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भारतीय पुनर्जागरण : अर्थ एवं स्वरूप

भारतीय पुनर्जागरण

भारतीय पुनर्जागरण (bharatiy punarjagaranharth evam swarup)-

भारतीय पुनर्जागरण – प्रस्तावना – 1857 के विद्रोह के दमन के बाद भारत में एक प्रकार की शांत छा गई और स्वतंत्रता प्रेमी भारतीय निराश हो गये। इस विद्रोह ने भारतीय राजनीति में कुछ ऐसी शक्तियों का प्रादुर्भाव अनिवार्य कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप एक सशक्त राष्ट्रीय आंदोलन का जन्म हुआ, लेकिन राजनीतिक जागृति से पूर्व हमारे देश में एक सामाजिक और धार्मिक पुनर्जागरण हुआ, जिसने हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का पृष्ठाधार तैयार किया।

भारतीय पुनर्जागरण

19 वीं शताब्दी के प्रारंभ में पश्चिमी ज्ञान के आलोक में जब भारतीयों की आँखें खुली तब उन्हें अपनी धार्मिक और सामाजिक कुरीतियों का ज्ञान हुआ।

19 वीं शताब्दी का भारतीय पुनर्जागरण भारत के इतिहास में एक महानतम घटना है। भारतीय पुनर्जागरण भारतीय सांस्कृतिक जीवन की नवीन यौवनावस्था है, जिसने प्राचीन और मूल सिद्धांतों को तोङे बिना ही नवीन वेशभूषा ग्रहण कर ली। वास्तव में आधुनिक भारत का विकास 19 वीं शताब्दी में होने वाले भारतीय पुनर्जागरण का ही अंग है।

भारतीय पुनर्जागरण प्रारंभ में एक बौद्धिक पुनर्जागरण था, जिसने हमारे साहित्य, शिक्षा और विचारधारा को प्रभावित किया। अपने दूसरे चरण में यह पुनर्जागरण नैतिक शक्ति हो गया जिसने हमारे धर्म और समाज को सुधारा। तीसरे चरण में इसने प्रारंभ से ही भारत का आर्थिक दृष्टि से आधुनिकीकरण करने का प्रयास किया और अंत में राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त की।

पुनर्जागरण की पृष्ठभूमि

पाश्चात्य सभ्यता के संपर्क में आने पर भारत में एक नवीन चेतना और भावना का विकास हुआ, जिसने भारत के समस्त जीवन, शिक्षा, साहित्य और कला को प्रभावित किया। अंग्रेज विद्वानों ने भारतीय सभ्यता और संस्कृति के संबंध में खोंजें की। धार्मिक और सामाजिक आंदोलन ने आत्मसम्मान और देशभक्ति की भावनाएँ विकसित की, जिसका प्रकट रूप राजनीतिक आंदोलन में दिखाई देता है। हिन्दू धर्म में इतनी कुरीतियाँ उत्पन्न हो गयी थी कि लोग उसे अपनाने में लज्जा अनुभव करने लगे थे। यही हाल मुस्लिम समाज का भी था।

19 वीं शताब्दी के प्रारंभ तक भारतीय अंग्रेजी भाषा, वेश-भूषा, साहित्य और ज्ञान को सर्वश्रेष्ठ मानने लगे थे। शिक्षित भारतीय अपनी सभ्यता और संस्कृति को हेय दृष्टि से देखने लगे थे। 19 वीं शताब्दी में नवीन चेतना, भावना और उनसे प्रभावित विभिन्न प्रयत्नों को हम भारतीय पुनरुद्धार आंदोलन के नाम से पुकारते हैं। यह भारत की नवीन जागृति थी, जिसने पश्चिमी सभ्यता से तर्क, समानता और स्वतंत्रता की भावना प्राप्त करके भारत के प्राचीन गौरव की स्थापना करने का प्रयत्न किया और साथ ही साथ प्राचीन भारतीय सभ्यता के दोषों को दूर करते हुए उसे प्रगति के लिए नवीन आधार और जीवन प्रदान किया।

भारत की सभ्यता और संस्कृति श्रेष्ठ है, उसमें प्रगति करने की क्षमता है और वह पश्चिमी सभ्यता के मुकाबले में खङी हो सकती है, यही पुनर्जागरण आंदोलन का आधार था। जीवन के सभी क्षेत्रों में परिवर्तन और सुधार उसका व्यावहारिक स्वरूप था।

