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लुई फिलिप का शासन और फ्रांस में1848 की क्रांति

लुई फिलिप का शासन और फ्रांस में1848 की क्रांति

लुई फिलिप 1830 की क्रांति के परिणामस्वरूप फ्रांस का शासक बना था।लुई फिलिप ने अपने शासन काल में सभी पक्षों को संतुष्ट रखने का प्रयास किया, किन्तु फिर भी उसकी कुछ कठिनाइयाँ और गृह तथा विदेश नीति की दुर्बलताएँ अंत में उसके पतन और 1848 की क्रांति का कारण बन गई।

लुई फिलिप

लुई फिलिप की कठिनाइयाँ

लुई फिलिप की स्थिति प्रारंभ से ही बङी नाजुक थी। संवैधानिक दृष्टि से उसके अधिकार कमजोर थे, क्योंकि उसका निर्वाचन जनता द्वारा नहीं हुआ था, बल्कि निम्न सदन द्वारा हुआ, जिसके 430 सदस्यों में से 219 सदस्यों ने ही उसके पक्ष में मत दिया था। उसे राजा बनाने के प्रश्न पर जनता से कोई राय नहीं ली गयी थी।

निम्न सदन द्वारा राजा चुनने का अधिकार भी संदिग्ध था, क्योंकि चार्ल्स दशम ने निम्न सदन को भंग कर दिया था। इसके अलावा अनेक राजनैतिक दल उसके विरोधी थे।

लुई फिलिप की मध्यममार्गी नीति

लुई फिलिप ने जब शासन कार्य आरंभ किया, उस समय उसके समर्थकों में दो विचारधाराओं के लोग थे। एक तो प्रगतिवादी थे, जो क्रांति के बाद कुछ और सुधार करने तथा उग्र विदेश नीति अपनाने के समर्थक थे। इसके विरुद्ध रूढिवादी थे, जिनका विश्वास था, कि क्रांति के बाद स्थापित वैधानिक व्यवस्था में सुधार करना आवश्यक नहीं है।

लुई फिलिप ने प्रगतिवादी तथा रूढिवादी, दोनों विचारधाराओं के मध्य न्यायसंगत मध्यम मार्गी नीति का अवलंबन किया, जिसे स्वर्णिम मध्यम मार्गी नीति भी कहा जाता है।

लुई फिलिप की गृह नीति

लुई फिलिप केवल वैध राजसत्तावादियों एवं उच्च मध्यम वर्ग के समर्थन पर निर्भर था, किन्तु वह अपनी इच्छानुसार अपना मंत्रिमंडल बदलता रहा। कभी वह प्रगतिवादी दल का मंत्रिमंडल बनाता तो कभी रूढिवादी दल का। यदि किसी कारण से कोई मंत्रिमंडल उसकी नीति से सहमत नहीं होता तो उसे हटा देता।

इस प्रकार धीरे-धीरे वह स्पष्ट रूप से स्वेच्छाचारी बनता रहा। वह स्वयं को केवल वैधानिक शासक नहीं बनाना चाहता था, वरन् वह स्वयं शासन करना चाहता था, अतः वह नहीं चाहता था, कि उसके मंत्री अपने कार्यों में स्वतंत्र रहें।

लुई फिलिप

अगस्त 1830 में ड्यूक डी ब्रोकली के नेतृत्व में मंत्रिमंडल बना। अक्टूबर, 1830 में पेरिस में दंगा हो गया, क्योंकि जनता पुराने मंत्रियों को दंड देने तथा हालैण्ड के विरुद्ध बेल्जियम की सहायता करने की माँग कर रही थी। मंत्रिमंडल इस दंगे के विरुद्ध दमनकारी नीति अपनाना चाहता था, किन्तु लुई फिलिप तैयार नहीं हुई। अतः ब्रोगली ने त्यागपत्र दे दिया।

