इतिहासराजस्थान का इतिहास

सामंतों से ली जाने वाली सेवाएँ एवं शुल्क

सामंतों से ली जाने वाली सेवाएँ एवं शुल्क – राजस्थान की सामंत व्यवस्था के अन्तर्गत सामंतों के अपने शासकों के प्रति कुछ कर्त्तव्य निर्धारित थे, जिनका पालन करना सामंतों के लिए अनिवार्य था। सामंतों के कुछ महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य निम्नलिखित थे-

सैनिक सेवा

सैनिक सेवा, शासकों और सामंतों के आपसी संबंधों की मुख्य कङी थी। सामंतों का सबसे महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य अपने शासकों को सैनिक सेवा प्रदान करना था, जिसे चाकरी कहा जाता था। सामंतों द्वारा राज्य को दी जाने वाली सैनिक सेवा को मोटे तौर पर दो भागों में बाँटा जा सकता है – एक युद्धकालीन सेवा और दूसरी शांतिकालीन सेवा। जब शासक किसी शत्रु पर युद्ध करने हेतु युद्ध क्षेत्र में उपस्थित होता था तब शासक खास रुक्का प्राप्त कर सभी सामंत अपनी जमीयत (सेना) सहित शासक की सेवा में उपस्थित हो जाते थे। शांति के समय सामंतों को वर्ष में एक बार निश्चित अवधि के लिये, अपनी निश्चित जमीयत के साथ शासक की सेवा में उपस्थित होना पङता था। सामंतों की जमीयत की संख्या जागीर के पट्टे में दर्ज रेख पर आधारित होती थी। जो सामंत बीमारी अथवा अन्य किसी कारण से स्वयं चाकरी हेतु उपस्थित होने में असमर्थ होते, तो उन्हें इसकी सूचना शासक को देनी पङती थी, किन्तु अपनी जमीयत को तो शासक की सेवा में भेजना ही पङता था। चाकरी की निश्चित अवधि समाप्त होने पर, शासक की अनुमति प्राप्त करके ही सामंत अपनी जागीर में जा सकते थे। सैनिक सेवा के संबंध में सभी राज्यों में एक समान नियम नहीं थे। उदाहरणार्थ, जोधपर राज्य में एक हजार रुपये वार्षिक आय पर सामंत को एक घुङसवार, साढे सात सौ की आय पर एक शतुर सवार और पाँच सौ की आय पर एक पैदल सैनिक से राज्य की चाकरी करनी पङती थी। जयपुर राज्य में पाँच सौ की वार्षिक आय पर एक सवार और एक हजार की आय पर एक सवार और एक पैदल के हिसाब से सैनिक सेवा ली जाती थी। उदयपुर में प्रत्येक जागीरदार को प्रति एक हजार की आय पर दो सवार और चार पैदल सैनिकों से वर्ष में तीन महीने के लिये चाकरी देनी पङती थी। बीकानेर में निश्चित नियम का अभाव था। समय-समय पर भिन्न-भिन्न व्यक्तियों को जागीरें देते समय शासक अपनी इच्छानुसार सैनिक सेवा तय कर देते थे। चूँकि जैसलमेर के जागीरदारों को अपनी जागीरों से बहुत कम आय होती थी, अतः उन्हें जागीरों के बदले में सैनिक सेवा नहीं देनी पङती थी और यदि उनसे सैनिक सेवा ली जाती तो राज्य को उनके सैनिकों का वेतन चुकाना पङता था।

