इतिहासमध्यकालीन भारत

अफगान मुगल संबंध कैसे थे | Aphagaan mugal sambandh kaise the | How were afghan mogul relations

अफगान मुगल संबंध कैसे थे

अफगान मुगल संबंध – विलियम एर्सकाइन के शब्दों में लोदी साम्राज्य लगभग स्वतंत्र रियासतों, जागीरों और प्रदेशों का गठजोङ था… उनके निवासी दूर रहने वाले और अल्पज्ञात सुल्तान की बजाय अपने सूबेदार की तरह ही ज्यादा देखते थे जिसके हाथों में उनका सुख या तकलीफें थी। बाहरी तौर पर लोदी वंश का शासन पुख्ता लगता था। लेकिन अफगान अमीरों ने अपना प्रभाव देश के विभिन्न भागों में फैला दिया था। आंतरिक रूप से लोदी वंश कुछ जन्मजात खामियों से ग्रस्त था जो उनके ढाँचे में बढती रहीं और इब्राहीम लोदी के समय वह अंतिम रूप से ढह गया।

अफगान मुगल संबंध

बहलोल लोदी ने जब सैयद शासक आलम शाह से दिल्ली का तख्त जीता तो हिंदुओं और गैर-मुस्लिमों के विरोध का मुकाबला करने के लिये उसने खोखरों की दोस्ती हासिल करने की कोशिश की। उसने रोह (पूर्वी अफगानिस्तान) के अफगानों को नियंत्रण भेजा। बहलोल ने उनसे कहा, प्रभुसत्ता नाम के लिये जरूर मुझमें निहित रहेगी लेकिन हम जो भी देश जीतेंगे, उनमें भाईयों के समान हिस्सेदारी रहेगी। बहलोल के आमंत्रण पर अफगानों के आगमन का उल्लेख फारसी इतिहासकारों ने चीटिंयों और टिड्डियों के दलों की बाढ कहकर किया है।

ये सभी अफगान कबीलों के संगठन के सिद्धांत से जुङे थे और राजाशाही की संस्था के लिए उनके मन में कोई खास इज्जत नहीं थी। सुल्तान बराबरी के लोगों में से ही एक था और इसलिए मालिक और नौकर की कल्पना इन लोगों को मंजूर नहीं थी। इसलिए बहलोल अपने उमरावों से व्यवहार में सतर्क था। उसने विनम्रता का दिखावा और जमीन तथा दौलत का दरियादिली से बँटवारा करके इन लोगों को पटा लिया। इस प्रकार के कदमों से एक ओर अगर बहलोल को वफादारी के व्यक्तिगत बंधन के कारण तख्त पर अपना कब्जा बनाए रखने में मदद मिली तो दूसरी ओर एक अरसे बाद इस बात से राजवंश के लिये ही समस्याएँ उठ खङी हुई।

इतना ही नहीं, सिकंदर एक कदम और आगे बढा। उसने सुल्तान की प्रतिष्ठा धारण की और उमरावों के विशेषाधिकारों की हदबंदी कर दी। उमरावों पर उसने और सख्त अनुशासन लागू किया। उसने वित्त-विभाग को भी और अधिक कुशलता से संगठित करके इस बात का प्रावधान किया कि जिन लोगों के पास जागीरें हैं वे अपना हिसाब-किताब जाँच के लिये भेजे। लेकिन सिकंदर भी बहलोल के काम को पूरी तरह मिटा नहीं सका और उसकी बादशाहत तुर्कों के एकछत्र शासन और बहलोल की कबीलों के संगठन जैसी व्यवस्था के बीच की चीज बनी रही।

इब्राहीम लोदी ने बहलोल के आदर्शों को पूरी तरह उलट दिया जब उसने घोषणा की कि राजशाही में कुनबापरस्ती की कोई जगह नहीं है। अफसरशाही को तुर्क आदर्शों के करीब पहुँचाने की प्रक्रिया को गति दी गयी। उमरावों से अपने व्यवहार से उसने उन लोगों के प्रति कोई सम्मान प्रदर्शित नहीं किया और वह कठोरता से पेश आया।