डॉ. जगन्नाथ प्रसाद मिश्र का कथन है कि भारतीय पुनर्जागरण मूल रूप से एक बौद्धिक कोलाहल था। इस बौद्धिक कोलाहल ने ही एक नई सामाजिक नवजागृति उत्पन्न की। एक नये दृष्टिकोण से सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं का विवेचन करके यह विचार किया गया कि किन परंपराओं को स्वीकार किया जाय और किन्हें नहीं। नवीन परिवर्तनों का आधार तैयार हो गया। परिवर्तन के प्रवाह को सभी लोग स्वीकार करने लगे थे।

भारतीय पुनर्जागरण के कारण

  • पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव
  • ईसाई पादरियों का धर्म प्रचार
  • सुधारकों का प्रादुर्भाव
  • भारतीय समाचार पत्रों का प्रभाव
  • इशियाटिक सोसायटी के कार्य
  • पश्चिमी सभ्यता का प्रसार
  • बाह्य देशों से भारत का संपर्क
  • ब्रिटिश शासन प्रणाली

भारतीय पुनर्जागरण का स्वरूप

19 वीं शताब्दी के धार्मिक और सामाजिक सुधारों की प्रवृत्तियों के स्वरूप तथा उनके प्रभावों के संबंध में इतिहासकारों में मतभेद हैं।

वी. सी. जोशी ने अपने लेख राम मोहन राय एण्ड दि प्रॉसिस ऑफ मॉडर्नाइजेशन इन इंडिया (1975ई.) में तथा अशोक सेन, वरुण दे, सुमित सरकार और प्रद्युम्न भट्टाचार्य ने नेहरू मेमोरियल म्यूजियम और लाइब्रेरी, नई दिल्ली, अक्टूबर 1972 द्वारा आयोजित एक सेमीनार में जो लेख प्रस्तुत किये हैं, उनमें इन विद्वानों ने इन सुधार आंदोलनों को औपनिवेशिक तथा आम आदमी के संदर्भ में विश्लेषण कर, उस आंदोलन के संबंध में नवीन प्रकाश डाला है। इन अध्ययनों से इन सुधारों के आधारभूत दोष सामने आये हैं और इनकी प्रगतिशीलता पर प्रश्नचिन्ह लग गया है।

इन आंदोलनों के बारे में उत्तरोत्तर परिवर्तित विचारों को मद्देनजर रखते हुए इस आंदोलन की प्रवृत्तियों के स्वरूप तथा प्रभावों का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है-

यूरोपीय पुनर्जागरण से भिन्न भारतीय पुनर्जागरण या नव जागरण

कुछ विद्वानों ने इन सुधार आंदोलनों रो सामूहिक रूप से भारतीय पुनर्जागरण के नाम से पुकारा है। उनके अनुसार इन आंदोलनों में बुद्धिवाद, विज्ञान, मानवतावाद जैसे कई तत्व विद्यमान थे जो पुनर्जागरण में भी मौजूद थे। लेकिन तथ्यों को ठीक से परीक्षा करने पर यह धारणा पूर्णतः सत्य नहीं प्रतीत होती, क्योंकि इन आंदोलनों का दृष्टिकोण वैज्ञानिकता पर आधारित था और मानवतावाद का व्यावहारिक पक्ष बहुत ही संकीर्ण था। इनमें यूरोपीय पूनर्जागरण के कई तत्वों का पूर्णतया अभाव था।

भौगोलिक खोज, वैज्ञानिक आविष्कार और कला एवं साहित्य के क्षेत्र में अभूतपूर्व में ये तत्व प्रायः अनुपस्थित रहे। इस प्रकार भारतीय पुनर्जागरण यूरोपीय पुनर्जागरण से कई अर्थों में भिन्न था। तो भी, सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया के रूप में इन आंदोलनों को नव जागरण मानने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए। निस्संदेह यूरोपीय पुनर्जागरण की तरह ही भारतीय नवजागरण को मध्य युग की समाप्ति एवं आधुनिक युग के आगमन के संकेत के रूप में माना जा सकता है।

आधुनिकीकरण बनाम पाश्चात्यीकरण से युक्त आंदोलन

कुछ विद्वानों का मत है कि पुनर्जागरण से भारत का आधुनिकीकरण हुआ जबकि दूसरे विद्वानों का मत है कि इससे आधुनिकीकरण नहीं बल्कि पाश्चात्यीकरण हुआ।

आधुनिकीकरण के पक्षधरों का तर्क है कि चूँकि पुनर्जागरण के मूल में बुद्धिवाद, वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं आधुनिकता के वाहक आधुनिक विचार थे। अतः इस आंदोलन से भारत का आधुनिकीकरण के वाहक आधुनिक विचार थे। अतः इस आंदोलन से भारत का आधुनिकीकरण हुआ। अँग्रेजी साम्राज्यवाद के समर्थकों ने भी इसे भारत में आधुनिक युग का आरंभ माना।