लुई फिलिप की विदेश नीति

लुई फिलिप की विदेश नीति शांतिपूर्ण थी। युद्ध से बचने के लिये उसने कई बार समझौतावादी नीति अपनाई। ब्रिटेन के साथ मित्रतापूर्ण सहयोग लुई फिलिप की विदेश नीति का महत्त्वपूर्ण अंग था, क्योंकि रूस और आस्ट्रिया को फ्रांस के नए राजतंत्र में विश्वास नहीं था। इसके विपरीत फ्रांस की जनता गौरवपूर्ण एवं क्रियाशील नीति चाहती थी। लुई फिलिप में नेपोलियन की तरह योग्यता नहीं थी, जो जन आकांक्षाओं की पूर्ति कर सके। उसने बेल्जियम, पोलैण्ड, इटली, मिस्त्र, स्पेन और स्विट्जरलैण्ड के प्रति जो नीति अपनाई, उससे फ्रांस की जनता अत्यधिक रुष्ट हो गयी।

बेल्जियम का मामला

अक्टूबर, 1830 में बेल्जियम में क्रांति हो गई थी। फ्रांस की जनता बेल्जियम की स्वतंत्रता की समर्थक थी, अतः तेलेरां को इंग्लैण्ड भेजकर, ब्रिटेन व फ्रांस के सहयोग का प्रस्ताव रखा। जिसे ब्रिटेन ने स्वीकार कर लिया। उसके बाद लंदन में पाँच बङे राज्यों – रूस, प्रशा, आस्ट्रिया, ब्रेटिन और फ्रांस का सम्मेलन हुआ।

जिसमें बेल्जियम की स्वतंत्रता को स्वीकार कर लिया गया, किन्तु जब लुई फिलिप के द्वितीय पुत्र को बेल्जियम का शासक चुना गया तो ब्रिटेन के विदेश मंत्री पामर्सटन ने इसका विरोध किया। तब बेल्जियम की गद्दी ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया के चाचा लियोपाल्ड को प्राप्त हुई।

फ्रांस की जनता उससे क्रुद्ध हो गई, क्योंकि उनकी दृष्टि में यह एक अक्षम्य अपराध था। 1839 में फ्रांस और ब्रिटेन की संयुक्त कार्यवाही के कारण हालैण्ड को झुकना पङा तथा बेल्जियम एक स्वतंत्र राज्य बन गया।

पोलैण्ड और इटली की क्रांतियाँ

लुई फिलिप के समय पोलैण्ड में क्रांति हो गयी। फ्रांस की जनता पौलैण्ड के क्रांतिकारियों को सहायता देने के पक्ष में थी, लेकिन लुई फिलिप रूस को अपना शत्रु नहीं बनाना चाहता था, अतः उसने पोलैण्ड को कोई सहायता नहीं दी।

इसी प्रकार इटली की क्रांति के समय भी लुई फिलिप ने जन इच्छा के विरुद्ध इटली को कोई सहायता नहीं दी, क्योंकि इटली को सहायता देकर वह आस्ट्रिया से संघर्ष करना नहीं चाहता था।

मिस्त्र का मामला

मिस्त्र के पाशा मेहमत अली ने यूनान के विद्रोह को दबाने के लिये टर्की के सुल्तान महमूद द्वितीय को मदद दी थी, जिसके परिणामस्वरूप उसे क्रीट का द्वीप प्राप्त हुआ था। मेहमतअली अत्यन्त ही महत्वाकांक्षी था तथा वह दमिश्क तथा सीरिया पर भी अधिकार करना चाहता था।

1831 में मेहमतअली के पुत्र इब्राह्मीम ने सीरिया पर आक्रमण कर दिया तथा सुल्तान की सेनाओं को परास्त करता हुआ कुस्तुनतुनिया की ओर बढ गया। सुल्तान ने अन्य यूरोपीय राष्ट्रों से सहायता देने की प्रार्थना की।

