इतिहासराजस्थान का इतिहास

पुरालेखीय स्रोत : राजस्थान के स्रोत

पुरालेखीय स्रोत : राजस्थान के स्रोत

पुरालेखीय स्रोत : राजस्थान के स्रोत(Archival Sources: Sources from Rajasthan)

पुरालेखीय स्रोत से हमारा अभिप्राय उस सामग्री से है जो संस्कृत, हिन्दी, राजस्थानी, फारसी और अंग्रेजी भाषा में लिखित रूप में उपलब्ध होती है। ऐसे पुरालेखीय स्रोतों में शिलालेख, सिक्के, ताम्रपत्र, पट्टे-परवाने, राजपूत राजाओं के पत्र व्यवहार, राजपूत राज्यों में नियुक्त ब्रिटिश पोलीटिकल एजेन्टों तथा रेजीडेन्टो द्वारा अपनी सरकार को प्रेषित रिपोर्ट आदि सम्मिलित हैं। पुरालेखागार की महत्त्वपूर्ण सामग्री बहियों के रूप में उपलब्ध होती है।

राजस्थान के पूर्व जागीरदारों एवं उनके परिवारों के पास भी ऐतिहासिक सामग्री का विस्तृत भंडार है। इसके अलावा पुजारियों, पंडों, यतियों, सेठ साहूकारों के पास भी कई महत्त्वपूर्ण पुरालेखीय सामग्री संगृहीत है। यह सामग्री इतिहास के विभिन्न पक्षों को जानने का अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।

पुरालेखीय स्रोत

शिलालेख

राजस्थान के विविध क्षेत्रों में अब तक सहस्रों की संख्या में शिलालेख प्राप्त हो चुके हैं। ये शिलालेख पत्थर की शिलाओं, प्रस्तर-पट्टों, भवनों तथा गुफाओं की दीवारों, मंदिरों, स्तूपों, मठों तथा स्तंभों पर, तालाबों, बावङियों और खेतों के समीप गढी हुई शिलाओं और ताम्रपत्रों पर अंकित हैं। इन शिलालेखों की भाषा संस्कृत, हिन्दी, राजस्थानी, फारसी तथा उर्दू है। इनमें कुछ शिलालेख ऐसे भी हैं जिनके कई अंश नष्ट हो गये हैं और जिनके तिथिक्रम के बारे में अनुमान लगाना भी कठिन है। फिर भी इनका महत्त्व है।

शिलालेखों से हमें विभिन्न प्रकार की जानकारी मिलती हैं। शासकों का वर्णन, उनके राजवंश का विवरण, उनकी उपलब्धियों की यशोगाथा, उनके द्वारा जारी की गयी राजाज्ञाएँ, सामंतों, रानियों, मंत्रियों तथा समृद्ध नागरिकों द्वारा किये गये निर्माण कार्य, वीर पुरुषों का यशोगान, सतियों की महिमा आदि अनेक प्रकार की जानकारी मिलती है। जिन शिलालेखों में मात्र किसी शासक की उपलब्धियों की यशोगाथा होती है, उसे प्रशस्ति भी कहते हैं। महाराणा कुम्भा द्वारा निर्मित कीर्तिस्तम्भ की प्रशस्ति तथा महाराणा राजसिंह की राज प्रशस्ति विशेष महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।

प्रमुख शिलालेख निम्नलिखित हैं

बिजौलिया का शिलालेख

यह लेख बिजोलिया गाँव के पार्श्वनाथ मंदिर के समीप ही एक चट्टान पर उत्कीर्ण है। लेख संस्कृत भाषा में है और इसमें 13 पद्य हैं। लेख वि.सं.1226 (फरवरी, 1170) का है। इसमें मंदिर के निर्माण की जानकारी के साथ-साथ सांभर और अजमेर के चौहान वंश के शासकों की उपलब्धियों का भी उल्लेख किया गया है। इस लेख की मुख्य विशेषता यह है कि इसमें चौहानों को वत्सगोत्र के ब्राह्मण कहा गया है।

लेख के द्वारा हमें कई स्थानों के प्राचीन नामों की भी जानकारी मिलती है, जैसे कि जाबालिपुर (जालौर), शाकंभरी (सांभर), श्रीमाल (भीनमाल) आदि। इस लेख में भी हमें बारहवीं सदी के राजस्थान के जन जीवन, धार्मिक व्यवस्था, भौगोलिक और राजनीतिक स्थिति का अध्ययन करने में सहायता मिलती है।

नेमिनाथ (आबू) के मंदिर की प्रशस्ति

आबू के पास देलवाङा गाँव के नेमिनाथ मंदिर में यह प्रशस्ति मंदिर के निर्माता तेजपाल द्वारा लगवाई गयी थी। इस प्रशस्ति में आबू, मारवाङ, सिन्ध, मालवा और गुजरात के कुछ क्षेत्रों पर शासन करने वाले परमार वंशी राजाओं की उपलब्धियों के साथ-साथ वास्तुपाल और तेजपाल के वंशों का भी विवरण है। लेख से उस समय की आर्थिक, धार्मिक और प्रशासनिक व्यवस्था की भी जानकारी मिलती है। लेख वि. सं. 1287 (1230ई.) का है।

