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वैशेषिक दर्शन के प्रवर्त्तक कौन थे

वैशेषिक दर्शन

वैशेषिक दर्शन के प्रवर्त्तक महर्षि कणाद माने जाते हैं, जिन्हें कणभुक, उलूक तथा काश्यप नामों से भी जाना जाता है। उनका वैशेषिक-सूत्र इस दर्शन का मूल प्रामाणिक ग्रंथ है।प्रशस्तपाद कृत पदार्थधर्मसंग्रह वैशेषिक सूत्र पर टीका है। उदयन तथा श्रीधर इसके अन्य टीकाकार हैं।यह दर्शन विशेष नामक पदार्थ पर बल देते हुए उसकी विस्तृत विवेचना करता है, जिससे इसे वैशेषिक नाम दिया गया है।

पदार्थ

जिस वस्तु का किसी पद या शब्द से ज्ञान होता है, उसे पदार्थ कहा जाता है। इसका शाब्दिक अर्थ है- पद अर्थात् शब्द का अर्थ (पद+अर्थ)। इस संसार की वे सभी वस्तुयें, जिनके विषय में सोचा जा सकता है, तथा जिनका नामकरण किया जा सकता है, पदार्थ के अंतर्गत हैं। वैशेषिक समस्त पदार्थों का विभाजन दो भागों में करता है – भाव तथा अभाव। भाव का अर्थ उन पदार्थों से है, जो विद्यमान हैं। इनकी संख्या छः है – द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समन्वय।मूलतः वैशेषिक इन्हीं को मानते थे, किन्तु बाद में इसमें अभाव नामक सातवाँ पदार्थ जोङ दिया गया।

द्रव्य

द्रव्य से तात्पर्य उस आधार से है, जहाँ गुण और कर्म निवास करते हैं। यह अपने कर्मों का समवायी कारण भी होता है। जैसे वस्त्र का समवायी कारण सूत होता है, क्योंकि वस्त्र उसी से निर्मित होता है, तथा उसी में निर्गुण के पूर्व निहित रहता है। कोई भी गुण अथवा कार्य बिना आधार के नहीं रह सकते। उनका कोई न कोई आधार अश्वयमेय होना चाहिये।

यही आधार द्रव्य है। वैशेषिक द्रव्य के नौ प्रकार मानते हैं – पृथ्वी, जल, तेज(अग्नि), वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा, मन। इनमें प्रथम पाँच अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश भूत हैं, जिनमें कोई न कोई विशेष गुण मिलता है। इनके गुण क्रमशः गंध, रस, रूप, स्पर्श तथा शब्द हैं। इन गुणों की प्रत्यक्ष अनुभूति बाह्य इन्द्रियों के द्वारा होती है। पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायु परमाणुओं से बनते हैं। इनके परमाणु नित्य हैं, किन्तु उनसे जिन कार्य द्रव्यों की रचना होती है वे अनित्य हैं।

किसी वस्तु के उस सूक्ष्मतम कण को परमाणु कहा जाता है,जिसका और आगे विभाजन न हो सका।परमाणु अनादि तथा अनंत होते हैं। इनका अस्तित्व अनुमान द्वारा ही सिद्ध होता है। आकाश, दिक् तथा काल अप्रत्यक्ष द्रव्य हैं, जो एक, नित्य और सर्वव्यापी हैं। इनका ज्ञान इन्द्रियों द्वारा नहीं हो सकता। आत्मा नित्य तथा सर्वव्यापी द्रवेय है और यह सभी चैतन्य वस्तुओं का आधार है।

चैतन्य आत्मा का गुण नहीं है, यह आत्मा से अभिन्न भी नहीं है, अपितु चैतन्य को आत्मा का आगंतुक गुण माना जाता है, जो मन के सान्निध्य से उसमें उत्पन्न होता है। आत्मायें अनेक हैं। मन एक अन्तरिन्द्रिय है। यह नित्य है, किन्तु सर्वव्यापी (विभु) नहीं है। इसी के द्वारा आत्मा वस्तुओं के साथ संपर्क स्थापित करता है। यह अगोचर अणु द्रव्य है। प्रत्येक आत्मा में एक मन होता है। मन ज्ञान का आंतरिक साधन है, जिसके द्वारा आत्मा विभिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करता है।

गुण

जो पदार्थ द्रव्य में निवास करता है, उसे गुण कहा जाता है। इसका अस्तित्व द्रव्य पर ही निर्भर करता है। गुण में स्वयं कोई गुण या कर्म नहीं रह सकता, यह किसी वस्तु को उत्पन्न नहीं कर सकता तथा किसी के संयोग तथा विच्छेद का कारण भी नहीं बन सकता।