इंग्लैण्ड व फ्रांस इस समय बेल्जियम में उलझे हुये थे, अतः रूस ने अपनी सेनाएँ भेज दीं, किन्तु फ्रांस और इंग्लैण्ड रूस के इस हस्तक्षेप से चिन्तित हो उठे तथा फ्रांस ने मेहमतअली को टर्की के सुल्तान की शर्तें स्वीकार करने का सुझाव दिया, किन्तु उसने अस्वीकार कर दिया। अंत में इंग्लैण्ड व फ्रांस ने टर्की के सुल्तान पर दबाव डालकर दोनों पक्षों में संधि करवा दी तथा मेहमतअली को सीरिया, दमश्कि व फिलिस्तीन दिलवा दिये।

यद्यपि टर्की के सुल्तान ने दबाव में आकर सीरिया आदि क्षेत्र मेहमतअली को दे दिये गये थे, किन्तु वह इन क्षेत्रों को पुनः प्राप्त करना चाहता था। अतः अप्रैल, 1839 में सुल्तान ने सीरिया पर आक्रमण कर दिया, किन्तु उसे परास्त होना पङा।

जुलाई, 1839 को सुल्तान महमूद की मृत्यु हो गयी तथा उसके स्थान पर 16 वर्षीय अब्दुल मजीद सुल्तान बना, जिससे टर्की की स्थिति और भी दयनीय हो गयी। इधर रूस मेहमतअली की बढती हुई शक्ति से चिन्तित था तथा उसने इंग्लैण्ड से मिलकर उसकी शक्ति को रोकने का निश्चय किया।

दूसरी ओर फ्रांस की जनता मेहतअली को सहायता देने के पक्ष में थी। 1840 में रूस, प्रशा, आस्ट्रिया और इंग्लैण्ड ने मिलकर लंदन में एक समझौता किया, जिसके अनुसार मेहमत अली को टर्की के सुल्तान से समझौता करने हेतु बाध्य किया। इस सम्मेलन में फ्रांस को आमंत्रित नहीं किया गया, अतः फ्रांसीसी जनता ने इसे राष्ट्रीय अपमान समझा और युद्ध की माँग करने लगी।

फ्रांस के मंत्री थीयर्स ने इंग्लैण्ड को धमकी भी दी, किन्तु इस धमकी का उस पर कोई प्रभाव नहीं हुआ। इंग्लैण्ड ने जहाजी बेङा भेजकर मेहमतअली को अनेक स्थानों पर पराजित किया तथा 1841 में उसे लंदन की संधि स्वीकार करने के लिये बाध्य होना पङा।

स्विट्जरलैण्ड का गृह युद्ध

वियना कांग्रेस ने स्विट्जरलैण्ड में फ्रांस के तीन अतिरिक्त केण्टन जोङकर 22 केण्टनों का एक शिथिल संघ बना दिया था। इन विभिन्न केण्टनों में धार्मिक मतभेद भी थे।

स्विट्जरलैण्ड के सात केण्टन कैथोलिक थे, जबकि शेष प्रोटेस्टेण्ट थे। 1845 में कैथोलिक केण्टनों ने सौदरबंद नामक एक संघ बनाया। तथा उदारवादी प्रोटेस्टेण्ट केण्टनों के विरुद्ध संघर्ष छेङ दिया।

सौदरबंद को आस्ट्रिया का समर्थन प्राप्त था, क्योंकि मेटरनिख उदारवाद के प्रवाह को कुचलना चाहता था। रूस और प्रशा मेटरनिख के पक्ष में थे तथा फ्रांस जो ब्रिटेन से अपने संबंध बिगाङ चुका था, मेटरनिख का समर्थन करने लगा।

ब्रिटेन ने उदारवादी केण्टनों का समर्थन किया तथा अपनी कूटनीति से बङे राज्यों को सौदरबंद की सहायता नहीं करने दी, अतः सौदरबंद परास्त हुआ। लुई फिलिप द्वारा प्रतिक्रियावादी केण्टनों को सहायता देना फ्रांस के उदारवादियों को पसंद नहीं आया।

1. पुस्तक- आधुनिक विश्व का इतिहास (1500-1945ई.), लेखक - कालूराम शर्मा

Online References
Wikipedia : Louis Philippe I

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