आधुनिक भारतइतिहास

ब्रिटिश सरकार की प्रशासनिक नीति(prashaasanik neeti)

1857 की क्रांति( 1857 kee kraanti ) की समाप्ति के बाद भारत में जो सैनिक एवं प्रशासनिक परिवर्तन किये गये उनसे स्पष्ट हो जाता है कि 1857 के विप्लव का ब्रिटिश नीति पर निर्णायक प्रभाव पङा। सैनिक पुनर्गठन के अंतर्गत विभिन्न जाति के सैनिकों को अलग-2 रेजिमेण्टों में गठित किया करना तथा प्रशासकीय क्षेत्रों में भारतीयों को उच्च पदों से वंचित करना, परिवर्तित ब्रिटिश नीति के कुछ उदाहरण हैं।

अंग्रेज अपने आपको शत्रुओं से घिरे हुए समझते थे। ब्रिटिश प्रशासकों एवं राजनीतिज्ञों में दो विचारधाराएँ प्रचलित हुई। प्रथम तो यह कि भारत में ब्रिटिश नीति एक सैनिक विजेता की भाँति होनी चाहिए। भारतीयों के प्रति उदार नीति का अर्थ सरकार की दुर्बलता होगी।इस नीति को प्रतिक्रियावादी नीति कहा जाता था।

दूसरी विचारधारा के अनुसार शिक्षित एवं योग्य भारतीयों को प्रशासन संचालन में भाग लेने का अवसर देना चाहिए, क्योंकि ऐसा न करने से ब्रिटिश साम्राज्य के अस्तित्व को पुनः खतरा उत्पन्न हो सकता है। इस नीति को उदारवादी नीति कहा गया।

विप्लव के बाद ये दोनों विचारधाराएँ अंग्रेजों की प्रशासनिक नीति को प्रभावित करती रही। 1858 ई. से 1905 ई. के मध्य 11 गवर्नर-जनरल भारत आये, सभी किसी न किसी विचारधारा से अवश्य प्रभावित थे। किन्तु लार्ड रिपन(Lord Ripon) और लार्ड कर्जन (Lord curzon)इन दोनों विचारधाराओं का ज्वलंत प्रतिनिधित्व करते थे।

प्रशासनिक नीति (Administrative policy)(1858-1880ई.)

1857 की क्रांति के बाद कंपनी के अस्तित्व को समाप्त करते समय ब्रिटिश सरकार ने भारत की प्रशासनिक व्यवस्था में परिवर्तन करने पर बल दिया। अतः 1857 ई. के विप्लव के बाद प्रशासन में कई परिवर्तन किये गये।

सैनिक प्रशासन(Military administration)

विप्लव के पूर्व भारत में अंग्रेजी सेना के दो भाग थे। एक तो कंपनी रेजीमेण्ट कहलाती थी, जिसमें सभी सैनिक भारतीय थे, किन्तु ऑफिसर अंग्रेज थे। दूसरी क्वीन रेजीमेण्ट कहलाती थी, जिसमें सभी सैनिक व अधिकारी अंग्रेज थे। क्वीन रेजीमेण्ट के सैनिकों को वेतन व अन्य सुविधाएँ कंपनी रेजीमेण्ट से अधिक थी। लार्ड केनिंग (Lord Kenning)(1857-62) सैनिक प्रशासन को इस प्रकार पुनर्गठित करना चाहता था, जिससे कि भविष्य में पुनः खतरा उत्पन्न न हो सके।

अतः केनिंग ने सेना के इस विभाजन को समाप्त कर दिया। यद्यपि क्वीन रेजीमेण्ट के सैनिकों ने इसका प्रबल विरोध किया, किन्तु केनिंग ने नहीं माना।

प्रशासकीय विकेन्द्रीकरण (Administrative decentralization)

1833 के चार्टर एक्ट(Charter act) द्वारा प्रशासनिक मामलों में केन्द्रीयकरण लागू किया गया था। लार्ड डलहौजी(Lord Dalhousie) के काल में 1853 का चार्टर एक्ट पारित हुआ, जिसमें विधेयक संबंधी कार्य करने के लिए गवर्नर-जनरल की कौंसिल का विस्तार किया गया तथा लार्ड डलहौजी ने इस कौंसिल का संचालन संसदीय प्रणाली के आधार पर किया।

