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मीर जाफर और अँग्रेज के संबंध

मीर जाफर और अँग्रेज

मीर जाफर और अँग्रेज (Mir Jafar and the British) – प्लासी के युद्ध के बाद 29 जून, 1757 ई. को क्लाइव ने मीरजाफर को नवाब घोषित कर दिया और स्वयं अपनी सेना लेकर मुर्शिदाबाद की ओर गया। इस युग में बंगाल की जनता पूरी तरह से निष्क्रिय हो चुकी थी। राजसत्ता के परिवर्तन में उसकी किसी प्रकार की कोई रुचि नहीं थी। यही कारण था कि मामूली सी सेना के साथ कोई भी साहसी सेनानायक राज्यों के शासन में मनचाहा परिवर्तन कर सकता था। नया नवाब मीरजाफर एक कमजोर तथा अयोग्य व्यक्ति था। क्लाइव ने शीघ्र ही यह प्रकट कर दिया कि शासन की वास्तविक शक्ति उसके पास है और मीरजाफर नाममात्र का नवाब है। क्लाइव ने जगत सेठ के माध्यम से बंगाल में हुई सत्ता-परिवर्तन के लिए मुगल सम्राट की भी स्वीकृति मँगवा ली।

मीर जाफर और अँग्रेज

मीरजाफर के राज्याभिषेक के अवसर पर क्लाइव ने कहा था कि अँग्रेज वापस कलकत्ता चले जायेंगे और अपना ध्यान व्यापार की ओर केन्द्रित करेंगे। परंतु उसके भावी कार्यों से स्पष्ट हो जाता है कि वह नवाब तथा शासनतंत्र पर अपना नियंत्रण रखना चाहता था। इसीलिए उसने सभी महत्त्वपूर्ण पदों पर ऐसे व्यक्तियों को नियुक्त करवाया। कहा जाता है कि क्लाइव ने रायदुर्लभ के साथ अलग से एक गुप्त समझौता भी किया, जिसमें रायदुर्लभ ने क्लाइव के दावों का समर्थन करने का आश्वासन दिया। रायदुर्लभ नवाब के विरुद्ध निरंतर षङयंत्र करता रहा और नवाब को जब इसकी जानकारी मिली तो उसने रायदुर्लभ को हटाने का फैसला किया। परंतु रायदुर्लभ को क्लाइव का समर्थन प्राप्त था। अतः वह उसके विरुद्ध कुछ नहीं कर पाया। दूसरा उदाहरण बिहार के नायब सूबेदार रामनारायण का है। क्लाइव ने उसके साथ भी समझौता कर रखा था और शासन चलाने के निर्देश वह क्लाइव से सीधे प्राप्त करता था। उसने नवाब के आदेशों का कभी सम्मान नहीं किया और नवाब उसके विरुद्ध कोई कार्यवाही न कर सका। शासनतंत्र पर नियंत्रण स्थापित होने के बाद क्लाइव ने भारतीय अधिकारियों को निर्देश भिजवाये कि वे अपने-अपने क्षेत्रों से फ्रांसीसियों को पकङ कर अँग्रेजों को सौंप दें। इन्हीं दिनों नवाब के दो जमीदारों ने विद्रोह कर दिया। क्लाइव ने नवाब को भी निर्देश दिया कि वह तुरंत विद्रोह को दबा दे और इसके लिए अपने 500 सैनिक भी दिये। इस सहायता के बदले में क्लाइव ने बंगाल के शोरे के उत्पादन का एकाधिकार प्राप्त कर लिया। केवल 15 प्रतिशत शोरा नवाब के लिए छोङा गया। शोरे का उपयोग बारूद बनाने में किया जाता था। अतः स्पष्ट है कि मीरजाफर नाममात्र का शासक था।

अली गौहर का आक्रमण

शाहजादा अली गौहर (मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय) इस समय अवध में भटक रहा था। बंगाल, बिहार और उङीसा की अव्यवस्था का हाल सुनकर उसने इन प्रांतों में अपना भाग्य आजमाने का प्रयास किया। इसके लिए उसे अवध के नवाब से सैनिक सहायता भी मिल गई। 13 अप्रैल, 1759 को उसने पटना पर आक्रमण कर दिया। मीरजाफर के कुछ असंतुष्ट सरदार गुप्त रूप से शाहजादा से मिले हुए थे। पटना के नवाब सूबेदार रामनारायण ने अली गौहर को मार भगाया। परंतु क्लाइव जो उस समय अपनी सेना के साथ युद्ध स्थल के निकट ही था, ने विजय का सारा श्रेय स्वयं ले लिया। उसका मानना था कि शाहजादा ब्रिटिश सेना के भय से भाग खङा हुआ। इसके लिए मीरजाफर ने क्लाइव को व्यक्तिगत जागीर प्रदान की। 1760 ई. में अली गौहर ने पुनः बिहार पर आक्रमण किया परंतु इस बार भी वह असफल हुआ। अब अँग्रेज मीरजाफर के रक्षक कहलाये जाने लगे।