इससे सुल्तान और उमरावों के संबंध तनावपूर्ण हो गए। इस बारे में कुछ थोङे से उदाहरण ही काफी हैं, जैसे क.) आजमाँ हुमायूँ शेरवानी ने इब्राहीम और जलाल खाँ के बीच साम्राज्य के बँटवारे का समर्थन किया था और फिर जलाल खाँ का पक्ष लेता रहा था। बाद में उसने पक्ष बदला और वफादारी से इब्राहीम की सेवा करता रहा।

इसके लिये इनाम में उसे कङा की सूबेदारी दी गयी। लेकिन बाद में हम देखते हैं कि इस उमराव को इब्राहीम ने ग्वालियर में बंदी बनाकर रखा और कैद में ही उसकी मृत्यु हो गयी। उसके पुत्र इस्लाम खाँ ने इब्राहीम के खिलाफ बगावत कर दी थी। ख.) बिहार के सूबेदार मियाँ हुसैन फारमुली को राणा साँगा के खिलाफ अभियान में एक काफी कनिष्ठ व्यक्ति मियाँ माखन की कमान में भेजा गया था। जब अफगानों की हार हो गयी तो मियाँ माखन ने दोष मियाँ हुसैन फारमुली के सिर मढ दिया और सुल्तान ने उसकी गिरफ्तारी का हुक्म जारी कर दिया।

मियाँ हुसैन फारमुली राणा के शिविर में चला गया। बाद में उसे क्षमा देकर चंदेरी उसके सुपुर्द कर दिया गया लेकिन वहाँ सुल्तान ने उसे मरवा डाला। ग.) मियाँ भूआ सिकंदर लोदी का वजीर था। वह बूढा हो गया था और उसकी आँखों की रोशनी जाती रही थी। उस पर हुक्मउदूली और सुल्तान की समुचित इज्जत न करने का जुर्म लगाया गया और उसे जेल में डाल दिया जहाँ उसकी मौत हो गयी। घ.) दौलत खाँ लोदी पंजाब का सूबेदार था।

उसे दरबार में बुलाया गया था लेकिन तबीयत ठीक न होने की वजह से उसने अपने पुत्र दिलावर खाँ को भेज दिया था। दिलावर खाँ से बुरा व्यवहार किया गया। उसे जेलखाने में घुमाया गया और चेतावनी दी गयी कि सुल्तान का हुक्म न मानने वालों पर क्या गुजर सकती है। कहा जाता है कि इसी दौलत खाँ ने इब्राहीम लोदी के खिलाफ बाबर को आमंत्रित किया था।

इस तरह सुल्तान ने अपनी हैसियत मजबूत करने और सरकार के केंद्रीकरण की जितनी कोशिश की उतनी ही उसके और उमरावों के बीच खाई बढती गयी और चूँकि अफगान सरकार विभिन्न जागीरों और प्रदेशों के ढीले-ढाले संघ से ज्यादा कुछ नहीं थी, इसलिए वह इस खाई से उबर नहीं सकी। किंतु पतनोन्मुख सल्तनत की इस पृष्ठभूमि में थी राणा साँगा (राणा संग्राम सिंह) की उत्तरी भारत का शासक बनने की बढती हुई महत्वाकांक्षा।

दिल्ली का साम्राज्य भ्रम के जाल में फँसा था। वह शक्तिशाली लोगों का शिकार बन चुका था। ऐसे में राणा की पुरानी सफलताएँ और भारी ताकत देखते हुए उचित ही था कि लोदियों की खाली गद्दी पर अपने को आसीन करने की उसकी उम्मीदें बलवती हो उठे। इससे ज्यादा तर्कसंगत और गौरवपूर्ण थी उसकी यह इच्छा कि अफगान और तुर्क, दोनों ही आक्रांताओं को भारत से निकाल बाहर करे और हिंदू राजवंशों की पुनः स्थापना करके देशी संस्थाओं को सक्रिय करे। यही इरादा था राणा साँगा के दिमाग में जब उसने बाबर को भारत आमंत्रित किया।

जियाउद्दीन मुहम्मद बाबर का जन्म 14 फरवरी, 1483 को उमर शेख मिर्जा और कुतलुक निगार के पुत्र के रूप में हुआ था। मुसीबत के दिनों को अगर महानता की सच्ची पाठशाला माना जाए तो बाबर ने भी अपनी जिंदगी के अच्छे-बुरे अवसरों से भरपूर शिक्षा ग्रहण की थी। जब बाबर बारह वर्ष का हो गया, तो उसके पिता का देहांत हो गया (1494 ई.) और अब फरगाना का राज्य चलाने की जिम्मेवारी उस पर आ पङी।

