प्राचीन भारतइतिहास

गणतंत्र या जनजातीय राज्यों का इतिहास

प्राक्-गुप्त युग में राजतंत्रों के साथ-2 गणराज्यों का भी अस्तित्व था। ये गणराज्य पूर्वी पंजाब, राजस्थान, मालवा तथा मध्य प्रदेश के विभिन्न भागों में फैले हुए थे। इनमें मालव, अर्जुनायन, यौधेय, शिवि, लिच्छवि, आभीर, मद्रक, सनकानीक, प्रार्जुन, काक, खरपरिक आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

प्रमुख गणतंत्रीय राज्य निम्नलिखित हैं –

मालव –

सिकंदर के आक्रमण के समय मालवा गणराज्य के लोग पंजाब में निवास करते थे। कालांतर में वे पूर्वी राजपूताना में आकर बस गये। पाणिनि ने उनका उल्लेख आयुधजीवी संघ के रूप में किया है। उनके लगभग 6 हजार सिक्के मिले हैं। उन पर मालवानाम्जय मालवजय तथा मालवगणस्य उत्कार्ण है। विद्वानों ने इन सिक्कों की प्राचीनता ईसा की दूसरी से तीसरी शता. के मध्य तक निर्धारित की है।

सिक्कों पर अंकित लेख इस बात के सूचक हैं, कि उनमें गणतंत्र शासन पद्धति थी। नहपान के नासिक लेख से पता चलता है, कि उसने मालवों को पराजित किया था। गुप्तों के उदय के पूर्व संभवतः वे मंदसोर में राज्य करते थे। यहाँ से प्राप्त लेखों में मालव-संवत् का ही प्रयोग मिलता है। चाथी शती. के अंत तक उनका राजनैतिक अस्तित्व बना रहा। समुद्रगुप्त ने उन्हें पराजित कर अपने अधीन कर लिया था।

अर्जुनायन

इस गण जाति के लोग आगरा-जयपुर क्षेत्र में शासन करते थे। प्रथम शता. के लगभग के उनके, कुछ सिक्के मिले हैं, जिन पर अर्जुनायन तथा अर्जुनायनानाम् जय अंकित है। इससे सूचित होता है, कि उनका भी अपना गणराज्य था। प्रयाग लेख से पता चलता है, कि उन्होंने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार की थी।

यौधेय –

कुषाणों के पूर्व ये लोग उत्तरी राजपूताना तथा दक्षिणी पूर्वी पंजाब में निवास करते थे। पाणिनि ने उन्हे आयुधजीवी संघ कहा है। ऐसा प्रतीत होता है, कि यह एक वीर स्वाभिमानी जाति थी।

जूनागढ लेख से पता चलता है,कि रूद्रदामन ने कङे संघर्ष के बाद उन्हें जीता था। लेख के अनुसार वे अत्यंत शक्तिशाली एवं साधन संपन्न थे। कुषाणों ने उन्हें परास्त कर अपने अधीन कर लिया था। परंतु कुषाण साम्राज्य के पतनोपरांत वे स्वतंत्र हो गये। यौधेयों के सिक्के सहारनपुर, देहरादून, देहली, रोहतक, लुधियाना तथा कांग्रा से प्राप्त हुए हैं। लुधियाना से प्राप्त एक मिट्टी की मुहर पर यौधेयानाम् यजमंयधराणाम् लेख उत्कीर्ण है। इससे सुचित होता है,कि उनके पास विजय प्राप्त करने का कोई मंत्र था। उनके प्रारंभिक सिक्कों (लगभग ईसा पूर्व प्रथम शता.) पर यौधेय तथा बाद के सिक्कों पर यौधेय गणस्यजय उत्कीर्ण है। बाद के सिक्के तीसरी चौथी शता. के हैं।

कुणिंद

यमुना तथा सतलज के बीच भूभाग में यह गणराज्य स्थित था। इनके कुछ सिक्कों पर केवल कुणिन्द तथा कुछ पर कुणिनेदगणस्य अंकित है। विद्वानों ने इनका काल ईसा पूर्व पहली शता. से दूसरी शता. के मध्य तक निर्धारित किया है। टालमी के भूगोल में कुलिन्द्रेने शब्द मिलता है, जिससे तात्पर्य व्यास तथा गंगा नदियों के बीच के समस्त ऊपरी प्रदेश से है। विष्णु पुराण में कुणिदों को पर्वत घाटी का निवासी कहा गया है। इससे संकेत मिलता है, कि कुणिन्दों का संबंध किसी पहाङी के समीपवर्ती प्रदेश से था।

शिवि

सिकंदर के आक्रमण के समय शिवि लोग झेलम तथा चिनाब के संगम के निचले भाग में निवास करते थे। बाद में उन्होंने चित्तौङ के समीप माध्यमिका से अपना राज्य स्थापित कर लिया। यहाँ से उनके कुछ सिक्के मिलते हैं। इसका काल ईसा-पूर्व द्वितीय अथवा प्रथम शता. निर्धारित किया गया है।

लिच्छवि

गुप्तों के उदय के पूर्व गंगा-घाटी में कई शता. बाद लिच्छवि पुनः शक्तिशाली हो गये थे। ऐसा प्रतीत होता, कि इस समय लिच्छवियों के दो राज्य थे –

  1. उत्तरी बिहार जिसकी राजधानी वैशाली में थी।
  2. नेपाल जिसका उल्लेख प्रयाग प्रशस्ति में मिलता है।

गुप्त नरेश चंद्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह कर अपने राजवंश की शक्ति एवं प्रतिष्ठा को बढाया था।

आभीर

पेरीप्लस में इसे अबिरिया कहा गया है। आभीरों के लेख महाराष्ट्र में भी मिलते हैं। जिससे ऐसा लगता है, कि उनका महाराष्ट्र में भी शासन था। उनकी दूसरी शाखा भिलसा तथा झांसी के मध्य अहिरबार नामक स्थान में शासन करती थी। गुप्तों के उदय तक ये दोनों शाखायें विद्यमान थी।

मद्रक

यह गणराज्य रावी तथा चिनाब नदियों के बीच के प्रदेश में स्थित था। यह भाग चौथी शता. के प्रारंभ में उन्होंने गडहरों से जीता। स्यालकोट, संभवतः उनकी राजधानी थी। अभी तक मद्रकों का कोई भी सिक्का प्राप्त नहीं हुआ है।

प्रार्जुन –

कुछ विद्वान मध्य प्रदेश के वर्तमान के नरसिंहपुर जिले को प्रार्जुन गण-राज्य की स्थिति बताते हैं।

सनकानीक –

ये भिलसा के आस-पास के क्षेत्र पर शासन करते थे। चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के उदयगिरि से प्राप्त एक लेख में इस जाति के एक सामंत का उल्लेख मिलता है।

काक

भिलसा के बीस मील उत्तर में स्थित काकपुर नामक स्थान में इस जाति का राज्य था। कुछ विद्वान उन्हें साँची का शासक बताते हैं।

खरपरिक

मध्य प्रदेश के दमोह जिले में इस गणजाति के लोग शासन करते थे।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

Related Articles

error: Content is protected !!