ब्रिटिश संरक्षण की स्थापना के बाद शासकों एवं सामंतों में सैनिक सेवा के संबंध में विवाद खङा हुआ। इस विवाद का मूल कारण यह था कि शांति और व्यवस्था के लिये अँग्रेज अधिकारियों के नियंत्रण में मेरवाङा बटालियन स्थापित हो चुकी थी और इन सैनिक बटालियनों का संपूर्ण व्यय संबंधित राज्यों से सख्ती के साथ वसूल किया जाता था। ब्रिटिश संरक्षण की स्थापना के बाद आपसी युद्धों के अंत हो जाने से शासकों को अब अपने सामंतों की सैनिक सेवाओं की उतनी आवश्यकता न रही। सैनिक बटालियनों के लिये नकद रुपया चुकाने के फलस्वरूप राजाओं ने भी अपने सामंतों से सैनिक सेवा के बदले में नकद रुपया वसूल करने का निश्चय किया। इससे दोनों पक्षों में तनाव पैदा हो गया। काफी वाद-विवाद के बाद ब्रिटिश सरकार की मध्यस्थता से समस्या हल हो पाई। परंतु इससे सामंतों की सैनिक शक्ति निर्बल पङ गई।

रेख

सामंतों से राजकीय माँगों का हिसाब रेख के आधार पर किया जाता था। रेख के दो अर्थ देखने में आते हैं। एक अर्थ में रेख का अभिप्राय गाँव की उस अनुमानित वार्षिक आय से था जो कि शासकों द्वारा दिये गये जागीर के पट्टे में दर्ज होती थी, दूसरे अर्थ में रेख का अभिप्राय उस सैनिक कर से था जो राठौङ राज्यों – जोधपुर, बीकानेर और किशनगढ में सैनिक सेवा के अलावा सामंत से लिया जाता था।

वस्तुतः रेख वह मापदंड था जिसके आधार पर जागीरदारों से राजकीय माँगों, जैसे उत्तराधिकार शुल्क, सैनिक सेवा, न्यौता शुल्क आदि का हिसाब-किताब लिया जाता था। यही बात शासकों और सामंतों के आपसी विवाद का कारण भी बनी, क्योंकि पट्टों में दर्ज रेख के अनुमानित आँकङों और गाँव की वास्तविक आय में काफी अंतर आ गया था। जहाँ राजाओं का तर्क था कि वास्तविक आय रेख से काफी अधिक हैं, वहाँ सामंतों को शिकायत थी कि गाँवों की वास्तविक आय रेख से कम है।

जोधपुर राज्य के सामंतों से नियमित सैनिक सेवा के अलावा रेख नामक कर भी लिया जाता था। यह कर सर्वप्रथम1755 ई. में महाराजा विजयसिंह द्वारा लागू किया गया था। इस संदर्भ में रेउ ने लिखा है कि महाराजा विजयसिंह जी ने वि. सं. 1812 में जागीरदारों पर, शाही जजिये और मारवाङ के बाहर के युद्धों में भाग लेने की सेवा के बदले में एक हजार की आमदनी पर तीन सौ रुपयों के हिसाब से मतालबा नामक कर लगाया। चूँकि यह कर जागीर की आय (रेख) के हिसाब से लिया गया था, इसलिए बाद में इसका नाम भी रेख पङ गया। यह रेख न तो नियमित रूप से प्रतिवर्ष वसूल की जाती थी और न इसकी दर निश्चित थी। अलग-अलग राजाओं ने समय-समय पर अलग-अलग दरों के हिसाब से रेख वसूल की। अंत में, 1871 ई. में ब्रिटिश रेजीडेण्ट की मध्यस्थता से दोनों पक्षों में समझौता हो गया और सामंतों ने 80 रु. प्रति एक हजार रुपये आय की दर से नियमित रूप से रेख चुकाना स्वीकार कर लिया।

उत्तराधिकार शुल्क

उत्तराधिकार शुल्क राज्य द्वारा जागीर के नये उत्तराधिकारी से वसूल किया जाता था। इसे अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग नाम से पुकारा जाता था, जैसे कि – हुक्मनामा, पेशकशी, कैद-खालसा, तलवार-बँधाई, नजराना इत्यादि। राजपूत राज्यों में इस प्रथा का विकास मुगल दरबार की देन था।

