आधुनिक भारतइतिहासपुनर्जागरण

पुनर्जागरण(renaissance) क्या था

पुनर्जागरण

19वी.शताब्दी के धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आंदोलन का आधुनिक भारतीय इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। 19वी.शता. के प्रारंभ तक भारतीय सभ्यता,पश्चिमी सभ्यता से आतंकित हो गयी थी। भारतीय अंग्रेजी भाषा, वेश-भूषा, साहित्य और ज्ञान को श्रेष्ठ मानने लगे थे। शिक्षित भारतीय अपनी सभ्यता और संस्कृति में विश्वास खोते जा रहे थे। ब्रिटिश व्यापारियों के साथ ईसाई पादरी एवं धर्म-प्रचारक भी भारत आये थे। भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना के बाद उनकी गतिविधियाँ जोर पकङती गई। वे हिन्दू और मुस्लिम धर्मों पर प्रबल आक्षेप कर रहे थे। इन ईसाई धर्म प्रचारकों ने दो ऐसे कार्य किये जिससे भारतीयों में एक नई चेतना उत्पन्न हुई। प्रथम, उनके प्रयत्नों से देश में अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार हुआ जिससे पाश्चात्य ज्ञान एवं विचार भारतीयों तक पहुँचने लगे और उनमें चिंतन की एक नई धारा फूटने लगी। दूसरे, ईसाई धर्म प्रचारकों ने भारतीयों को ईसाई बनाना शुरू किया। अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार के कारण अपनी मूल संस्कृति भूल रहे थे। भारतीय समाज में इतनी कुरीतियाँ उत्पन्न हुई कि लोग उन्हें अपनाने में लज्जा अनुभव करने लगे और अनेक हिन्दू नवयुवक ईसाई धर्म को अपनाने लगे। मधुसूदन दत्त,नीलकंठ शास्री तथा रमाबाई जैसे व्यक्ति ईसाई बन गये। इसके विरुद्ध हिन्दुओं की तीखी प्रतिक्रिया हुई। भारतीय सामाजिक एवं धार्मिक जगत तिलमिला उठा। और कुछ हिन्दू अपने धर्म की सुरक्षा के प्रयत्न में जुट गये। वे जानते थे कि ईसाई धर्म प्रचारक हिन्दुओं की किन कमजोरियों का फायदा उठा रहे हैं। जात-पांत, अंधविश्वास और निरर्थक आङंबरों के परिणामस्वरूप उस समय स्वयं हिन्दू धर्म एवं समाज निष्क्रिय और शक्तिहीन हो गया था तथा हिन्दू समाज का निचला तबका सामाजिक सम्मान और आर्थिक सुविधाओं के लिए ईसाई धर्म को स्वीकार करने लगा था। अतः हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग में नवीन चेतना का प्रादुर्भाव हुआ। इस नवीन चेतना ने भारतीय समाज, धर्म, साहित्य तथा राजनीतिक जीवन को गंभीरता से प्रभावित किया। इस नवीन चेतना ने भारतीय धर्म एवं समाज सुधार का मार्ग प्रशस्त किया। भारतीय सुधारकों को ईसाई मिशनरियों की धर्म-सुधार प्रणाली से भी प्रेरणा मिली। यही कारण था कि 19वी.शता. के धर्म एवं समाज सुधार आंदोलन का कार्य ईसाई मिशनरियों की तरह ही संगठन के माध्यम से शुरू हुआ था।