बाबर को नजर हमेशा अपने पूर्वजों की भूमि समरकंद पर लगी रही जहाँ उसका चाचा अहमद मिर्जा राज कर रहा था। किंतु समरकंद पर कब्जा करने के बारे में बाबर तभी सोच सका जब मिर्जा की मृत्यु हो गयी। उसने सन् 1496 ई. और 512 ई. के बीच समरकंद पर बार-बार हमले किए और इस प्रक्रिया मे समरकंद हाथ आने की तो बात तो दूर रही, फरगाना भी उसके हाथ से निकल गया।

जुलाई 1496 में उसकी पहली कोशिश नाकाम रही। दूसरी कोशिश में उसका समरकंद पर कब्जा कुल सौ दिन तक ही चल सका। इस बीच फरगाना में बगावत हो गयी और जब बाबर वहाँ लौटा तो फरमाना हाथ से निकल चुका था। बाबर अब खानाबदोश हो गया था। अपने संस्मरणों में उसने लिखा है कि 11 वर्ष का होने के बाद उसने कभी रमजान का त्यौंहार एक ही जगह दो बार नहीं मनाया। फरिश्ता लिखता है कि, किस्मत के हाथ गेंद बना वह शतरंज के बादशाह जैसा एक से दूसरी जगह भागता और समुद्र के किनारे पङे कंकङ के समान दक्करें खाता रहा।

सन् 1498 में बाबर ने फरगाना जीत लिया, लेकिन 1500-1501 में वह फिर हाथ से निकल गया। उसने समरकंद को भी दूसरी बार जीता किंतु सरायपूल के उजबेग सरदार शैबानी खाँ के हाथों उसे पराजित होना पङा। सन् 1502 में बाबर फिर भगोङा बन चुका था। दो साल बाद उसे उलूग बेग मिर्जा के नाबालिग बेटे के हाथ से काबुल छीनने में सफलता मिली। सन् 1507 में उसने पादशाह की पदवी ग्रहण की और उसके खानाबदोशी के दिन खत्म हुए।

यद्यपि समरकंद से उसका लगाव अब भी खत्म नहीं हुआ था और वह शैबानी खाँ का तख्ता उलटने के लिये मौके का इंतजार कर रहा था। सन् 1510 में फारस के शासक शाह इस्माइल और शैबानी खाँ के बीच मर्व में युद्ध हुआ जिसमें शैबानी हार गया और उसकी ताकत काफी कमजोर हो गयी। अब बाबर ने फारस से मदद लेनी चाही। उसे इस शर्त पर मदद का आश्वासन दिया गया कि वह शाह के नाम पर खुतबा पढाएगा, शाह के नाम पर सिक्के जारी करेगा और शियावाद का प्रचार करेगा। बाबर की इन शर्तों से सहमति हो जाने पर उसे मदद दी गयी और वह समरकंद पर कब्जा करने में फिर सफल हो गया।

जब बाबर ने अपने वायदे पूरे करने में ढीला रुख अपनाया तो फारसी शिविर से उशका अलगाव हो गया। दूसरी ओर फारस से मदद लेने के कारण स्थानीय लोगों से उसका अलगाव पहले हो चुका था। इस स्थिति में बाबर को समरकंद छोङकर भागना पङा। यह उसकी आखिरी कोशिश थी। इसके बाद वह बराबर समरकंद पर कब्जे का सपना भले ही देखता रहा हो किंतु उस पर आक्रमण फिर कभी नहीं कर पाया। मध्य एशिया में नाकाम रहने के बाद ही उसका ध्यान भारत की ओर आकर्षित हुआ।

बाबर ने भारत पर कितने हमले किए, इस विषय में पर्याप्त मतभेद हैं। पानीपत के बाद सन 1526 में लिखते हुए उसने कहा कि काबुल पर कब्जा करने (1505 ई.) के बाद से ही उसकी आकांक्षा भारत पर हमला करने की रही लेकिन उसे पहला मौका सन् 1519 में ही मिल पाया। जल्दी ही 925 हिज्र (1519 ई.) में फौज लेकर रवाना हुआ और बाजौर पर कब्जा करके शुरुआत कर दी। इस वक्त से लेकर 932 हिज्र (1526 ई.) तक मैं हमेशा हिंदुस्तान के मामलों के बारे में सक्रिय दिलचस्पी लेता रहा। सात या आठ सालों के अरसे में मैं खुद फौज लेकर पाँच बार वहाँ गया।