वैशेषिक मत चौबीस गुणों को मान्यता प्रदान करता है – रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द, संख्या, परिणाम, पृथकत्व, संयोग विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, संस्कार, धर्म तथा अधर्म। इनमें सभी का दार्शनिक महत्त्व नहीं है। इनमें भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों ही गुण हैं।

कर्म

गुण के समान कर्म का आधार भी द्रव्य है। कर्म द्रव्य से अलग नहीं रह सकते। किन्तु गुण के विपरीत कर्म, द्रव्य का सक्रिय स्वरूप होता है। यही द्रव्यों के संयोग तथा विच्छेद का कारण है। कर्म गत्यात्मक होता है। कर्म के पाँच विभेद हैं – उत्क्षेपण (ऊपर जाना), अवक्षेपण (नीचे जाना),आकुंचन (संकुचित होना), प्रसारण (फैलाना), तथा गमन (चलना)।

सामान्य

किसी वर्ग के समान लक्षणों को सामान्य कहा जाता है – नित्यम् एकम् अनेकानुगतम् सामान्यम्। सामान्य नित्य होता है। विभिन्न व्यक्तियों में कुछ ऐसे सामान्य लक्षण हैं, जिनसे वे मनुष्य कहे जाते हैं। इसी प्रकार विभिन्न गायों में कुछ सामान्य लक्षण हैं जिनसे वे गाय कही जाती हैं। यहाँ मनुष्यत्व तथा गोत्व सामान्य लक्षण हैं, जो विभिन्न व्यक्तियों तथा गायों में अनुगत हैं। सामान्य विषयक वैशेषिक मत वस्तुवादी हैं। यह सामान्य को नित्य पदार्थ मानता है। किसी व्यक्ति-विशेष अथवा पशु विशेष के मृत होने से सामान्य का विनाश नहीं होता है।

विशेष

यह सामान्य के विपरीत पदार्थ है। प्रत्येक मनुष्य अथवा वस्तु में कुछ विशिष्ट लक्षण या गुण विद्यमान रहते हैं, जिनके आधार पर वे एक दूसरे से अलग समझी जाती हैं। विशेष के कारण ही एक आत्मा दूसरे आत्मा से, एक परमाणु दूसरे परमाणु से भिन्न समझा जाता है। परमाणु, आत्मा, दिक्, काल, मन आदि सभी के अपने-अपने विशेष धर्म होते हैं। वैशेषिक इस पदार्थ पर विशेष बल देते हैं तथा इसकी विस्तृत व्याख्या करते हैं। इसी कारण उनका मत इस नाम से जाना गया है।

विशेष की कल्पना नित्य द्रव्यों में विभेद स्थापित करने के उद्देश्य से ही की गयी है। अनित्य द्रव्यों के ज्ञान तथा उनमें विभेद के लिये इसकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वे तो अपने सामान्य लक्षणों से ही अलग किये जा सकते हैं। दिक्, काल, आकाश, मन, आत्मा तथा चार भूतों के परमाणु में ही विशेष तत्व प्राप्त होता है। नित्य द्रव्यों में रहने के कारण विशेष भी नित्य हैं।

समवाय

वस्तुओं के नित्य, स्थायी तथा अविच्छिन्न संबंध को समवाय कहा जाता है। इस प्रकार का संबंध कार्य-कारण, द्रव्य-गुण या कर्म आदि में दिखाई पङता है। यह क्षणिक संबंध नहीं है, जिसे संयोग कहा जाता है। संयोग में दो पृथख वस्तुयें कुछ समय के लिये मिल जाती हैं, जैसे नाव का नदी के पानी के साथ संबंधि हो जाता है। इसे युतसिद्ध अर्थात् दो वस्तुओं के मिलन पर उत्पन्न संबंध कहते हैं। किन्तु समवाय संबंध निरंतर एवं स्थायी होता है, जैसे गुण या कर्म सदा द्रव्य में विद्यमान रहते हैं, जब तक फूल रहता है, तब तक रंग उसमें बना रहता है, सामान्य व्यक्तियों में तथा विशेष नित्य द्रव्यों में सदा बना रहता है। वस्त्र अपने धागों में सदा विद्यमान है। इस प्रकार के स्थायी संबंध को वैशेषिक समवाय कहते हैं। समवाय संबंध द्वारा युक्त वस्तुएँ अयुत सिद्ध होती हैं अर्थात् वे दो के संयोग से संबद्ध नहीं रहती हैं।

अभाव

इसका शाब्दिक अर्थ है न होना। कालांतर में वैशेषिक दर्शन में इसे एक पदार्थ मान लिया गया। यहाँ कोई व्यक्ति नहीं है, फूल लाल नहीं हैं, जल में गंध नहीं है आदि वाक्य व्यक्ति, लाल रंग तथा गंध का उपर्युक्त स्थानों में अभाव सूचित करते हैं। अभाव के चार भेद माने गये हैं –

