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जर्मनी में नाजीवाद का उत्कर्ष

जर्मनी में नाजीवाद का उत्कर्ष

जर्मनी में नाजीवाद

पृष्ठभूमि

प्रथम महायुद्ध के परिणामस्वरूप जर्मनी के होहेनजोलर्न राजवंश का अंत हो गया और उसके स्थान पर एबर्ट के नेतृत्व में प्रजातांत्रिक शासन की स्थापना की गई। 19 जनवरी, 1919 के दिन जर्मन रीष्टाग (लोकसभा) के चुनाव हुए। 6 फरवरी को एबर्ट ने वाइमर (वीमर) नामक नगर में नव निर्वाचित लोकसभा को आहूत किया।

लोकसभा में किसी भी राजनीतिक दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं था। 394 सदस्यों की लोकसभा में समाजवादी दल के 163, कैथोलिक दल के 90 डेमोक्रेटिक दल के 70 सदस्य थे। अतः इन तीनों दलों ने मिलकर संयुक्त सरकार बनाई। एबर्ट को राष्ट्रपति चुना गया तथा शीडमैन को चान्सलर (प्रधानमंत्री) नियुक्त किया गया।

नवीन सरकार ने मित्रराष्ट्रों के साथ संधि सम्पन्न करने तथा जर्मनी के लिये एक नए संविधान बनाने का कार्य हाथ में लिया। लोकसभा में मित्रराष्ट्रों द्वारा प्रस्तुति संधि की शर्तों की भरपूर निन्दा की गयी। स्वयं शीडमैन शर्तों के पक्ष में नहीं था। अतः उसने चान्सलर पद से त्याग-पत्र दे दिया।

उसके स्थान पर गुस्टाव वेबर चान्सलर बनाया गया। उसकी सरकार ने 28 जून, 1919 को वर्साय की आरोपित संधि पर हस्ताक्षर किए। इस संधि पर हस्ताक्षर करने से “वाइमर सरकार” कभी लोकप्रिय न हो सकी।

जर्मनी में नाजीवाद

31 जुलाई, तक नवीन संविधान भी तैयार हो गया। इसके अनुसार जर्मन संघीय राज्य की व्यवस्था की गयी थी। इस संघ के अन्तर्गत 18 राज्य थे। इन राज्यों को उनकी शक्ति के अनुसार अधिकार प्रदान किए गए। परंतु संविधान की मुख्य विशेषता केन्द्रीय सरकार को शक्तिशाली बनाना था।

नवीन संविधान के अनुसार दो सदनों की व्यवस्था की गयी – रीष्टाग और रीष्रार्ट। रीष्टाग के सदस्यों के कार्यकाल की अवधि चार वर्ष रखी गयी और सदस्यों का निर्वाचन वयस्क मताधिकार एवं गुप्त मतदान के द्वारा कराए जाने की व्यवस्था की गई। रीष्रार्ट में संघ के सदस्य राज्यों का प्रतिनिधित्व होता था।

दस लाख की आबादी पर राज्य को एक प्रतिनिधि भेजने का अधिकार दिया गया। संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित थी जिसका निर्वाचन वयस्क मताधिकार के आधार पर जनता करती थी। उसकी पदावधि सात वर्ष रखी गयी थी। उसकी सहायता के लिये चान्सलर की व्यवस्था की गयी।

चान्सलर पद के लिए रीष्टाग के बहुमत वाले दल के नेता को चुना जाता था, क्योंकि वह राष्ट्रपति के प्रति उत्तरदायी न होकर रीष्टाग के प्रति उत्तरदायी होता था।

आर्थिक संकट

वाइमर प्रजातंत्र को प्रारंभ से ही आर्थिक संकटों का सामना करना पङा। युद्धकाल में जर्मनी की आर्थिक स्थिति अस्त-व्यस्त हो चुकी थी। वर्साय संधि के कारण जर्मनी को भारी आर्थिक क्षति हुई थी।
इस पर भी उस पर भारी हर्जाना लाद दिया गया। ऐसी स्थिति में जर्मन की मुद्रा की कीमत गिरती गयी । उसके सिक्के “मार्क” की कीमत काफी हद तक गिर गई थी।