डचों का आक्रमण

बंगाल में डचों का भी व्यापार था। पटना, ढाका, पीपली, चिन्सुरा तथा कासिम बाजार के निकट उनकी फैक्ट्रिया थी। बंगाल प्रांत के भीतरी भागों में भी उनकी कई शाखाएँ थी। बङानगर तथा चिन्सुरा के प्रदेश तो उनके अधिकार में ही थे। जब सिराजुद्दौला ने कलकत्ता पर आक्रमण किया था तब उसने डचों से सहायता माँगी थी, परंतु डचों ने नवाब को सहायता नहीं दी। इस अवसर पर अँग्रेजों ने भी डचों से सहयोग माँगा था, परंतु डचों ने उन्हें भी सहयोग नहीं दिया। परंतु फुल्टा द्वीप में शरण लेने वाले अँग्रेजों को डचों ने अवश्य मदद पहुँचाई। जब मीरजाफर की सहायता से बंगाल में फ्रांसीसियों के प्रभाव को क्षीण कर दिया गया तो डचों को अपने भविष्य की चिन्ता लग गयी। अँग्रेज लेखकों ने मीरजाफर पर डचों से साँठ-गाँठ करने का आरोप लगाया है जो सत्य प्रतीत नहीं होता। परंतु अँग्रेजों को डचों से बाहर निकालने के लिए किसी बहाने की आवश्यकता थी, क्योंकि वे उनके प्रबल प्रतिद्वन्द्वी सिद्ध हो सकते थे। अतः अँग्रेजों ने आवश्यक कार्यवाही के बाद डचों के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही शुरू कर दी। 25 नवंबर, 1759 को बेदरा नामक स्थान पर दोनों पक्षों में युद्ध लङा गया जिसमें डच हार गये और शांति-संधि की प्रार्थना करनी पङी। इसी समय मीरजाफर का पुत्र मीरन भी सेना सहित डचों को सजा देने आ पहुँचा। अंत में क्लाइव की मध्यस्थता से संधि सम्पन्न हो गयी, जिसके अनुसार डचों ने भविष्य में युद्ध न करने तथा नई सैनिक भर्ती और किलेबंदी न करने का आश्वासन दिया। उन्होंने अपनी फैक्ट्रियों के सुरक्षार्थ केवल 125 यूरोपियन सैनिक रखना स्वीकार किया।

बेदरा का युद्ध बंगाल में अँग्रेजी सत्ता की स्थापना की दिशा में प्लासी के बाद दूसरा महत्त्वपूर्ण कदम था। क्लाइव के टोप की यह अतिरिक्त पंखुङी थी। इस विजय से बंगाल में अँग्रेजों की प्रतिष्ठा और अधिक बढ गयी। फ्रांसीसियों की भाँति डचों की महत्वाकांक्षा भी पूर्णरूप से कुचल दी गयी। अब बंगाल में अँग्रेजों की सर्वोच्चता को गंभीर चुनौती देने वाली कोई शक्ति नहीं थी।