प्रागभाव

इसमें कार्य उत्पत्ति के पूर्व विद्यमान नहीं रहता, जैसे घङा अपनी उत्पत्ति के पूर्व मिट्टी में नहीं रहता अर्थात् उसका अभाव रहता है।

ध्वंसाभाव

इसमें विनाश के बाद वस्तु का अभाव होता है, जैसे घङे के फूट जाने पर टुकङों में उसका अस्तित्व नहीं रहता। दूसरे शब्दों में घङे का अभाव हो जाता है।

अत्यन्ताभाव

इसमें दो वस्तुओं के बीच संबंध का पूर्णतया एवं सर्वकालिक अभाव होता है, जैसे वायु में रूप का अभाव। यह अनादि तथा अनंत होता है।

अन्योन्याभाव-

इसका अर्थ है एक वस्तु का दूसरी वस्तु के रूप में अभाव। जब एक वस्तु दूसरी से भिन्न होती है तब इस प्रकार का अभाव दिखाई देता है। दो भिन्न वस्तुओं में संबंध किसी काल में नहीं होता। जैसे घङा कपङे से भिन्न है, अतः दोनों में संबंध का भाव कभी नहीं हो सकता। घङे का कपङे के रूप में सदा अभाव ही रहेगा।अन्योन्याभआव में तादात्म्य का अभाव प्रदर्शित किया जाता है।

परमाणुवाद का सिद्धांत

सांख्ययोग के समान वैशेषिक सत्कार्यवाद अर्थात् कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान रहता है के सिद्धांत को स्वीकार नहीं करता। इसके अनुसार कार्य की उत्पत्ति सर्वथा नवीन होती है तथा यह उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान नहीं रहता। संसार के सभी कार्य द्रव्यों का निर्माण चार प्रकार के परमाणुओं – पृथ्वी, जल, तेज तथा वायु से होता है। परमाणुओं के संयोग से वस्तुओं की उत्पत्ति तथा उनके विच्छेद से विनाश होता है। किन्तु परमाणुओं का संयोग तथा विच्छेद स्वतः नहीं होता। वैशेषिक मत के अनुसार परमाणु निष्क्रिय होते हैं, जिन्हें गति प्रदान करने वाली सत्ता ईश्वर की है। वही जीवों के अदृष्ट के अनुसार उन्हें कर्मफल का भोग कराने के लिये परमाणुओं की क्रियाओं को प्रवर्तित करता है। ईश्वर की सत्ता स्वीकार करने के कारण वैशेषिक परमाणुवाद आध्यात्मिक है। इसका जगत् के अनित्य पदार्तों की व्याख्या करने के लिये ही किया गया है। नित्य द्रव्य जैसे आकाश, दिक्, काल, मन, आत्मा, उत्पत्ति तथा विनाश से रहित होते हैं।

परमाणुवाद के अनुसार दो परमाणुओं के प्रथम संयोग की द्वयणुक कहा जाता है।यह अणु, ह्रस्व तथा अगोचर होता है। तीन द्वयणुक मिलकर त्र्यगुण का निर्माण करते हैं। यह महत्, दीर्घ तथा दृष्टिगोचर होता है। परमाणुओं के संयोग का यह क्रम तब तक चलता रहता है जब तक कि पृथ्वी, जल, तेज तथा वायु महाभूत उत्पन्न नहीं हो जाते।

वैशेषिक मत के अनुसार इस सृष्टि का कर्त्ता ईश्वर है, जो अचेतन उदृष्ट को परिचालित करता है तथा अदृष्ट उसी की सहायता से परमाणुओं को गति प्रदान करता है। अदृष्ट द्वारा गति प्रदान किये जाने पर परमाणुओं में कम्पन (परिस्पन्दन) उत्पन्न हो जाता है तथा वे तत्काल द्वयणुक में बदल जाते हैं।

वैशेषिक मत ईश्वर, आत्मा तथा कर्म सिद्धांत को स्वीकार करता है। ईश्वर सर्वज्ञ, अनन्त तथा पूर्ण है। वह संसार का निमित्त कारण है तथा परमाणु इसके उपादान कारण हैं। आत्मायें तथा परमाणु ईश्वर के साथ-साथ विद्यमान रहते हैं तथा उसी के समान नित्य है। वह परमाणुओं का कर्त्ता नहीं है, अपितु केवल उन्हें गति प्रदान करता है।