जर्मनी ने अपनी शोचनीय आर्थिक स्थिति का हवाला देते हुये मित्रराष्ट्रों से दो वर्ष तक हर्जाना न लेने की प्रार्थना की। इंग्लैण्ड ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया परंतु फ्रांस और बेल्जियम ने प्रस्ताव को ठुकरा दिया। जब जर्मनी निश्चित अवधि में निर्धारित किस्त अदा नहीं कर पाया तो फ्रांस, बेल्जियम आदि ने मिलकर जर्मनी के समृद्ध रूर प्रदेश पर अधिकार जमा लिया।

विवश होकर जर्मनी को यह अपमान भी सहन करना पङा। परंतु उसने सक्रिय असहयोग की नीति अपनाई जिससे जनता को तो भारी कष्ट उठाने ही पङे परंतु फ्रांस को भी कोई लाभ नहीं हुआ। अंत में इस समस्या को हल करने के लिये डावस कमेटी नियुक्त की गई। फ्रांस ने कुछ संशोधनों के साथ डावस कमेटी द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया।

डावस कमेटी की योजनानुसार जर्मनी की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिये उसे 80 करोङ गोल्ड मार्क का विदेशी कर्जा दिया गया। इसके अलावा जर्मनी में रीश मार्क नाम का नया सिक्का जारी किया गया। इस सिक्के की व्यवस्था के लिये राजकीय बैंक की स्थापना की गयी तथा इस बैंक को सरकारी नियंत्रण से पृथक रखा गया।

कमेटी की सिफारिश के अनुसार रूर का प्रदेश जर्मनी को वापस लौटा दिया गया। हर्जाने की रकम के बदले में जर्मनी की रेलवे आय, आयकर से होने वाली आय आदि को अमानत के रूप में रख लिया गया।

डावस कमेटी की योजना से मृत जर्मनी में जीवन की नई आशा दृष्टिगोचर होने लगी और जर्मन जनता भी अदम्य साहस तथा आत्मविश्वास के साथ अपने आर्थिक पुनर्निर्माण की ओर बढी। कोयला तथा इस्पात का उत्पादन बढने लगा। इससे जर्मनी की साख जमने लगी और संयुक्त राज्य अमेरिका से उसे भारी ऋण मिलने लगा।

विदेशी ऋण की सहायता से जर्मनी हर्जाने की वार्षिक किस्तों को अदा करने लगा। यह स्थिति 1924 तक कायम रही। इसका अच्छा परिणाम निकला। जर्मनी में प्रजातंत्र की जङें मजबूत होने लगी। 1925 ई. में प्रजातांत्रिक दलों का उम्मीदवार एबर्ट भारी बहुमत से पुनः राष्ट्रपति चुना गया।

1925 में उसकी मृत्यु के बाद पुनः चुनाव हुए और इस बार भी प्रजातात्रिक उम्मीदवार हिण्डेनबर्ग विजयी हुआ। 1929 में जर्मनी की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिये यंग-कमेटी नियुक्त की गयी और उसकी सिफारिशों को स्वीकार कर लिया।

दुर्भाग्यवश 1930-31 में संपूर्ण संसार आर्थिक मंदी के गंभीर संकट में उलझ गया। अमेरिका जैसे समृद्ध राष्ट्र का ढाँचा भी चरमरा उठा। जर्मनी की स्थिति तो बहुत अधिक शाचनीय हो गयी।

उद्योग-धंधे ठप्प हो गये, चारों तरफ रोजी-रोटी की विकराल समस्या फैलती जा रही थी, वस्तुओं के भाव बढते जा रहे थे और सामान्य लोग अपनी थोङी सी पूँजी को खोकर निर्धनों की श्रेणी में सम्मिलित होने को विवश होने लगे। जर्मनी को कहीं से अन्तर्राष्ट्रीय ऋण भी न मिल सका।

यद्यपि प्रजातांत्रिक सरकार ने स्थिति को सुधारने का अथक प्रयास किया परंतु उसे सफलता नहीं मिल पाई जिससे जर्मन जनता का लोकतंत्र से विश्वास जाता रहा। ऐसी परिस्थिति में नाजी दल को अपनी लोकप्रियता तथा शक्ति बढाने का अपूर्व अवसर मिल गया।