फलस्वरूप कौंसिल में 6 गैर-सरकारी सदस्य विरोधी दल की भाँति सरकार की कटु आलोचना किया करते थे। इस प्रणाली के कारण केनिंग को अत्यधिक कठिनाई का सामना करना पङा।

उपर्युक्त व्यवस्था में परिवर्तन करने हेतु 1861 में इंडियन कौंसिल एक्ट पारित किया गया, जिसमें प्रांतों को कानून बनाने के संबंध में कुछ स्वतंत्रता दे दी गई।इस एक्ट के पूर्व समस्त प्रशासन एक कीली पर घूमता था, किन्तु अब शासन को अलग-2 विभागों का उत्तरदायित्व सौंप दिया।

कौंसिल के सदस्यों को अपने-2 विभागों से संबंधित मामलों में अंतिम निर्णय लेने का अधिकार दिया गया। केवल नीति संबंधी मामले ही गवर्नर जनरल के समक्ष प्रस्तुत किये जाते थे।इस अधिनियम द्वारा गवर्नर-जनरल तथा उसकी कार्यवाही की निरंकुशता में वृद्धि करने का अधिकार दे दिया गया।प्रशासन के इस विकेन्द्रीकरण से इतना लाभ हुआ कि कुछ भारतीयों को ब्रिटिश प्रशासन से संबंद्ध कर दिया गया, लेकिन उन्हें कार्यकारिणी के कार्यों में हस्तक्षेप का अधिकार नहीं था।

भूमि व्यवस्था में परिवर्तन (Change in land system)

लार्ड केनिंग द्वारा भारत में जमींदारों के अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने के लिए 1859 में बंगाल का लगान एक्ट(Bengal Lagaan Act) स्वीकृत किया गया, जिसके अंतर्गत सभी किसानों को जो निरंतर 12 वर्ष से किसी भूमि पर अधिकार किये हुए थे, उन्हें उस भूमि का स्वामी स्वीकार कर लिया गया तथा किसानों द्वारा अपने जमींदारों को दिया जाने वाला लगान भी निश्चित किया गया। इस निश्चित लगान में तब तक वृद्धि नहीं की जा सकती थी, जब तक कि कोई कानूनी अदालत इस बारे में जांच करके लगान वृद्धि की अनुमति न दे दे। जिन किसानों के पास 1793 से भूमि थी, उसका किराया किसी भी स्थिति में नहीं बढाया जा सकता था।

इस अधिनियम का किसानों ने विरोध किया अतः 1879 में एक किराया आयोग(Rent commission) नियुक्त किया गया और इस आयोग की रिपोर्ट के आधार पर 1885 में पुनः एक एक्ट स्वीकृत किया गया, जिसमें 12 वर्षीय अधिकार की बङी उदार व्याख्या की गई।फिर भी मुकदमेबाजी तथा अन्य परेशानियों के कारण किसान, जमींदार की लगान वृद्धि की मांग से सहमत हो ही जाता था।

केनिंग ने अवध के ताल्लुकेदारों का समर्थन प्राप्त करने के प्रयत्न में किसानों के हितों की उपेक्षा की थी। सर जॉन लॉरेन्स किसानों के हितों का समर्थक था। अतः उसने 1864 में डेवीज की अध्यक्षता में एक जाँच आयोग नियुक्त किया।

1886 में अवध लगान अधिनियम(Awadh Lagaan Act) पास किया गया, जिसके अनुसार जो किसान 30 वर्षों से किसी भूमि पर अधिकार किये हुए थे उसे भूमि पर अधिकार प्रदान किया गया।

वित्तीय प्रशासन (financial administration)

1857 की क्रांति के कारण सरकार की वित्तीय स्थिति खराब हो गयी थी। फिर भी कंपनी के ऋणों को चुकाने का दायित्व भी भारत सरकार को सौंप दिया गया था। इससे सरकार की वित्तीय कठिनाइयाँ अत्यधिक बढ गई थी। अतः केनिंग के लिए आय के नये साधन ढूँढना आवश्यक था। केनिंग ने आयात -कर, जो साढे तीन से पाँच प्रतिशत तक था, बढाकर 10 प्रतिशत कर दिया।