अबुलफजल भी पाँच हमलों की बात कहता है किंतु 1505 और 1507 ई. के नाकाम हमलों को पहला और दूसरा मानता है और जनवरी 1519 के हमले को तीसरा। उसने चौथे हमले के बारे में कोई जानकारी नहीं दी और पाँचवें की परिणति पानीपत की लङाई (21 अप्रैल, 1526 ई.) में हुई।

जनवरी, 1505 ई. में बाबर ने कोहात और मुल्तान में तारबिला पर कब्जा किया और लौट गया। इस अभियान में उसने सिंधु नदी पार नहीं की। सन 1507 में वह मंद्रावर तक बढ आया लेकिन अपने अधिकारियों के बीच सहमति न होने के कारण उसे लौट जाना पङा। जनवरी, 1519 ई. में उसने बाजौर पर कब्जा किया और वहां के मुखियायों में से एक की पुत्री से विवाह करके यूसुफ भाइयों से संधि कर ली। इसके बाद भीरा पर हमला किया।

जहाँ अली खाँ सूबेदार था। वहाँ उसने लोगों से फिरौती के रूप में भारी दौलत वसूल की। भीरा से उसने मुल्ला मुर्शिद को दूत बनाकर इब्राहीम के दरबार में इस संदेश के साथ भेजा कि इब्राहीम पश्चिम पंजाब के हिस्से उसके हवाले कर दे। लेकिन दौलत खाँ लोदी ने इस दूत को जाने नहीं दिया। जनवरी 1520 में बाबर ने फिर, सियालकोट और सैयदपुर पर हमला किया किंतु शाह बेग अर्गुन के काबुल पर चढ जाने के कारण उसे जल्दबाजी में लौट जाना पङा।

बाबर सन् 1524 में पंजाब के उमरावों के बुलावे पर फिर भारत आया। ये अफगान उमराव इब्राहीम के शासन से त्रस्त थे तथा वे आलम खाँ लोदी का पक्ष लेने लगे थे जो बहलोल लोदी के पुत्रों में से एक था। आलम खाँ लोदी ने संभवतः बाबर से मुलाकात भी की थी। बात चाहे जो हो, दौलत खाँ के पुत्र दिलावर खां को इस निमंत्रण के सात बाबर के पास भेजा गया कि वह भारत पर आक्रमण करे।

उसे बताया गया कि इब्राहीम जालिम और उसे हटाना जरूरी है। उसकी जगह आलम खाँ दिल्ली की गद्दी पर आ जाए तो वह बाबर का दोस्त बना रहेगा और उसकी इज्जत करता रहेगा। बाबर ने भाँप लिया कि अफगानों के बीच एकता नहीं है और मौका आ गया है कि पूर्व की ओर कूच का महत्वाकांक्षी अभियान छेङ दिया जाए।

तारीख के बारे में निश्चयपूर्वक भले ही न कहा जा सके पर यही वह समय था जब बाबर को राणा साँगा से भी आमंत्रण मिला। इस आमंत्रण का उल्लेख केवल बाबर ने ही किया है और अन्य किसी भी साक्ष्य से इसकी पुष्टि नहीं होती। बाबरनामा के अनुसार राणा ने इस योजना के प्रयोजन और अपनी शुभकामनाओं का यकीन दिलाने के लिये एक दूत भेजा था। कहा था कि उस तरफ से हूजूर पादशाह दिल्ली के करीब आ जाएँ इस तरफ से मैं आगरा की ओर बढ जाउँगा।

उसी साल (1524 ई.) बाबर पंजाब आया। पंजाब के अफगान विद्रोहियों के खिलाफ इब्राहीम लोदी ने एक सेना बिहार खान, मुबारक खाँ लोदी और भिकम खाँ नूहानी के नेतृत्व में भेजी थी। उसे लाहौर पर कब्जे में सफलता भी मिल गयी थी। दौलत खाँ शहर छोङकर भाग गया था। फिर भी शाही सेनाओं की यह सफलता अल्पजीवी थी। जल्दी ही बाबर ने इब्राहीम की सेना को हरा दिया और लाहौर और दीपालपुर पर कब्जा कर लिया।

