प्राचीन भारतइतिहासगुप्त काल

फाहियान का आगमन किस शासक के काल में हुआ

चंद्रगुप्त द्वितीय के शासन काल की एक प्रमुख घटना चीनी यात्री फाहियान के भारत आगमन की है। 399 ईस्वी से 414 ईस्वी तक उसने भारत के विभिन्न स्थानों का भ्रमण किया।उसके द्वारा छोङा गया भ्रमण – वृत्तांत चंद्रगुप्तकालीन भारत की सांस्कृतिक दशा का सुंदर निरूपण करता है, यद्यपि उसने अपने समकालीन शासक का नामोल्लेख नहीं किया है।

फाहियान का जन्म चीन के वु-यांग नामक स्थान में हुआ था। बचपन में ही वह में ही वह भगवान बुद्ध की शिक्षाओं की ओर आकृष्ट हुआ। बङा होने पर वह भिक्षु जीवन व्यतीत करने लगा। उसकी आस्था दिनोंदिन बुद्ध के उपदेशों तथा शिक्षाओं में दृढ होती गयी।

बौद्ध ग्रंथों के गहन अध्ययन तथा बुद्ध के चरण-चिन्हों से पवित्र हुए स्थानों को देखने की लालसा से उसने अपने कुछ सहयोगियों के साथ भारतवर्ष की यात्रा प्रारंभ की। चंगन से चलकर सर्वप्रथम वह शान-शान पहुँचा। यहाँ हीनयान मत के लगभग 4,000 भिक्षु निवास करते थे। यहाँ के साधारण लोग भारतीय धर्म को मानने वाले थे। तत्पश्चात् उसने करशहर, खोतान तथा काशगर की यात्रा की। खोतान के प्रसिद्ध गोमती विहार में उसने निवास किया।

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बौद्ध ग्रंथ।

यहाँ महायान संप्रदाय के लगभग 10,000 भिक्षु निवास करते थे। इसके बाद सिंधु नदी पार कर उसने उद्यान, गंधार, तक्षशिला, पेशावर आदि स्थानों का भ्रमण किया। पेशावर में कनिष्क द्वारा बनवाये गये टावर (चैत्य) को उसने देखा था। यह संपूर्ण क्षेत्र स्तूपों, विहारों तथा स्मारकों से भरा हुआ था। यहाँ से चलकर वह नगरहार पहुँचा। नगरहार की राजधानी में बुद्ध का दंत पेगोडा था। पहाङियाँ पार कर वह अफगानिस्तान देश गया, जहाँ उसने हीनयान तथा महायान दोनों संप्रदायों के लगभग 3,000 भिक्षु देखे।

यहाँ से पूर्व की ओर उसने पुनः सिंधु पार की तथा पंजाब राज्य में प्रवेश किया। पंजाब में उसने बहुसंख्यक बौद्ध-विहार देखे। पंजाब के बाद मध्य देश की सीमा प्रारंभ होती थी। मध्यदेश का उसने व्यापक भ्रमण किया।

रणजीत सिंह तथा पंजाब।

फाहियान मध्यदेश का वर्णन विस्तारपूर्वक करता है।यह ब्राह्मणों का देश था, जहां लोग सुखी एवं समृद्ध थे। लोगों को न तो अपने मकानों का पंजीकरण कराना पङता था। तथा न ही न्यायालयों में दंडाधिकारियों के सम्मुख उपस्थित होना पङता था। वे जहाँ चाहे जा सकते तथा रह सकते थे। जो लोग सरकारी भूमि पर खेती करते थे, उन्हें उपज का एक भाग राजा को देना पङता था। दंडविधान मृदु थे।राजा बिना मृत्यु – दंड अथवा शारीरिक यंत्रणाओं का भय दिलाते हुये ही शासन करता था। अपराधों में आर्थिक दंड लगाये जाते थे। बार-2 राजद्रोह का अपराध करने वाले व्यक्ति का केवल दायाँ हाथ काट लिया जाता था। इसके बावजूद भी अपराध नहीं होते थे तथा चतुर्दिक शांति एवं सुव्यवस्था का साम्राज्य था। राजकर्मचारी वैतनिक होते थे। संपूर्ण देश में लोग न तो किसी जीवित प्राणी की हत्या करते थे और न ही मांस, मदिरा, प्याज, लहसुन आदि का प्रयोग करते थे। केवल चाण्डाल इसके अपवाद थे, जो समाज से बहिष्कृत समझे जाते थे। लोग सुअर अथवा पक्षी नहीं पालते थे, तथा पशुओं का व्यापार नहीं करते थे। बाजारों में बूचङखाने तथा मदिरालय नहीं थे। क्रय-विक्रय में कौङियों का प्रयोग होता था। केवल चाण्डाल ही शिकार करते तथा मछलियाँ बेचते थे। धनपति एवं कुलीन वर्ग के लोग मंदिर एवं विहार बनवाते तथा उनके निर्वाह के लिये धन दान देते थे। धर्मपरायण परिवार भिक्षुओं को भोजन, वस्त्रादि देने के लिये चंदे एकत्रित करते थे। मध्यदेश में ब्राह्मण धर्म का ही बोल-बाला था।”