प्रशासनिक व्यवस्था

मीरजाफर की अयोग्यता, अदूरदर्शिता, तथा क्रोधी स्वभाव के कारण प्रशासन व्यवस्था बिगङती जा रही थी। मीरजाफर की सबसे बङी कमजोरी यह थी कि उसे न तो अपने ऊपर भरोसा था और न वह अपने सहयोगियों पर विश्वास करता था। राजकोष पहले से ही रिक्त था। मराठा नवाब से निरंतर चौथ वसूल कर रहे थे और क्लाइव ने भी इस समय मराठों से छेङछाङ करना उचित नहीं समझा था। अव्यवस्था के कारण राजस्व की वसूली भी नहीं हो पा रही थी। कंपनी तथा उसके अधिकारी भी नवाब से निरंतर धन की माँग कर रहे थे। नवाब कंपनी को निर्धारित किश्तें भी नहीं चुका पा रहा था, जबकि अनिर्धारित माँगें बढती जा रही थी। ऐसी स्थिति में नवाब अपने सैनिकों का वेतन भी नहीं चुका पाया। कंपनी के दबाव पर नवाब को बर्दवान, नदिया तथा हुगली के क्षेत्रों से राजस्व वसूली का अधिकार तब तक के लिए कंपनी को सौंपना पङा जब तक कि उसकी किश्तों का धन वसूल न हो जाये। ऐसी परिस्थिति में 25 फरवरी, 1760 ई. को क्लाइव, हॉलवेल को कंपनी के कार्यों का चार्ज देकर स्वयं स्वदेश लौट गया।

मीरजाफर को हटाया जाना

जुलाई, 1760 ई. में वेन्सीटार्ट को फोर्ट विलयम का गवर्नर बनाकर कलकत्ता भेजा गया। कलकत्ता कौंसिल के 16 सदस्यों में से अनेक उसके वरिष्ठ सदस्य थे। अतः उन्हें वेन्सीटार्ट की नियुक्ति पसंद न आई। कलकत्ता कौंसिल के अधिकांश सदस्य धनलोलुप तथा भ्रष्ट थे। ऐसे लोगों के मध्य वेन्सीटार्ट ठीक ढँग से कार्य न कर पाया। स्थिति उस समय और विषम हो गयी जबकि उसके तीन समर्थक सदस्यों को कौंसिल की सदस्यता से हटा दिया गया और उनके स्थान पर उसके विरोधियों को नियुक्त किया गया। वेन्सीटार्ट के प्रमुख विरोधी एलिस को कंपनी की पटना स्थित फैक्टरी का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। कंपनी के पदाधिकारियों में जिस तेजी के साथ परिवर्तन किया जा रहा था, उससे मीरजाफर के लिए कठिनाइयाँ उत्पन्न होने लग गयी।

शाहजादा अलीगौहर का भय अभी बना हुआ था, क्योंकि कुछ स्थानीय जमींदार और सरदार उसको गुप्त सहयोग दे रहे थे। मराठे भी चौथ वसूली के नाम पर निरंतर बंगाल में आते रहते थे। अँग्रेजों ने नवाब को इन सभी संकटों में बराबर सहायता दी, परंतु उन्हें हमेशा यह शिकायत बनी रही कि नवाब और उसके पुत्र मीरन की तरफ से उन्हें पूरा सहयोग नहीं मिल पा रहा है। जब मीरजाफर ने अँग्रेजों के समर्थक रायदुर्लभ को मंत्री पद से हटा दिया तो उनका असंतोष और अधिक बढ गया। 3 जुलाई, 1760 ई. को किसी ने मीरन की हत्या कर दी जिससे अंग्रेजों को बंगाल के नये नायब की नियुक्ति का अवसर मल गया। उन्होंने किसी ऐसे व्यक्ति को नियुक्त करने का निश्चय किया जो उनके इशारे पर चले और उन्हें काफी भेंट उपहार भी दे सके। ऐसा व्यक्ति मिल भी गया। वह था मीरजाफर का दामाद मीर कासिम।

मीर कासिम अत्यंत ही धनी व्यक्ति था। उसने नवाब बनते ही अँग्रेजों को हर प्रकार की सहायता का आश्वासन दिया। उससे प्राप्त बहुमूल्यवान उपहारों से अँग्रेज पदाधिकारी खुश हो गये और अब उन्होंने मीर कासिम को नया नवाब बनाने का षङयंत्र रचा, ताकि उन्हें और धन की प्राप्ति हो सके। इस संबंध में जो घटनाएँ हुई, उसे 1760 की रक्तहीन क्रांति कहते हैं।