जोधपुर राज्य में यह शुल्क सर्वप्रथम मोटा राजा उदयसिंह (1583-1595 ई.) ने लागू किया था। उस समय यह शुल्क पेशकशी कहलाता था। जागीरदार की मृत्यु पर उसकी जागीर अस्थायी तौर पर जब्त कर ली जाती थी और मृत जागीरदार के उत्तराधिकारी द्वारा पेशकशी की रकम अदा कर देने पर उसे उस जागीर का नया पट्टा प्रदान किया जाता था। महाराजा सूरसिंह (1595-1619ई.) ने पेशकशी की दर जागीर की रेख के बराबर निश्चित कर दी। महाराजा अजीतसिंह ने इसका नाम हुक्मनामा रखा और इसके साथ तागीरात नामक एक अन्य कर भी जोङ दिया। महाराजा मानसिंह के समय में हुक्मनामा की दर लभग दुगुनी हो गई। 1869 ई. में ब्रिटिश सरकार की मध्यस्थता से नई दर तय की गयी जो जागीर की वार्षिक आय की तीन-चौथाई रखी गयी। यदि जागीरदार को उत्तराधिकार शुल्क की राशि अधिक लगती अथवा किसी कारणवश वह शुल्क अदा करने में सक्षम नहीं हो तो वह अपनी जागीर को एक वर्ष तक खालसा के अन्तर्गत रख कर शुल्क से मुक्त हो जाता था। परंतु चूँकि इससे जागीरदार की प्रतिष्ठा को गहरा धक्का लगता था, अतः वह यह शुल्क चुकाने के लिये विवश हो जाता था।

उदयपुर राज्य में उत्तराधिकार शुल्क की दर निश्चित नहीं थी। अलग-अलग महाराणाओं के समय में भिन्न-भिन्न दरों के हिसाब से यह शुल्क वसूल किया जाता रहा। कर्नल टॉड के समय में जागीर की वार्षिक आय के बराबर वसूल किया जाता था। 1854 ई. में शासक और सामंतों के मध्य प्रस्तावित नये कौलनामा के अन्तर्गत जागीर की कुल वार्षिक आय का तीन-चौथाई भाग उत्तराधिकार शुल्क निश्चित किया गया। आमेट, गोगुन्दा, बनेङा आदि के जागीरदारों से उत्तराधिकार शुल्क के स्थान पर नजराना लेने की प्रथा चली आ रही थी। नये कौलनामा के अन्तर्गत नजराना भी निश्चित कर दिया गया और अब 80 रु. प्रति एक हजार रुपये की वार्षिक आय के हिसाब से वसूल किया जाने लगा।

जयपुर राज्य के सामंतों को उत्तराधिकार शुल्क के रूप में नजराना देना पङता था। बीकानेर में उत्तराधिकार शुल्क जागीर की वार्षिक आय के बराबर लिया जाता था। परंतु जिन जागीरदारों को खिराज से मुक्त रखा गया था, उनसे उत्तराधिकार शुल्क के बदले में नजराना लिया जाता था। यह वार्षिक आय का एक-तिहाई होता था। जैसलमेर के सामंतों को उत्तराधिकार शुल्क के नाम पर कुछ नहीं देना पङता था।

उत्तराधिकार शुल्क वास्तव में जागीर के पट्टे का नवीनीकरण शुल्क था। पट्टे का अर्थ था – शासक द्वारा जागीरदार को जागीरी क्षेत्र से राजस्व वसूली का अधिकार सौंपना। जागीरदार का एक दल जागीर के मुख्य गाँव को भेज दिया जाता था। जब तक उत्तराधिकार शुल्क जमा नहीं करा दिया जाता अथवा जमा करा देने की जमानत नहीं हो पाती, तब तक जागीर जब्त रहती और जब्ती दल का सारा खर्चा जागीरदार को उठना पङता था। यदि जागीरदार को उत्तराधिकार शुल्क अधिक लगता तो उसके बदले में वह एक वर्ष के लिये अपनी जागीर को जब्ती के अन्तर्गत रख सकता था। चूँकि इसे अपमानजनक माना जाता था अतः सामान्यतः कोई भी जागीरदार इसके लिये तैयार नहीं होता था।