सृष्टि तथा प्रलय

वैशेषिक मत के अनुसार सृष्टि का कर्त्ता ईश्वर है। जिस प्रकार दिन के बाद रात्रि होती है, उसी प्रकार प्रत्येक सृष्टि के बाद प्रलय होता है। ईश्वर विभिन्न प्राणियों को कर्मफल का उपभोग कराने के लिये सृष्टि की इच्छा करता है। इसके साथ जीवात्माओं के अदृष्ट के अनुसार शरीर तथा बाह्य द्रव्य बनने लगते हैं और अदृष्ट जीवों को उस दिशा में प्रवृत्त करने लगते हैं। अदृष्ट की प्रेरणा से परमाणुओं के संयोग होने लगते हैं, जिससे सृष्टि की नाना वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं। सर्वप्रथम महाभूतों की उत्पत्ति होती है। उसके बाद ईश्वर की इच्छा से तेज परमाणुओं से विश्व का गर्भरूपी ब्रह्माण्ड उत्पन्न होता है। इसे ब्रह्मा संचालित करते हैं। वह कर्म के अनुसार भोग करने वाले सभी जीवों को उत्पन्न करता है तथा कर्मों के अनुसार ही उन्हें फल प्रदान करता है।

प्रत्येक सृष्टि के बाद प्रलय की अवस्था आती है। जब भोग करते-करते जीव थक जाते हैं, तो उन्हें विश्राम देने के उद्देश्य से ईश्वर प्रलय की इच्छा करता है। इसके साथ ही जीवों के अदृष्ट अपने कार्य से विमुख हो जाते हैं। फलस्वरूप परमाणु बिखर जाते हैं तथा शरीर एवं इन्द्रियों का विनाश हो जाता है। जीवात्मा नित्य है जिसका विनाश नहीं होता। साथ ही चार अन्य नित्य द्रव्य – दिक्, आकाश, मन भी बचे रह जाते हैं। इनसे अगली सृष्टि प्रारंभ की जाती है। इस प्रकार सृष्टि की उत्पत्ति तथा उसका विनाश ईश्वर की इच्छा मात्र पर निर्भर करता है।

बंधन तथा मोक्ष

अन्य भारतीय दर्शनों की भाँति वैशेषिक दर्शन भी अज्ञान को ही बंधन का कारण मानता है। अज्ञान के वशीभूत होकर आत्मा विविध कर्मों का संपादन करता है। हमारे कार्यों के अच्छे-बुरे फल होते हैं। आत्माओं के अच्छे-बुरे फलों से अदृष्ट का निर्माण होता है। आत्मा अपने अच्छे-बरे कर्मों के अनुसार ही सुख-दुःख का उपभोग करता है। जब तक आत्मा कर्म करता रहता है वह बंधनग्रस्त है। मोक्ष उसे तभी मिल सकता है जब कार्यों का संपादन बंद कर दे। आत्मा द्वारा कार्य बंद किये जाने पर अच्छे-बुरे फलों का संचय रुक जाता है तथा पूर्व संचित पाप-पुण्यों का भी क्रमशः क्षय हो जाता है। आत्मा अपने को मन तथा शरीर से भिन्न समझ जाता है तथा उसे अपने शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है। मुक्ति की अवस्था में सभी दुःखों का पूर्ण विनाश हो जाता है।

वैशेषिक मत से आत्मा को द्रव्य माना गया है। जिसके ज्ञान, आनंद आदि आगन्तुक गुण हैं। जब आत्मा शरीर से आबद्ध होता है तभी उसे इन गुणों की आवश्यकता पङती है। मुक्तावस्था में आत्मा को इन गुणों की आवश्यकता नहीं पङती। नैयायिकों की भाँति वैशेषिक भी मोक्ष या अपवर्ग की अवस्था को न केवल दुःखों, अपितु समस्त सुख, आनंद एवं गुणों से भी परे मानते हैं। यहाँ आत्मा शुद्ध द्रव्य के समान सर्वगुणरहित तथा सभी प्रकार के ज्ञान, अनुभूति तथा कर्मों से शून्य होकर अपने विशेष को ही बनाये रखता है।

न्याय तथा वैशेषिक दोनों ही वस्तुवादी दर्शन हैं जो ईश्वर के साथ-साथ जीवात्माओं के अस्तित्व को भी मान्यता प्रदान करते हैं। पाश्चात्य दार्शनिकों के विपरीत वे अपने परमाणुवाद का संबंध ईश्वर से जोङते हैं तथा इस प्रकार अपने मत को आध्यात्मिक आधार प्रदान करते हैं। किन्तु आत्मा तथा मोक्ष संबंधी उनके विचार संतोषप्रद नहीं हैं। इस दर्शन में भक्ति का कोई स्थान नहीं है।यहाँ मोक्ष की अवस्था को जङ बना दिया गया है। इसी कारण शंकर ने इसे अर्द्धवैनाशिक कहा है तथा श्रीहर्ष वास्तविक उलूक दर्शन कहकर इसकी निन्दा करते हैं।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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