दीपालपुर में ही दौलत खाँ लोदी बाबर से मिला। दौलत खाँ को जालंधर, सुल्तानपुर और कुछ अन्य जिलों का सूबेदार बना दिया गया लेकिन उसकी महत्वाकांक्षा इतने से संतुष्ट नहीं हुई। आलम खाँ को दीपालपुर दे दिया गया। बाबर ने लौटने का फैसला किया ही था कि दौलत खाँ न तय किया कि बाबर की सेना को बाँटकर नष्ट कर दिया जाए। लेकिन दिलावर खाँ ने समय रहते इस योजना की खबर बाबर को दे दी और दौलत खाँ लोदी अपने एक और पुत्र गाजी खाँ के साथ गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन वह काबुल के रास्ते में (नौशेरा में) छोङ दिया गया।

दोलत खाँ ने अब दिलावर खाँ को बंदी बना लिया और आलम खाँ को दीपालपुर से निकाल बाहर किया। साथ ही उसने पंजाब में बाबर द्वारा अधिकृत प्रदेशों के विरुद्ध आक्रामक नीति अपनाई। इसके बाद आलम खाँ बाबर के पास पहुँचा और उसने कहा कि यदि बाबर दिल्ली की राजगद्दी पर बैठाने में उसकी सहायता करे तो उसे वह पुरा पंजाब सौंप देगा।

बाबर नवंबर 1526 ई. में काबुल से चला। आगे चलकर बदख्शाँ से हुमायूँ के नेतृत्व में और गजनी से ख्वाजा कलाँ के नेतृत्व में आई अतिरिक्त मुगल सेनाएँ भी उससे जा मिली। दौलत खाँ लोदी को अपनी ओर मिला लेने की इब्राहीम लोदी की सारी कोशिशें इस बीच असफल हो चुकी थी। दौलत खाँ को (जो मलोन के किले में छुप गया था। बाबर के आगे ) आत्मसमर्पण करके बेइज्जती सहने के लिये विवश कर दिया गया। अवसर पाकर उसका पुत्र गाजी खाँ भाग निकला और इब्राहीम लोदी से मिल गया। दिलवार खाँ बाबर के साथ था। पानीपत के मैदान में चढाई से पहले बाबर की सेनाओं को लोदियों से कुछ छोटी-मोटी लङाइयाँ लङनी पङी।

नवंबर 1525 में जब बाबर भारत के अपने आखिरी अभियान पर रवाना हुआ था तो उसे विश्वास था कि उसे इब्राहीम लोदी के एक प्रमुख और सबसे शक्तिशाली दुश्मन अर्थात् राणा साँगा का समर्थन प्राप्त है। यह भी पहले कहा जा चुका है कि कुछ इतिहासकारों के मतानुसार राणा साँगा ने ही बाबर को भारत पर आक्रमण के लिए निमंत्रण दिया था। बाबर के आक्रमणों के संबंध में हमारी जानकारी का प्रमुख स्त्रोत बाबरनामा है।

लेकिन जी.एन.शर्मा ने अपने ग्रंथ मेवाङ और मुगल सम्राट में राणा साँगा द्वारा बाबर को भेजे गए तथाकथित आमंत्रण की प्रामाणिकता पर संदेह व्यक्ति किया है। उनके अनुसार उक्त विचार के विपरीत स्वयं बाबर ने ही राणा साँगा को शक्तिशाली समझते हुए उसकी मित्रता और सहायता प्राप्त करने के लिये अपने दूत को चित्तौङ भेजा था। आमंत्रण से संबंधित छानबीन विषयक विवाद में उलझे बिना हसन खाँ मेवाती की कथा और बाबरनामा से प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर इतना निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि दोनों शासकों के बीच किसी प्रकार की पूर्व सहमति हो गयी थी।

संभवतः तय यह हुआ था कि जब बाबर पश्चिमोत्तर दिशा से इब्राहीम लोदी पर हमला करेगा तो उसे विचलित करने के लिये राणा साँगा आगरा पर आक्रमण कर देगा। इस तरह के समझौते से बाबर को मदद मिली क्योंकि वह आश्वस्त हो गया कि राजपूतों के शस्त्रास्त्र अब अफगानों का साथ नहीं देंगे। राणा साँगा सोचता था कि योजना का लाभ उसे इस तरह मिलेगा कि हमेशा की तरह इस बार भी बाबर लोदियों को हराकर और राज्य को लूटकर वापस चला जाएगा।