इस समय ईस्ट इंडिया कंपनी को भी धन की सख्त आवश्यकता थी। दक्षिण में फ्रांसीसियों के विरुद्ध लङे जाने वाले युद्ध के कारण उसका खजाना खाली हो चुका था और मद्रास के अधिकारी बंगाल में नियुक्त अधिकारियों से बराबर धन की माँग कर रहे थे। बिहार में नियुक्त अँग्रेजी सेना को वेतन नहीं चुकाया जा सका था और वहाँ के सैनिक बगावत की बात करने लगे थे। कंपनी को इस आर्थिक संकट से उबारने वाला मीर कासिम ही दिखलाई पङा। क्योंकि उसके पास धन था, और वह नवाब बनने की इच्छा भी रखता था। ऐसी स्थिति में 27 सितंबर, 1760 ई. को वेन्सीटार्ट ने मीर कासिम के साथ एक गुप्त समझौता कर लिया, जिसमें मीर कासिम को नवाब बनाने की बात कही गयी थी और एक गुप्त समझौता कर लिया, जिसमें मीर कासिम को नवाब बनाने की बात कही गयी थी और इसके बदले में मीर कासिम ने निम्नलिखित आश्वासन दिये थे –

  • वह अँग्रेजों का घनिष्ठ मित्र रहेगा।
  • बंगाल की शासन व्यवस्था को सुचारुरूप से चलाने के लिए ब्रिटिश सेना मीर कासिम को पूरा-पूरा सहयोग देगी। मीर कासिम ने अँग्रेजों की इस सेना के व्यय के लिए उन्हें बर्दवान, मिदनापुर और चिटगाँव के प्रदेश देना स्वीकार किया।
  • सिलहट में उत्पादित सीमेण्ट का आधा भाग अँग्रेजों को तीन वर्ष तक खरीदने का अधिकार होगा।
  • मीरजाफर से कंपनी की जो बकाया धन राशि है उसे चुकाने का आश्वासन दिया।
  • दक्षिण में कंपनी द्वारा लङे जा रहे युद्धों में मीर कासिम ने 5 लाख रुपये की मदद देने का वचन दिया।
  • मीर कासिम कलकत्ता कौंसिल के सदस्यों को लगभग 4,52,000 पौंड उपहार में देगा। इसमें से 50,000 पौंड वेन्सीटार्ट को, 27,000 पौंड हॉलवेल को तथा 25,000 पौंड प्रत्येक सदस्य को उपहार में देना तय हुआ था।

इस समझौते को बहुत ही गोपनीय रखा गया। मीरजाफर को इसकी भनक भी न पङी। अक्टूबर, 1760 ई. में वेन्सीटार्ट सेना सहित मुर्शिदाबाद गया और गद्दी छोङने की बात कही। नवाब बहुत क्रोधित हुआ, परंतु चूँकि ब्रिटिश सेना उसके महल को घेरे हुई थी, अतः विवश होकर उसे अँग्रेजों की बात माननी पङी। विवश होकर उसने पर्याप्त निर्वाहभत्ता तथा सुरक्षा के आश्वासन पर मीर कासिम के पक्ष में गद्दी त्याग दी। इसके बाद कलकत्ता चला गया और वहीं रहने लगा। इधर मीर कासिम को नया नवाब घोषित कर दिया गया।

मीरजाफर को गद्दी से उतारने के औचित्य पर प्रकाश डालते हुए कलकत्ता कौंसिल ने कहा, नवाब मीरजाफर क्रोधी, क्रूर, लालची और विलासी प्रवृत्ति का था तथा उसके निकट के व्यक्ति पूर्णतया दास, खुशामदी तथा उसकी बुराइयों की पूर्ति के साधन बने हुए हैं। अनेक ऐसे उदाहरण हैं कि उसने बिना किसी कारण के विभिन्न स्तर के व्यक्तियों का खून बहाया है। कलकत्ता कौंसिल के ये आरोप बेबुनियाद तथा तथ्य से परे हैं। सत्यतो तो यह है कि अँग्रेजों ने उसे स्वतंत्र रूप से शासन चलाने का अवसर ही नहीं दिया। 1765 ई. में क्लाइव ने स्वयं स्वीकार किया था कि नवाब पर लगाये गये आरोप असत्य थे। हॉलवेल ने नवाब पर जो अमानवीय क्रूरता तथा हत्याओं का आरोप लगाया है, उसमें लेशमात्र भी सत्यता नहीं है। वस्तुतः मीरजाफर को हटाने के लिए किसी बहाने की आवश्यकता थी और इसके लिए उस पर झूठा दोषारोपण किया था। कुछ इतिहासकारों ने इस समूचे कांड के लिए मीर कासिम को दोषी ठहराया है। परंतु डॉ.नन्दलाल चटर्जी का मत है कि इसके लिए मीर कासिम को दोषी ठहराना उचित नहीं होगा, क्योंकि विश्वासघाती मीरजाफर को विश्वासघात का फल मिलना अनिवार्य था।

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