अन्य शुल्क

सैनिक सेवा तथा उत्तराधिकार शुल्क के अलावा सामंतों को अन्य अनियमित कर भी चुकाने पङते थे। इन अनियमित करों में मुख्य थे – राजा के राज्याभिषेक के अवसर पर नजराना, राजा और उसके ज्येष्ठ पुत्र के प्रथम विवाह के समय पर नजराना, राजकुमारियों के विवाह पर न्यौता का रुपया, राजाओं की तीर्थ-यात्राओं के समय पर उन्हें भेंट इत्यादि। इन करों की वसूली अलग-अलग शासकों के समय में अलग-अलग दरों से की जाती रही।

जोधपुर राज्य में नये राजा के राज्याभिषेक पर सामंतों को एक हजार की रेख पर 25 रु. के हिसाब से नजराना अदा करना पङता था। उदयपुर में इस अवसर पर बङे-बङे सामंतों को 500 रु. तथा एक या दो घोङे और अन्य सामंतों को एक हजार रुपये की रेख पर 20 रु. के हिसाब से नजराना देना पङता था। शासक और युवराज के प्रथम विवाह पर जोधपुर राज्य में सामंतों से प्रति एक हजार रुपये की आय पर 100 रु. के हिसाब से वसूल किया जाता था जबकि उदयपुर राज्य में यह शुल्क भी राज्याभिषेक की दर से ही वसूल किया जाता था। राजकुमारियों के विवाह के अवसर पर जोधपुर महाराजा तख्तसिंह के शासनकाल तक एक हजार रुपये की रेख पर 40 रु. के हिसाब से सामंतों से न्यौत के रुपये वसूल किये जाते रहे थे। उदयपुर में एक हजार रुपये की वार्षिक आय पर 150 रु. के हिसाब से वसूल किया जाता था। इसके अलावा, इस अवसर पर कुछ सामंतों से घोङों की माँग की जाती थी। उदयपुर में महाराणाओं के तीर्थ यात्रा पर जाने के लिये भी सामंतों से एक हजार वार्षिक आय पर 75 रु. के हिसाब से भेंट वसूल की जाती थी। अन्य राज्यों से भी, मामूली हेर-फेर के साथ सभी कर अथवा शुल्क सामंतों से वसूल किये जाते थे। अंतर इतना ही है कि ब्रिटिश संरक्षण के पूर्व इनकी दरें निश्चित नहीं थी और अब निश्चित हो गयी थी।

दरबार में उपस्थिति

करों की अदायगी के अलावा सामंतों के कुछ अन्य कर्त्तव्यों का भी पालन करना पङता था। उन्हें प्रतिवर्ष एक निश्चित अवधि के लिये अपने राजा के दरबार में उपस्थित रहना पङता था और इस अवधि में राजा की पूर्वानुमति के बिना वे लोग राजधानी नहीं छोङ सकते थे। निश्चित अवधि के अलावा कुछ विशेष अवसरों, यथा – अक्षय तृतीया, दशहरा आदि पर भी सामंतों को दरबार में उपस्थित होना पङता था। राजधानी से शासक की अनुपस्थिति के समय में किसी भी सामंत को रनिवास की देखभाल का काम सौंपा जा सकता था। इसी प्रकार रनिवास की स्रियों के यात्रादि पर जाने पर उनकी सुरक्षा का भार तथा व्यवस्था संबंधी काम भी किसी न किसी सामंत को करना पङता था। सामंतों के असंतोष का सबसे बङा कारण यह था कि उन्हें स्वयं अपने पुत्र-पुत्रियों का विवाह करने से पूर्व शासक को इसकी सूचना देनी पङती थी। इसी प्रकार, सामंतों को नया दुर्ग अथवा परकोटा बनाने के लिये भी शासक से पूर्व अनुमति लेनी पङती थी।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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