पुनर्जागरण का अर्थ

औरंगजेब की मृत्यु के बाद भारत का प्रशासनिक ढांचा चरमराने लगा। अंग्रेजों ने इसे कमजोर और अंततः ध्वस्त कर दिया। जैसे-जैसे देश पर ब्रिटिश प्रभत्व बढा, शोषण की गति तीव्र होती गई और देश का आर्थिक आधार हिलने लगा। इसका भारत के सामाजिक जीवन पर घातक प्रभाव पङा। नये शासन में लोक कल्याणकारी तत्वों का अभाव था, अतः देश की स्थिति सुधारने के लिए कोई प्रयत्न नहीं हुआ। ऐसी स्थिति में आर्थिक विपन्नता के साथ सामाजिक कुरीतियाँ, भेदभाव एवं धार्मिक अन्ध -विश्वास बढते गये। परिणाम यह हुआ कि 18वी.शता. के समाप्त होते-2 भारत दरिद्रता और पिछङेपन की अंतिम सीमा तक पहुँच चुका था। लेकिन ऐसी विषम परिस्थितियों में भी कुछ ऐसी ऐतिहासिक शक्तियाँ सक्रिय थी, जिनसे भविष्य में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आने वाले थे। ये शक्तियाँ दो प्रकार की थी। पहली शक्ति पश्चिम की आधुनिक संस्कृति के भारत पर प्रभाव से अवतरित हुई। दूसरी शक्ति का जन्म इस संपर्क के खिलाफ भारतीय जनता की प्रतिक्रिया से हुआ। काफी अंशों तक इन दोनों शक्तियों के सम्मिलित प्रभाव से 19वी. शता. के पूर्वार्द्ध में भारत को सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन में एक ऐसे आंदोलन का श्रीगणेश हुआ और संपूर्ण भारत में एक ऐसी जागृति आ गई, जिसे कुछ विद्वानों ने भारतीय पुनर्जागरण के नाम से पुकारा है। वस्तुतः भारतीय समाज तथा धर्म के पक्षों में परिवर्तन हेतु जो जनचेतना का प्रादुर्भाव हुआ, वह भारतीय पुनर्जागरण कहलाता है। किन्तु इस जागरण की प्रक्रिया का अपनी ही संस्कृति और परंपराओं के साथ जुङा होना आवश्यक है, क्योंकि यदि संस्कृति और परंपराओं के साथ पूर्णतः संबंध विच्छेद कर लिया जाय, तो फिर इस कार्य में जनमानस का समर्थन प्राप्त नहीं होता, जिससे प्रगति तथा विकास गति नहीं पकङ पाता। इसलिए अपने प्राचीन इतिहास, परंपराओं और संस्कृति से जुङे रहते हुए, लेकिन साथ ही नवीन ज्ञान,सभ्यता तथा संस्कृति के प्रकाश में उन्हें नई दिशा देते हुए 19वी. शता. में धार्मिक,सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में आगे बढने का जो सफल प्रयास किया गया, वही भारतीय पुनर्जागरण है।

18वी. शताब्दी में भारत में जो सामाजिक एवं सांस्कृतिक अवनति दिखाई देती है, उसका मूल कारण धार्मिक एवं सामाजिक जीवन की बुराइयाँ तथा विकृतियाँ हैं, राजनीतिक पराधीनता है। अतः पुनर्जागरण का यह कार्य धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र से प्रारंभ हुआ और कालांतर में इसने राजनीतिक जागरण को जन्म दिया। इसलिए भारतीय पुनर्जागरण को धार्मिक एवं सामाजिक पुनर्जागरण का नाम दिया है। डॉ. जकरिया ने ठीक ही लिखा है कि, भारत की पुनर्जागृति मुख्यतया आध्यात्मिक थी तथा एक राष्ट्रीय आंदोलन का रूप धारण करने से पूर्व इसने अनेक सामाजिक और धार्मिक आंदोलनों का सूत्रपात किया। डॉ. राधारीसिंह दिनकर ने धार्मिक एवं सामाजिक पुनर्जागरण में दो प्रमुख लक्षण बताये हैं, और वे हैं- अतीत के प्रति गौरव की भावना और प्रवृत्तिवाद। पुनर्जागरण का प्रथम लक्षण भारत में अपने अतीत के प्रति विश्वास उत्पन्न होना था। प्रबुद्ध भारतीयों ने यह महसूस किया कि विज्ञान के अतिरिक्त जीवन के अन्य क्षेत्रों में उन्हें पश्चिम से कुछ नहीं सीखना है। और उनकी अपनी अतीत की पूँजी निश्चित रूप से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण और गौरवपूर्ण है। प्रबुद्ध भारतीयों द्वारा इस नवीन स्थिति को ग्रहण करने में वेदांत ने महत्त्वपूर्ण और गौरवपूर्ण है। प्रबुद्ध भारतीयों द्वारा इस नवीवन स्थिति को ग्रहण करने में वेदांत ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। पुनर्जागरण का दूसरा लक्षण निवृत्ति का त्याग था। उपनिषदों एवं महात्मा बुद्ध के समय से निवृत्ति का जहर भारतीयों की नसों में उतारा जा रहा था। किन्तु अब प्रबुद्ध भारतीय यह अनुभव करने लगे कि यूरोप की श्रेष्ठता का कारण यह नहीं है कि उसके पास युद्ध के अनेक उन्नत अस्र-शस्र हैं, बल्कि उसकी श्रेष्ठता का कारण जीवन के विषय में उसका दृष्टिकोण प्रवृत्तिमय है। अब भारतीयों को यह सोचने के लिए बाध्य होना पङा कि निवृत्ति जीवन का सच्चा मार्ग नहीं है। इसके द्वारा भारतीयों को अंध-विश्वासों से मुक्ति, धर्म एवं कर्तव्य के सच्चे स्वरूप का ज्ञान,दरिद्र व्यक्तियों के प्रति सेवा की भावना, नारी उत्थान तथा एक उन्नत एवं विवेकशील समाज की स्थापना का प्रशिक्षण मिला। सभी भारतीय धर्मों ने अपने प्राचीन संकीर्ण व कट्टर आवरण को उतार कर आधुनिक स्वरूप ग्रहण कर लिया।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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