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योग दर्शन किसे कहते हैं

योग दर्शन सांख्य के साथ घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध है। यह वस्तुतः सांख्य का व्यावहारिक पक्ष है। इसका प्रवर्त्तक महर्षि पतंजलि को माना जाता है। जिनका ग्रंथ योगसूत्र इस दर्शन का मूल है।

दर्शन किसे कहते हैं

योग का शाब्दिक अर्थ है, मिलन अर्थात् आत्मा का परमात्मा के साथ मिल जाना। गीता में समत्व को योग कहा गया है, जिसे प्राप्त हुआ व्यक्ति दुःख-सुख, हानि-लाभ, जय-पराजय आदि सभी आदि सभी में समभाव रखता है। पतंजलि ने शरीर, इन्द्रिय तथा मन पर नियंत्रण स्थापित करके पूर्णता प्राप्त करने के लिये किये गये आध्यात्मिक प्रयास को योग बताया है। इस दर्शन में सांख्य द्वारा प्रतिपादित पच्चीस तत्वों के साथ-साथ ईश्वर के अस्तित्व को भी स्वीकार किया गया है। सांख्य के विवेक ज्ञान को भी यह मानता है। इसी कारण कभी-कभी योग को ईश्वर सांख्य की संज्ञा दी जाती है। योग दर्शन कैवल्य प्राप्ति के लिये व्यावहारिक मार्ग का निर्देश करता है।

चित्त तथा उसकी वृत्तियाँ

योगसूत्र में चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहा गया है। चित्त से तात्पर्य बुद्धि, अहंकार तथा मन तथा मन से है। यह प्रकृति का प्रथम विकार है, जिसमें सत्व की प्रधानता रहती है। चित्त स्वभाव से जङ है, किन्तु पुरुष (आत्मा)के निकटतम होने के कारण यह उसके प्रकाश से प्रकाशित हो जाता है तथा चेतन जान पङता है। जब चित्त का किसी विषय से संपर्क होता है, तो यह उसी का आकार ग्रहण कर लेता है। इस स्वरूपपरिवर्तन को ही वृत्ति कहा जाता है। पुरुष के चैतन्य का प्रकाश, जो वृत्ति को प्रकाशित करता है, ज्ञान कहलाता है। पुरुष मूलतः शुद्ध चैतन्य स्वरूप है तथा प्रकृति द्वारा बाधित नहीं है। किन्तु भ्रमवश वह अपना समीकरण चित्त में अपने प्रतिबिम्ब के साथ स्थापित कर लेता है तथा इसमें परिवर्तन का आभास होने लगता है। जिस प्रकार नदी की हिलती हुयी तरंगों में प्रतिबिम्बित होने पर चंद्रमा हिलता हुआ दिखाई पङता है तथा तरंगें प्रकाशयुक्त लगती हैं, उसी प्रकार चित्त के प्रतिबिम्ब से अपने को समीकृत करने पर पुरुष का स्वरूप परिवर्तनशील तथा चित्त के प्रतिबिम्ब के साथ उसका संबंध टूट जाता है, जिससे प्रतिबिम्ब समाप्त हो जाता है तथा चित्तवृत्ति निरुद्ध हो जाती है। चित्तवृत्ति के इसी निरोध को योग कहते हैं, जिसमें पुरुष अपने विशुद्ध चैतन्य रूप में आ जाता है।

चित्त की पाँच वृत्तियाँ कही गयी हैं – प्रमाण (सत्य ज्ञान),विपर्यय (मिथ्या ज्ञान),विकल्प (कल्पना), निद्रा तथा स्मृति। प्रमाण के तीन भेद हैं – प्रत्यक्ष, अनुमान तथा शब्द। किसी वस्तु के संबंध में मिथ्या ज्ञान को विपर्यय कहते हैं, जैसे रस्सी में साँप का ज्ञान। विकल्प केवल कल्पनाहै जैसे आकाश-कुशुम। निद्रा से तात्पर्य मन के विकार से है। स्मृति भूतकाल के अनुभवों की मानसिक प्रतीति है।