फिर उसे अपनी मनचाही बात का करने का मौका मिलेगा। लेकिन जब राणा साँगा ने बाबर के इन असली इरादों को समझा कि पंजाब के विद्रोहियों को उसने कैसे प्रभावशाली तरीके से काबू में किया है तो उसे अपनी स्थिति आगे चलकर स्पष्ट हो गयी। यही वजह थी कि राणा ने इब्राहीम लोदी पर कोई भारी आक्रमण नहीं किया। यही नहीं, पानीपत के बाद उसने बाबर के दुश्मनों से मिल जाने की कोशिशें भी की और इससे बाबर को राणा पर आक्रमण का बहाना मिला।

बाबर 1526 ई. में जब काबुल से चला था तो समझ रहा था कि संधि हो गयी और वह हिंदुस्तान को जीतने के लिये पूरी तरह से तैयार था। पानीपत के मैदान में आमने सामने आने से पहले इब्राहीम और बाबर की सेनाओं की अगली टुकङियों के बीच कुछ छिट – पुट मुठभेङ हुई। हुमायूँ ने हिसार-फिरोजा के सूबेदार हमीद खाँ को हराया। लेकिन बिव्ब जिलवानी के नेतृत्व में इब्राहीम के कुछ उमराव बाबर से जा मिले। मेहँदी ख्वाजा, मुहम्म सुल्तान मिर्जा और अन्यों के नेतृत्व में बाबर की सेनाओं ने दाऊद खाँ और हातिम खाँ के नेतृत्व में आई इब्राहीम की सेना को हरा दिया।

लाहौर से पानीपत तक बाबर का अभियान तेज गति से चला। उसे कई लोदी चौकियों पर कब्जा करने में सफलता मिली। 12 अप्रैल, 1526 को वह पानीपत पहुँचा जहाँ इब्राहीम पहले से ही डेरा डाले हुआ था। इब्राहीम लोदी तेज गति से चलने वाली और सुसंगठित मुर सेना को देखकर घबरा गया। इब्राहीम लोदी ने भारत के राजसी तरीके से लङाई के लिए कूच किया था अर्थात् दो तीन मील तक कूच करता था और फिर दो दिन तक अपनी सेनाओं के साथ आराम करता था। उसका फौजी खेमा एक चलते-फिरते अव्यवस्थित शहर की तरह था।

लङाई में शामिल सेनाओं की तादाद के बारे में थोङा बहुत विवाद है। बाबर के संस्मरणों में उसकी सेना की कोई निश्चित संख्या नहीं दी गयी है। अबुल फजल का कहना है कि उसमें 12,000 घुङसवार थे। लेकिन इतिहासकार सरकार बताते हैं कि इस सेना में बाबर के पैदल-तोपची, उसके भारतीय मित्रों की सेनाएँ, अफगान सैनिकों के झुंड और भारतीय धन दौलत के लालच में आए किराए के तुर्की सैनिकों के समूह भी शामिल थे।

वोल्जले हेग बाबर की सेना में 25,000 की संख्या बताते हैं। इब्राहीम लोदी की सेना के आँकङे भी अतिश्योक्तिपूर्ण है जो उसकी सेना में एक लाख सैनिक एवं एक हजार हाथियों की संख्या बताते है। जदुनाथ सरकार ने संदेह व्यक्त किया है कि सालों तक गृहयुद्ध और स्थानीय विद्रोहों में फँसे रहने के बावजूद क्या इब्राहीम के पास इतना पैसा था कि इब्राहीम लोदी पैसे देने में इतना कंजूस था कि वह किराए के सैनिकों को अपनी सेना में भरती कर अपनी ताकत बढाना चाहता था, पर यह संभव नहीं हो सकता था। (बाबर ने जिसे इब्राहीम की कंजूसी बताया वह असल में इब्राहीम का आर्थिक दिवालियापन था)।