इनका मत है कि इन सुधार आंदोलनों ने धार्मिक एवं सामाजिक अंधविश्वास, रूढिवादिता तथा क्रूर अमानवीय प्रथाओं का विरोध किया तथा सामाजिक समानता और महिला स्वातंत्र्य और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न किया जो कि आधुनिकीकरण के मूल आधार हैं। इसके विपरीत दूसरे विद्वान इसे पश्चिमीकरणवादी आंदोलन से अधिक महत्त्व नहीं देते। उन्होंने इस संदर्भ में निम्न तर्क दिये हैं-

  • इस आंदोलन के परिणामस्वरूप देश में पश्चिमी शिक्षा तथा पश्चिमी विचारों का प्रसार शुरू हुआ। कुछ लोगों ने पश्चिमी वस्त्र धारण किये तथा पश्चिमी रहन-सहन की नकल शुरू की तथा एक सीमा तक भारतीय समाज पर पश्चिमी संस्कृति को आरोपित करने का भी प्रयास किया। लेकिन इस सबसे देश आधुनिक हो गया हो, ऐसा नहीं माना जा सकता। भारत में आधुनिकता अंग्रेजी भाषा व अंग्रेजी संस्कृति के माध्यम से नहीं लायी जा सकती, बल्कि यहाँ की निजी भाषा, निजी संस्कृति के विकास तथा परंपरागत ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन और उसके विकास से ही लायी जा सकती है। जापान और चीन का आधुनिकीकरण इस तथ्य का ज्वलंत उदाहरण है।
  • पश्चिमीकरण ने भारत के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को बहुत हद तक अवरुद्ध कर दिया है, क्योंकि इस आंदोलन के दौरान भारत में पश्चिमी उदारवाद का प्रचार हुआ, जिसका परिणाम पूँजीवाद का पोषण तथा शोषण का समर्थन हुआ। इसने भारत के देशी साधनों के जरिए आधुनिकीकरण के आसार को रोक दिया और आने वाले वर्षों में देश पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध में आधुनिकता का भ्रम संजोता रहा।

मध्यमवर्गीय स्वरूप

19 वीं तथा 20 वीं सदी के सुधार आंदोलन का वास्तविक स्वरूप मध्यमवर्गीय ही बना रहा और इसका कार्यक्षेत्र मुख्यतः शहर के शिक्षित मध्यम वर्ग की समस्याओं से बाहर नहीं जा पाया। सुधारकों ने कृषक या आम आदमी तक पहुँचने की कोशिश नहीं की। उनके विचारों की सूक्ष्मता ने भी आम अनपढ लोगों में सुधारों को लोकप्रिय नहीं होने दिया।

रूढिवादी तथा छद्म वैज्ञानिकतावादी आंदोलन

यह आंदोलन छद्म वैज्ञानिकता का पोषक और बहुत हद तक रूढिवादी था, क्योंकि इस काल का कोई भी आंदोलन अपने धर्म से ऊपर नहीं उठ सका। ब्रह्म समाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन आदि का समग्र चिन्तन हिन्दू धर्म पर आधारित था और अलीगढ आंदोलन का इस्लाम पर। इनमें से कोई भी आंदोलन समूचे भारतीय जनजीवन की समस्याओं को आधार बनाकर नहीं चला। बाल-हत्या, विधवा-विवाह हिन्दू समाज के दोष थे, जिनसे मुसलमानों का कोई वास्ता नहीं था। इसी प्रकार कुरान की व्याख्या से हिन्दुओं का कोई वास्ता नहीं था। इस प्रकार इस काल का कोई भी आंदोलन धर्म से पूर्णतः संबंध विच्छेद नहीं कर सका। इस अर्थ में वह रूढिवादी बना रहा।

गैर-ऐतिहासिक स्वरूप

गैर वैज्ञानिक के साथ-साथ इस आंदोलन का स्वरूप गैर-ऐतिहासिक भी था क्योंकि इनमें प्रायः सभी अतीत, वेद या कुरान से प्रेरणा ले रहे थे और मध्यकालीन ऐतिहासिक विकास की उपेक्षा कर रहे थे। मध्यमकाल की उपलब्धियों को नकारने का अभिप्राय था – कुछ खास वर्ग तथा खास धर्म की उपलब्धियों को नकारना। आगे चलकर इस आंदोलन के इस गैर-ऐतिहासिक स्वरूप ने वर्गीय तथा साम्प्रदायिक भेदभाव को विकसित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी।

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