1859-60 में व्यापार पर लाइसेंस-कर तथा आयकर लगाये गये। आयकर 200 रुपये से 500 रुपये की आय पर 2 प्रतिशत तथा 500 रुपये से ऊपर 4 प्रतिशत लगाया गया। इस आयकर से अंग्रेज व्यापारी अधिक प्रभावित हुए। इंग्लैण्ड के व्यापारियों ने आयात-कर समाप्त करने की मांग की, किन्तु भारत सरकार ने आयात-कर समाप्त करने की बजाय लाइसेंस -कर समाप्त कर दिया।

1862 में आयकर भी समाप्त कर दिया गया। 1869-70 लॉरेन्स ने आयकर पुनः लगा दिया। लॉरेन्स के समय बंगाल,बंबई, मद्रास में नमक-कर की दर असमान थी। लॉरेन्स ने नमक – दर को समान स्तर पर लाने का सुझाव दिया, किन्तु भारत सचिव के आदेश से बंगाल में नमक-कर की दर कम कर दी गई, तथा बंबई व मद्रास में नमक-दर को बढा दिया गया।

1864 में आयात-कर घटाकर 7 प्रतिशत कर दिया गया तथा तंबाकू पर लगे आयात-कर को 20 प्रतिशत से घटाकर 10 प्रतिशत कर दिया गया। 1866 में आय के साधनों में वृद्धि करने के लिए लॉरेन्स ने स्टांप-कर लगाया, जिसके अनुसार प्रत्येक मुकदमे पर, जो न्यायालय में पेश किया जायेगा उस पर एक रुपये का स्टांप लगाया जायेगा। एक हजार रुपये के मुकदमे पर 10 प्रतिशत के हिसाब से स्टांप लगाये जायेंगे।

1833 का चार्टर एक्ट द्वारा वित्त का केन्द्रीकरण कर दिया गया।किन्तु प्रांतीय सरकारें केन्द्र के वित्तीय नियंत्रण से मुक्त होना चाहती थी। अतः 1870 में लॉर्ड मेयो (1869-71)ने रिचर्ड टेम्पल तथा स्ट्रेची की सहायता से वित्त का विकेन्द्रीकरण कर दिया और कुछ विशेष विभागों के प्रशासन एवं राजस्व का दायित्व प्रांतीय सरकारों को सौंप दिया।

भारतीय नागरिक सेवा (Indian citizen service)

1854 में मेकाले समिति की सिफारिशों के अनुसार 1855 में प्रतियोगिता परीक्षा प्रणाली आरंभ हुई। यह प्रतियोगिता प्रणाली 1855 के अधिनियम में सम्मिलित कर ली गई। इस अधिनियम के अनुसार भारत सचिव को सेवाओं में भर्ती की अधिकतम आयु 23 वर्ष थी। केनिंग ने यह अधिकतम आयु घटाकर 22 वर्ष कर दी। 1864 में भर्ती की अधिकतम आयु पुनः घटाकर 21 वर्ष कर दी तथा लार्ड लिटन ने 1876 में भर्ती के लिए अधिकतम आयु 19 वर्ष तथा निम्नतम आयु 17 वर्ष कर दी।

राजकीय उपाधि व शाही दरबार (Government degree and imperial court)

1876 में इंग्लैण्ड में डिजरैली सरकार ने एक प्रस्ताव द्वारा महारानी विक्टोरिया को केसरे-हिन्द की उपाधि से विभूषित किया गया, जिसका मुख्य उद्देश्य भारतीयों के ह्रदय में महारानी के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करना था। 1877 में इस उपाधि की विधिवत् घोषणा करने के लिए लार्ड लिटन ने दिल्ली में एक शानदार शाही दरबार का आयोजन किया, जिसमें सभी भारतीय नरेशों को आमंत्रित किया गया।