फाहियान ने पवित्र बौद्ध स्थानों की भी यात्रा की। संकिसा तथा श्रावस्ती में उसने अनेक स्मारक तथा भिक्षु देखे। श्रावस्ती स्थित जेतवन विहार की वह प्रशंसा करता है। यहाँ कई पुण्यशालायें थी जहाँ यात्रियों एवं भिक्षुओं को मुफ्त भोजन दिया जाता था। फाहियान ने कपिलवस्तु नगर को उजङा हुआ पाया।

उसने लुंबिनी, रामग्राम तथा वैशाली की भी यात्रा की। गंगा नदी पार कर उसने पाटलिपुत्र में प्रवेश किया। पाटलिपुत्र में फाहियान ने अशोक का राजमहल देखा था। इसकी भव्यता से वह इतना अधिक प्रभावित हुआ कि लिखता है,कि इसका निर्माण दैत्यों द्वारा किया गया था।

यहाँ हीनयान तथा महायानियों के अलग-2 मठ थे। मगध देश का वर्णन करते हुये फाहियान लिखता है, कि मध्य भारत के सभी देशों में यहां सर्वाधिक नगर थे। लोग सुखी एवं समृद्ध थे तथा धर्म एवं कर्त्तव्य पालन में परस्पर स्पर्धा रखते थे। धनपतियों ने यहाँ चिकित्सालय बनवाये थे, जहाँ रोगियों को मुफ्त भोजन तथा दवायें दी जाती थी। इसके बाद फाहियान ने नालंदा, राजगृह तथा बोधगया की यात्रा की और अनेक पवित्र स्तूपों एवं ताम्र विहारों के दर्शन किये। यहाँ से वह पुनः पाटलिपुत्र लौटा तथा वहाँ से चलकर वाराणसी पहुँचा जहाँ उसने सारनाथ स्थित मृगवन तथा दो विहार देखे। इनमें अनेक भिक्षु निवास करते थे। यहाँ से वह पुनः पाटलिपुत्र वापस लौट गया।

पाटलिपुत्र से फाहियान ने अपनी वापसी यात्रा प्रारंभ की। चंपा होता हुआ वह तामलुक (ताम्रलिप्ति) पहुँचा जहाँ एक बंदरगाह था। यहाँ 24 विहार थे। तामलुक में दो वर्षों तक रहकर फाहियान ने बौद्ध सूत्रों की प्रतिलिपियाँ तैयार की तथा बौद्ध प्रतिमाओं के चित्र बनाये। इसके बाद लंका तथा पूर्वी द्वीपों से होता हुआ वह स्वदेश लौट गया।

फाहियान ने भारत में रहकर विभिन्न स्थानों का भ्रमण किया। वह एक बौद्ध था तथा उसने प्रत्येक वस्तु को बौद्ध की दृष्टि से ही देखा। अपनी पूरी यात्रा-विवरण में वह कहीं भी सम्राट का नामोल्लेख नहीं करते। चंद्रगुप्त द्वितीय का काल ब्राह्मण धर्म के चरमोत्कर्ष का काल रहा परंतु दुर्भाग्यवश उसने इस धर्म का विस्तुृत वर्णन नहीं किया है। फिर भी फाहियान के विवरण से चंद्रगुप्तकालीन शांति, सुव्यवस्था, समृद्धि एवं सहिष्णुता आदि की स्पष्ट सूचनायें प्राप्त हो जाती हैं।

Reference : https://www.indiaolddays.com

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