प्रजातांत्रिक सरकार की विदेश नीति

जर्मनी में नाजी दल के उत्कर्ष में प्रजातांत्रिक सरकार की कमजोर विदेस नीति का भारी योगदान रहा है। 1919 से 1932 तक जर्मन राजनीति का मुख्य ध्येय जर्मनी के लिये यूरोप तथा अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में सम्मानपूर्वक स्थान प्राप्त करना था। इस संबंध में जर्मन राजनीतिज्ञ एकमत नहीं थे।

एक वर्ग रूस से मित्रता करने के पक्ष में था तो दूसरा वर्ग मित्रराष्ट्रों के साथ सहयोग के पक्ष में था। प्रथम वर्ग का कहना था कि रूस के साथ मित्रता स्थापित करके संधि के अपमानजक अनुच्छेदों को अस्वीकार करना चाहिये।

दूसरे वर्ग का कहना था कि पुराने शत्रुओं (मित्रराष्ट्रों)के साथ सहयोग से संधि की शर्तों में धीरे-धीरे परिवर्तन के लिये प्रयास करना चाहिये।

शुरू में प्रथम वर्ग का पलङा भारी रहा जबकि रूस के साथ जर्मनी ने 1922 में रैपोलो की संधि सम्पन्न की। चार वर्ष बाद, इसी संधि के आधार पर रूस से एक नई संधि की गई परंतु इसके बाद दूसरे वर्ग का प्रभाव बढ गया और रूसी झुकाव धीरे-धीरे कम हो गया।

दूसरे वर्ग का नेता था – डॉ. स्ट्रेसमान। 1923 में कुछ महीनों के लिये डॉ.स्ट्रेसमान जर्मनी का चान्सलर रहा परंतु उसे त्यागपत्र देना पङा। इसके बाद वह विदेश मंत्री नियुक्त किया गया और अपनी मृत्युपर्यन्त (अक्टूबर, 1929) इसी पद पर बना रहा। स्ट्रेसमान की विदेश नीति का ध्येय राष्ट्रों के परिवार में जर्मनी के लिये सम्मानित स्थान प्राप्त करना तथा मित्र राष्ट्रों, विशेषतः फ्रांस के साथ मैत्री संबंध बढाना था।

उसने रूर में चलने वाले निष्क्रिय आंदोलन को बंद कर दिया। डावस योजना का स्वागत किया और विभिन्न देशों के साथ व्यापारिक संधियाँ करके उनका विश्वास अर्जित करने में सफल रहा। उसके सर्वोच्च महत्त्वपूर्ण कार्य लोकानी समझौता और जर्मनी के लिये राष्ट्रसंघ की सदस्यता प्राप्त करना था।

इसका परिणाम अच्छा निकला। 1927 में मित्रराष्ट्रों ने जर्मनी से अपनी सेनाएँ हटा ली। 1928 में जर्मनी ने सम्मान सहित अन्य राष्ट्रों के साथ पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर किये। 1929 में मित्र राष्ट्रों ने राइनलैण्ड को भी खाली कर दिया। परंतु उसके बाद प्रजातांत्रिक सरकार की विदेश नीति बुरी तरह से असफल होने लगी और बिना किसी ध्येय के अंधेरे में भटकती रही।

इस प्रकार, वर्साय की आरोपित संधि के साथ वाइमर सरकार का सहयोग, जर्मनी का निःशस्रीकरण की क्षति, राइनलैण्ड पर मित्रराष्ट्रों का आधिपत्य, सार की घाटी पर फ्रेंच-नियंत्रण और रूस पर फ्रांस का बलात् अधिकार, 1930-31 का विश्वव्यापी संकट आदि ने स्मूहिक रूप से वाइमर प्रजातंत्र के भविष्य को अंधकारमय बना दिया और जर्मनी में नाजीवाद के उत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

नाजीदल की प्रगति

1. पुस्तक- आधुनिक विश्व का इतिहास (1500-1945ई.), लेखक - कालूराम शर्मा

Online References
wikipedia : जर्मनी में नाजीवाद

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