भारतीय नरेशों ने दरबार में लिटन ने महारानी विक्टोरिया(Queen Victoria) के द्वारा केसरे-हिन्द की उपाधि ग्रहण करने की घोषणा की। लिटन ने यह दरबार उस समय आयोजित किया था, जबकि बंगाल में चक्रवात तथा अकाल का प्रकोप छाया हुआ था। लिटन ने लाखों रुपये केवल शाही दरबार पर प्रदर्शन करने के लिए खर्च कर दिये, जबकि लाखों भारतीय भूख से तङप-2 कर मौत की भेंट चढ रहे थे।

भारतीय समाचार पत्रों में इस शाही दरबार की तीव्र आलोचना की गई। किन्तु लिटन का कहना था कि शाही दरबार से भारतीय नरेश इंग्लैण्ड की महारानी के भक्त तथा इंग्लैण्ड की सैन्य शक्ति के उपासक बन गये हैं।

शस्र अधिनियम (Arms act)

1878 के पूर्व भारतीयों को निजी संपत्ति तथा कृषि की सुरक्षा के लिए शस्र रखने की सुविधा प्राप्त थी। भारत के अधिकांश प्रांतों में डकैतियों की संख्या में भी वृद्धि हो रही थी तथा जंगली जानवरों से न केवल कृषि की हानि हो रही थी, बल्कि जनहानि भी अत्यधिक हो रही थी। इन परिस्थितियों में शस्र रखना नितांत आवश्यक था।

किन्तु 14 मार्च, 1878 को केन्द्रीय कौंसिल ने अक शस्र अधिनियम पास करके बिना लाइसेंस शस्र रखने पर रोक लगा दी और सभी प्रकार के शस्रों के आयात पर भारी कर लगा दिया। जनवरी, 1879 में लिटन ने एक आदेश प्रसारित कर समस्त यूरोपियनों, जमींदारों, राजकीय उपाधि प्राप्त व्यक्तियों तथा नगरपालिकाओं के स्वामिभक्त सदस्यों को इस एक्ट से मुक्त कर दिया। इस आदेश द्वारा लिटन ने न केवल प्रजातीय विभेद की नीति को बढावा दिया बल्कि भारतीय-2 के बीच विभेद पैदा कर दिया।

वास्तव में ब्रिटिश सरकार को भारतीयों पर भरोसा नहीं था, अतः इस अधिनियम द्वारा तथा लिटन के आदेश द्वारा सामान्य जनता को निशस्र कर दिया गया।

वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट (Vernacular Press Act)

लार्ड लिटन की प्रतिक्रियादी नीति की भारतीय समाचार – पत्रों ने तीव्र आलोचना की थी। भारतीय भाषाओं के समाचार – पत्र अंग्रेज समर्थक राजाओं और जमींदारों की भी तीखी आलोचना करते थे। अतः वह भारतीय भाषाओं के समाचार-पत्रों पर प्रतिबंध लगाना चाहते थे।

यद्यपि अंग्रेजी भाषा के समाचार-पत्रों में भी सरकार की आलोचना होती थी, किन्तु लिटन इन आलोचनाओं को आपत्तिजनक नहीं मानता था । अतः 14मार्च, 1878 को लिटन ने वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट पास कर दिया। इस एक्ट के अनुसार भारतीय भाषाओं के समाचार-पत्रों के संपादकों के लिए यह अनिवार्य कर दिया कि वे अपने क्षेत्र के मजिस्ट्रेट अथवा कलेक्टर को लिखित आश्वासन दें कि वे अपने पत्रों में ऐसी कोई चीज प्रकाशित नहीं करेंगे, जिससे जनता में सरकार के विरुद्ध आक्रोश फैलने अथवा सांप्रदायिक द्वेष फैलने की आशंका हो।

संपादकों को यह भी कहा गया कि कोई समाचार,प्रकाशन से पूर्व उसका प्रूफ सरकारी अधिकारी से स्वीकृत करा ले। इस एक्ट का उल्लंघन करने वाले संपादकों को दंड देने का अधिकार न्यायाधीशों के स्थान पर कार्यकारिणी को दे दिया गया।

लिटन की इस प्रतिक्रियावादी नीति का जनता ने तीव्र विरोध किया।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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