जदुनाथ सरकार ने अनुमान लगाया है कि इब्राहीम की सेना में पूरी तरह से लैस 20,000 घुङसवार रहे होंगे और अनुमानतः इतने ही अफगान मुखियाओं द्वारा भेजे गए घुङसवार । इनके अलावा करीब 30,000 पैदल थे जिनमें से बहुतों के पास तो हथियार भी पूरे नहीं थे। रशब्रुक विलियम्स बाबर की सेना 8,000 घुङसवारों की बताते हैं और इब्राहीम की उससे पाँच गुनी। किंतु सही अनुमान यही लगता है कि इब्राहीम की सेना में 50,000 सैनिकों और 1,000 हाथियों से ज्यादा न रहे होंगे।

इब्राहीम के खिलाफ बाबर ने पहली बार आग्नेय अस्त्रों का प्रयोग किया। उस्ताद अली और मुस्तफा ने मुस्तैदी से उनके मोर्चे सँभाले और महत्त्वपूर्ण परिणाम हासिल किए।

पानीपत पहुँचते ही इब्राहीम की खामियों और उसकी स्थिति का जायजा लेकर अपनी सामरिक रचना की योजना बनाने में बाबर को देर नहीं लगी। बाबर की सेनाएँ पानीपत के मुख्य नगर के दक्षिण में ठहरी थी और दाहिनी ओर से वे सुरक्षित थी। सेना के बाएँ पार्श्व को भी सुरक्षा की जरूरत थी। यह काम खाइयाँ खोदकर अथवा गिराए गए पेङों की बाङ खङी करके किया गया था। इतिहासकार सरकार मानते हैं कि ये खाइयाँ यमुना नदी के वे सूखे नाले थे जिनमें मानसून की बाढ के बाद पानी नहीं रह जाता था।

अब जरूरत थी तो उसके तोपचियों और गोलंदाजों की सामने से होने वाले हमले से सुरक्षा की। इस काम के लिये बाबर ने करीब सात सौ मालवाहक गाङियाँ मँगवाई और उनमें से हर दो गाङियों के पहिए बेलों की खाल के रस्सों से एक साथ बाँध दिए। हर दो गाङियों के बीच लकङी की तिपाइयों पर पाँच या छह खालें खङी कर दी गयी जिनकी आङ में गोलंदाजों को खङे होकर गोले दागने थे। गाङियों के बीचोंबीच निकास की ऐसी जगहें छोङी गयी थी जिनमें से होकर मुगल घुङसवार जरूरत पङने पर आगे बढ सकते थे।

बाबर की सेनाएँ जिन हिस्सों में बँटी थी वे थे दाहिना, मध्य, बायाँ, अग्रिम और सुरक्षित। इस परंपरागत व्यवस्था के अलावा दो विशाल पार्श्व दल (तुलुगमा) भी थे, एक दाएँ पार्श्व में और एक बाएँ में। सेना के दाएँ और बाएँ केंद्रीय भाग के दो स्कंधों के पीछे इल्तुतमिश नाम की सुरक्षित सेना थी। बाबर स्वयं दाएँ और बाएँ केंद्र की सेना का नेतृत्व सँभाले था जहाँ हुमायूँ खुसरो कोकुलताश, मेहँदी ख्वाजा, वली खाजिन, मुहम्मद कासिम, अब्दुल अजीज, मीर खलीफा, चिन तैमूर सुल्तान और मुहम्मद कोकुलताश उसकी सहायता के लिये डटे थे।

बाबर की इतनी अचूक सुरक्षा व्यवस्था के मुकाबले इब्राहीम की सेना बाजुओं से असुरक्षित थी और उसके अगले हिस्से को आग उगलने वाले हथियारों की मार से बचाने के लिए कुछ भी नहीं था। सेनाएँ परंपरागत रूप से अग्रिम, मध्य, दाहिना बाजू, बायाँ बाजू और सुरक्षित हिस्सों में विभक्त थी।

तैयारियाँ चल ही रही थी कि बाबर की सेनाएँ इब्राहीम की सेनाओं को उकसाने में लगी रही ताकि वे आगे बढकर हमला बोले। उन्होंने इब्राहीम की सेनाओं पर तीरों की बौछारें की, उन्हें पकङा और सैनिकों के सिर काटकर उन्हें विजय चिह्नों के रूप में लिए अपने अड्डों पर लौटी। लेकिन इब्राहीम अपनी खाइयों की मोर्चेबंदी छोङकर आगे बढा। इब्राहीम अपने डेरे से तभी बाहर निकला जब 19 और 20 अप्रैल के बीच की रात उसके शिविर पर हमला कर दिया गया।