पुरुष का चित्त की वृत्तियों या विकारों के साथ भ्रमवश अपना तादात्म्य स्थापित कर लेना ही बंधन है। इस अवस्था में पुरुष अपने को कर्त्ता, भोक्ता आदि समझने लगता है। ऐसा प्रतीत होने लगता है, कि पुरुष का ही जन्म तथा मरण होता है, और वही नाना दुःखों को झेलने वाला है। दुःख पांच प्रकार के हैं- अविद्या, अस्मिता (अहंकार), राग (आसक्ति), देष(ईर्ष्या) तथा अभिनेविश अर्थात् मृत्यु का भय। विवेक ज्ञान के उदय होने पर पुरुष तथा प्रकृति के बीच विभेद स्थापित हो जाता है तथा अंत में चित्त की वृत्तियों का निरोध होता है। योग का उद्देश्य इसी अवस्था को प्राप्त करना है।

चित्त (मन) की पाँच अवस्थायें मानी गयी हैं – क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, एकाग्र तथा निरुद्ध। इनका अंतर विभिन्न गुणों के प्रभाव से होता है। जिस अवस्था में चित्त पर रजोगुण का प्रभाव रहता है, उसमें स्थिरता नहीं होती और वह एक से दूसरे विषय पर दौङता है। मूढ में तम का प्रभाव होता है, जिससे उसमें निद्रा, आलस्य, अंधकार आदि का उदय होता है। विक्षिप्तावस्था में सत्व की प्रधानता रहती है, किन्तु कभी-कभी रज भी क्रियाशील हो जाता है, जिससे चित्त अधिक समय तक एक विषय पर टिका रहता है। इसमें पूर्णतया सत्व का प्रभाव होता है तथा रज एवं तम नियंत्रित हो जाते हैं। अंतिम तथा सर्वोच्च अवस्था निरुद्ध की है, जिसमें चित्त की सभी वृत्तियों का लोप हो जाता है तथा वह अपनी स्वाभाविक दशा को प्राप्त होता है। अंतिम दोनों अवस्थायें ही योग के अनुकूल हैं।

अष्टांग योग

योग शरीर, मन तथा इन्द्रियों को नियंत्रण में रखने का उपदेश देता है। इन्द्रियजनित राग एवं आसक्ति मोक्ष प्राप्ति के मार्ग में बाधक हैं। इन पर विजय पाने के लिये यहाँ आठ साधन बताये गये हैं। जिन्हें अष्टांग योग कहा जाता है।ये निम्नलिखित हैं –

यम – इससे तात्पर्य निवृत्ति से है। इसके पाँच अंग हैं – अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह (असंचय)। जैन दर्शन के ये पाँच महाव्रत हैं।

नियम – इससे तात्पर्य सदाचार के पालन से है, जिसमें निम्नलिखित आचरण हैं – शौच (पवित्रता), संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर का ध्यान करना।

आसन – यह शरीर की क्रिया है, जिसमें उसे एक निश्चित स्थिति में रखा जाता है। यह शारीरिक अनुशासन है। इसके कई प्रकार हैं – पद्मासन, शीर्षासन, वीरासन आदि।

प्राणायाम – इससे तात्पर्य श्वास नियंत्रण से है, जिसमें श्वास भीतर खींचकर कुछ देर तक रोका जाता है तथा फिर नियमित विधि से बाहर फेंका जाता है। यह शरीर तथा मस्तिष्क के लिये स्वास्थ्यकर है। इसका अभ्यास किसी योग्य गुरु के निर्देशन में होना चाहिये।

प्रत्याहार – इन्द्रियों पर नियंत्रण कर उन्हें अपने वश में रखना ही प्रत्याहार है। इसमें इन्द्रियों का विषयों से लगाव स्पष्ट हो जाता है तथा वे मन की ओर लग जाती हैं। यह बङी कठिन अवस्था है।

