवार्य हो गया।

पाश्चात्य शिक्षा का भारतीयों पर बहुत प्रभाव पङा। अंग्रेजी साहित्य पढ कर भारतीयों को स्वतंत्रता, समानता और लोकतंत्र का ज्ञान हुआ, जिससे उन्हें अपनी धार्मिक और सामाजिक दुर्दशा का बोध हुआ। नवीन शिक्षा ने देशभक्त भारतीयों का ध्यान अपने देश के लुप्त होते गौरव की ओर आकृष्ट किया।

साथ ही भारतीय पुनर्जागरण ने भारत की भौतिक और आर्थिक उन्नति में बहुत सहायता पहुँचायी, क्योंकि इसमें औद्योगिक और शिल्प संबंधी शिक्षा, कृषि तथा वन संबंधी शिक्षा की ओर चिकित्सा बहुत सहायक सिद्ध हुई।

भारतीय पुनर्जागरण से अब विश्वास का स्थान तर्क ने ले लिया था तथा अंधविश्वास का स्थान विज्ञान ने ले लिया। विचारों की शिथिलता प्रगति में बदल गयी तथा समाज की कुरीतियों को दूर करने के लिए अनेक सुधारवादी आंदोलन चल पङे।

ईसाई पादरियों का धर्म प्रचार

अंग्रेजी राज्य की स्थापना के साथ बहुत से विदेशी पादरी और धर्म प्रचारक भी भारत आये थे। इन लोगों ने ईसाई धर्म का प्रचार करना शुरू किया, जिसके फलस्वरूप भारत में ईसाई धर्म फैलना लगा। यह देखकर कट्टर हिन्दुओं की आँखें खुल गयी।

उन्होंने देखा कि ईसाई धर्म के प्रचारक भारत की धार्मिक बुराइयों का अनुचित लाभ उठा रहे हैं। अतः अब उनके सामने जीवन-मरण का प्रश्न उपस्थित हो गया। उन्होंने अनुभव किया कि यदि हिन्दू धर्म को भारत में ही जीवित रहना है, तो उसमें सुधार करना होगा।

इस प्रकार ईसाई धर्म के प्रचार कार्य से भारतीय सुधार आंदोलन को अप्रत्यक्ष रूप से प्रेरणा मिली। भारतीयों ने अपने धर्म के दोषों को दूर करने के लिए प्रयत्न शुरू कर दिए।

सुधारकों का प्रादुर्भाव

19 वीं शताब्दी में भारत में अनेक सुधारक हुए। इसमें राजा राममोहन राय, केशव चंद्र सेन, देवेन्द्र नाथ ठाकुर, दयानंद सरस्वती, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इन महान देशभक्तों और महान सुधारकों ने प्राचीन विचारों की महत्ता का संदेश जनता को देकर उसे जागृत किया। उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त बुराइयों की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया और अपने देशभक्तियों को इनसे मुक्त होने का संदेश दिया।

भारतीय समाचार पत्रों का प्रभाव

भारतीय पुनर्जागरण में भारतीय समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, साहित्य आदि ने बहुत सहयोग दिया। ऐसे समाचार पत्र, पत्रिकायें, पुस्तकें आदि छपने लगी, जिनमें न केवल ब्रिटिश शासन की आलोचना रहती थी, बल्कि भारतीय राष्ट्रवादियों के विचार भी रहते थे। भारतीयों के प्रति अंग्रेजों के दुर्व्यवहार के संबंध में अब जनता को व्यापक रूप में जानकारी मिलने लगी, जिससे उनमें अपने देश के प्रति प्रेम की भावना विकसित हुई और उन्होंने धार्मिक और सामाजिक सुधारकों को सहयोग देना प्रारंभ कर दिया।

इन समाचार-पत्रों में सामाजिक बुराइयों और कुप्रथाओं पर भी प्रकाश डाला जाता था। इस प्रकार इन समाचार-पत्रों ने सामाजिक और धार्मिक कुरीतियों पर चर्चा करके भारतीय जनमत को जागृत किया।