यह उसकी गंभीर गलती थी। वह न केवल अपने मोर्चे से दूर हट गया वरन बाबर द्वारा बिछाए गये जाल में भी फँस गया। अफगान पहले तो तेजी से आगे बढे लेकिन जब काफी करीब आ गए और बाबर की अपनी कतार की सुरक्षा देखी तो वे एकाएक रुक गए और उनके बढने की रफ्तार ढीली हो गयी और झपटे से हमले का आरंभिक असर खत्म हो गया।

आगे बढने का सिलसिला एकाएक रुक जाने से पीछे आ रही सेना का लंबा हिस्सा भ्रम में पङ गया। बाबर ने ठीक इसी क्षण धावा बोल दिया। उसकी बाजू की कतारें इब्राहीम की सेना के दाएँ और बाएँ हिस्सों पर टूट पङी और पीछे से आगे बढकर अफगानों की घनी कतारों पर तीरों की वर्षा करने लगी। इसी समय बाबर के दाएँ और बाएँ पार्श्व की सेनाओँ ने दुश्मन की सेना के अगले हिस्से के करीब पहुँचकर उसे उलझा लिया।

इस तरह हाथी बेअसर हो गए। दरअसल हुआ तो यह कि तीरों की बौछार के आगे हाथी उल्टे लौटकर भागे और स्वयं अफगानों के लिये समस्या खङी हो गई। बाबर के मध्य भाग के सैनिकों ने दुश्मन की सेना के बीच के हिस्से को इस तरह उलझा लिया कि बुरी तरह से दबे जा रहे किसी भी बाजू को वह कोई मदद न पहुँचा सके। बाबर की इन सामरिक हलचलों की कामयाबी से होङ ले रहा था मुस्तफा और उस्ताद अली के हाथों गजब ढाया जा रहा था। अफगान अब पूरी तरह से घिर गए थे। वे बेतरतीब घेरे में पीछे हटे और जाल में फँसे जानवर जैसे गुस्से में भरकर लङते रहे।

फिर भी आदमियों के घेरे के भीतर आ गया था, फिर भी गलत चालों और घटिया हथियारों की गङबङी का कोई इलाज ही न हो सका। इब्राहीम की सेनाओं के पैर उखङ गए और वे भागने लगी। बाबर की सेनाओं ने लगातार पीछा किया और दिल्ली के फाटक तक जा पहुँची। यहाँ पर लङाई का महत्त्व इस बात से नहीं आँका जाना चाहिए कि मैदान में कितने सैनिक मारे गए। वह आग और आदमी के बीच गैर-बराबरी का मुकाबला था।

यह घटना तोपखाने और घुङसवारी का प्रभावशाली तरीके से गठजोङ करने में बाबर की योग्यता और कुशलता का परिचय देती है और इब्राहीम लोदी के संगठन कौशल की कमजोरी दर्शाती है। बाबर लिखता है कि इब्राहीम लोदी अनुभवहीन नौजवान आदमी था। वह अपनी हर चाल में लापरवाह था। वह बिना हुक्म के ही चल पङता और बिना किसी योजना के ही ठहर जाता था आराम करने लगता और आगे नजर डाले बगैर ही लङाई में उलझ पङता था। इसके साथ ही जुङी थी वित्तीय तंगी की इब्राहीम की समस्या, क्योंकि उसके राज्य के बङे इलाके बतौर जागीर अफगानं के कब्जे में थे और उनके बीच एकता का सर्वथा अभाव था।

इस लङाई ने विघटनशील तुर्क-अफगान उमरावों को अपने आघात से कुचल दिया और भारत की राजनीति में एक नए खून का प्रवेश कराया। उसने लोदी वंश का अंत कर दिया और उसकी जगह एक ऐसे वंश को स्थापित किया जिसने अपना विदेशी दृष्टिकोण पूरी तरह से त्यागकर हर तरह से अपना भारतीयकरण किया। उसने इस देश की सांस्कृतिक महानता में किसी अन्य शासक वंश से कहीं अधिक योगदान दिया। सन् 1192 में तराइन के युद्ध में जिस दिल्ली-सल्तनत ने जन्म लिया उसने सन 1526 में पानीपत के मैदान में आखिरी साँस ली।

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