धारणा – मन को किसी अभीष्ट वस्तु पर केन्द्रित करने को धारणा कहते हैं, जैसे नासिका के अग्रभाग, किसी देवता, सूर्य आदि पर। इसमें मन की उपमा वातरहित स्थान में जलते हुये दीपक की लव से दी गयी है।

ध्यान – धारणा के बाद की अवस्था है, जिससे ध्येय विषय का निरंतर चिन्तन-मनन किया जाता है। इसमें इष्ट विषय को लेकर विचारों का निरंतर प्रवाह प्रवाहित होता रहता है, जिससे उस विषय का वास्तविक ज्ञान मिल जाता है।

समाधि – इसका अर्थ है चित्त की एकाग्रता। यह योगाभ्यास की अंतिम अवस्था है, जिसमें मन ध्येय विषय में पूर्णरूपेण लीन होकर अपना अस्तित्व मिटा देता है। ध्यान में ध्येय विषय मन से अलग रहता है, किन्तु समाधि में दोनों एकाकार हो जाते हैं। इस अवस्था में व्यक्ति का बाह्य जगत से संबंध टूट जाता है तथा सभी मानसिक विकारों का निरोध हो जाता है। यही मानव जीवन का परम ध्येय है।

इन सभी साधनों में प्रथम पाँच – यम, नियम, आसन, तथा असम्प्रज्ञान। प्रथम में बुद्धि की क्रियाशीलता किसी न किसी रूप में बनी रहती, किन्तु द्वितीय में यह बंद हो जाती है। प्रथम को एकाग्र तथा द्वितीय को निरुद्ध कहा जाता है। असम्प्रज्ञान समाधि से ही कैवल्य प्राप्त होता है।

ईश्वर

योग दर्शन में ईश्वर की सत्ता को स्वीकार किया गया है। योग के प्रणेता पतंजलि ने ईश्वर को एक ऐसा विशिष्ट पुरुष बताया है, जो क्लेश, कर्म, परिणाम, आशय (संस्कार) आदि से अप्रभावित रहता है। वह नित्य, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिमान है। वह सर्वविध परिपूर्ण है। ईश्वर का प्रतीक ओइम् है। ईश्वर-भक्ति समाधि प्राप्त करने का एक सुनिश्चित साधन है। ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करने के लिये निम्नलिखित प्रमाण दिये गये हैं –

वेद ईश्वर की सत्ता का प्रतिपादन करते हैं।

सभी सांसारिक वस्तुओं की अल्पतम तथा अधिकतम सीमा होती है। अतः ज्ञान और शक्ति की भी एक सीमा होनी चाहिये। इनकी सर्वोच्च सीमा अर्थात् सर्वशक्तिमान तथा सर्वज्ञ ईश्वर ही है।

प्रकृति तथा पुरुष के बीच संयोग एवं विच्छेद स्थापित करने वाला ईश्वर ही होता है। ईश्वर के सहयोग के बिना जङ, प्रकृति तथा चेतन पुरुष में संयोग तथा वियोग कदापि संभव नहीं है।

किन्तु योग दर्शन में ईश्वर को कर्त्ता, धर्ता एवं संहर्ता स्वीकार नहीं किया गया है। वह केवल पुरुष विशेष है। वह मुक्ति प्रदान नहीं कर सकता, अपितु उसका कार्य केवल साधक के मार्ग से सभी विघ्न बाधाओं को दूर करना है। पुरुष के बंधन अथवा मोक्ष से उसका कोई सीधा संबंध नहीं है। मानव जीवन का उद्देश्य ईश्वर से तादात्म्य स्थापित करना नहीं, अपितु पुरुष का प्रकृति से संबंध – विच्छेद करना है। योग का ईश्वर विषयक विचार संतोषप्रद नहीं है। पतंजलि का योग दर्शन आध्यात्मिक अनुशासन की एक महान पद्धति है, जिसे चार्वाक के अलावा सभी भारतीय दर्शनों में स्थान दिया गया है। यह हमें आत्मशुद्धि तथा आत्म-नियंत्रण का व्यावहारिक मार्ग बताता है।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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