एशियाटिक सोसायटी के कार्य

सन 1784 में कलकत्ता में एशियाटिक सोसायटी की स्थापना हुई थी। इसने भारतीय पुनर्जागरण में बहुत सहायता पहुँचायी। इस सोसायटी के तत्वाधान में प्राचीन भारतीय ग्रंथों तथा यूरोपीय साहित्य का भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ। विलियम जोन्स, मैक्समूलर, मोनियर, विल्सन जैसे अनेक विदेशी विद्वानों ने प्राचीन ग्रंथों का गहरा अध्ययन किया, अंग्रेजी में उनका अनुवाद किया और यह बताया कि ये ग्रंथ संसार की सभ्यता की अमूल्य निधियाँ हैं।

पश्चिम के विद्वानों ने भारत की अनेक कलाकृतियों और सभ्यता के केन्द्रों की खोज की। तुलनात्मक अध्ययन के फलस्वरूप यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान से भारतीय परिचित हुए तथा उन्हें अपने प्राचीन गौरव का पता चला।

कुछ यूरोपीय विद्वानों ने भारतीय सभ्यता से प्रभावित होकर इसकी बहुत प्रशंसा की, जिससे भारतीयों को आत्मबल मिला। अब वे अपने पतन के कारण समझने लगे तथा उन्हें अनुभव हुआ कि वे अपने मूल धर्म और सामाजिक रीतियों से बहुत दूर चले गए हैं और जब तक इन बुराइयों को दूर नहीं करेंगे, तब तक देश उन्नति नहीं कर सकेगा।

पश्चिमी सभ्यता का प्रसार

भारतीय पुनर्जागरण का एक कारण देश में पश्चिमी सभ्यता का प्रसार भी था। भारतीय सभ्यता पाश्चात्य सभ्यता के संपर्क में ऐसे समय में आई, जबकि बुद्धिवाद और व्यक्तिवाद यूरोप की विचारधारा पर छाये हुए थे। ऐसी स्थिति में पहले प्रबल पाश्चात्य सभ्यता के सम्मुख भारतीय सभ्यता झुकती हुई प्रतीत हुई, भारत के अनेक व्यक्तियों ने सभ्यता को अपना आदर्श बना लिया।

पश्चिमी विचार, वेश-भूषा, खान-पान, रीति-रिवाज, समाज, धर्म आदि से वे इतने प्रभावित हो गए कि वे उसकी नकल करने में अपना गौरव मानने लगे।

भारतीय सभ्यता, धर्म और समाज में उनका विश्वास न रहा और प्रतीत होने लगा कि संपूर्ण देश पश्चिमी सभ्यता की अंधानुकरण करने लगेगा। ऐसी स्थिति में भारतीय सुधारकों ने पश्चिमी सभ्यता की ओर आँख मूंद कर भागने का विरोध किया और अपने धर्म और सभ्यता में विश्वास जागृत करने का प्रयत्न किया। इसके अलावा पश्चिम की वैज्ञानिक प्रगति से भारतवासी काफी प्रभावित हुए।

ब्राह्य देशों से भारत का संपर्क

अनेक भारतीय लोगों को इंग्लैण्ड, फ्रांस, अमेरिका आदि देशों की यात्रा करने का अवसर मिला। इन विदेशी यात्राओं के फलस्वरूप उन्हें नवीन विचार ग्रहण करने को मिले। वे स्वतंत्रता, समानता, राष्ट्रीयता आदि विचारों से काफी प्रभावित हुए। अतः भारतीयों को भी सामाजिक एवं धार्मिक कुरीतियों को दूर करने और एक नवीन समाज की रचना करने की प्रेरणा मिली।

ब्रिटिश शासन प्रणाली

ब्रिटिश शासन प्रणाली के अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति को अपनी योग्यता दिखाने का पूरा अवसर प्रदान किया जाता था। उन्हें अपने पदों तक पहुँचने का अवसर भी प्राप्त था।

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