चीरवे का शिलालेख

यह लेख उदयपुर से 8 मील दूर चीरवा गाँव के मंदिर के बाहरी द्वार पर लगा हुआ है। 36 पंक्तियों एवं नागरी लिपि में उत्कीर्ण इस लेख में 51 श्लोक हैं। इसमें मेवाङ के गुहिलवंशी राणाओं की, महाराणा समरसिंह के समय तक की उपलब्धियों का उल्लेख मिलता है।

इसके अलावा मेवाङ के पङोसी क्षेत्रों – मालवा, गुजरात, मरू तथा जांगल देश का राजनीतिक विवरण भी उपलब्ध होता है। यह लेख तत्कालीन ग्राम्य – व्यवस्था, सती-प्रथा, सामाजिक एवं धार्मिक जीवन पर भी प्रकाश डालता है। लेख में एकलिंगजी के अधिष्ठाता पाशुपत योगियों और मंदिर की व्यवस्था का भी उल्लेख है। यह लेख वि.सं. 1330 (1273 ई.) का है।

श्रृंगी ऋषि शिलालेख

यह लेख एकलिंगजी से 6 मील दूर श्रृंगी ऋषि नामक स्थान पर लगा हुआ है। यह लेख संस्कृत भाषा में है। इस लेख में मेवाङ के महाराणाओं – हम्मीर, क्षेत्रसिंह, लक्षसिंह और मोकल की उपलब्धियों की जानकारी मिलती है। लेख से भीलों के सामाजिक जीवन पर भी प्रकाश पङता है। मेवाङ-गुजरात और मालवा में राजनीतिक संबंधों की जानकारी के साथ-साथ तत्कालीन धार्मिक जीवन की भी जानकारी मिलती है। लेख वि.सं. 1485 (1428ई.) का है।

रणकपुर प्रशस्ति

47 पंक्तियों का यह लेख रणकपुर के चौमुखा मंदिर के एक स्तंभ में लगे हुये पत्थर पर उत्कीर्ण है। इसमें भी संस्कृत तथा नागरी दोनों लिपियों का प्रयोग किया गया है। प्रस्तुत लेख में बापा से लेकर कुम्भा तक के बहुत से शासकों का वर्णन है। महाराणा कुम्भा की विजयों तथा उनके विरुदों का विस्तृत विवरण दिया गया है। इस लेख से तत्कालीन आर्थिक तथा धार्मिक जीवन के बारे में भी पर्याप्त जानकारी मिलती है। यह लेख वि.सं.1496 (1339ई.) का है।

कीर्तिस्तंभ प्रशस्ति

चित्तौङ दुर्ग में स्थित कीर्तिस्तंभ की कई शिलाओं पर उत्कीर्ण श्लोकों को सामूहिक रूप में कीर्तिस्तंभ प्रशस्ति कहते हैं। इस समय केवल दो ही शिलाएँ बची हैं, अन्य सभी नष्ट हो गयी हैं। वि.सं. 1735 में संकलित प्रशस्ति संग्रह में अधिकांश शिलाओं पर उत्कीर्ण लेखों की नकल से राजस्थान के इतिहास पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पङता है और इसी से कीर्तिस्तंभ प्रशस्ति की उपादेयता स्पष्ट हो जाती है।

प्रशस्ति में हम्मीर, खेता और मोकल की उपलब्धियों के बाद महाराणा कुम्भा के द्वारा सपादलक्ष, नराणा, बसंतपुर और आबू को जीतने का वर्णन है। उसकी सेना जिन भागों से होकर गुजरी, उनके विशद वर्णन से हमें उस युग के काम में आने वाले मार्गों की जानकारी मिलती है। प्रशस्ति में चित्तौङ दुर्ग में निर्मित मंदिरों, मार्गों, जलाशयों, विभिन्न द्वारों का भी वर्णन है। प्रशस्ति से हमें महाराणा कुम्भा के विरुदों की भी जानकारी मिलती है।

प्रशस्ति में कुम्भा को दानगुरु, राजगुरु और शैलशुरू आदि विरुदों से पुकारा गया है। इसमें कुम्भा द्वारा रचित ग्रन्थों – चण्डीशतक, गीत गोविन्द की टीका, संगीतराज आदि का भी उल्लेख है। 15 वीं सदी के राजस्थान के राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन के अध्ययन में इससे सहायता मिलती है। लेख वि.सं. 1517(1460ई.) का है।

बीकानेर का शिलालेख

बीकानेर दुर्ग के द्वार के एक पार्श्व में लगी यह प्रशस्ति बीकानेर नरेश रायसिंह के समय की है। यह संस्कृत भाषा में है। इसमें बीकानेर दुर्ग के निर्माण की जानकारी मिलती है। इसके अलावा इसमें बीकानेर के राठौङ शासकों – बीका जी से रायसिंह तक की उपलब्धियों का भी उल्लेख है। इसमें महाराजा रायसिंह द्वारा काबुलियों, सिन्धियों और कच्छियों पर विजयों का विस्तृत विवरण दिया गया है। प्रशस्ति में रायसिंह की धार्मिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों का भी उल्लेख है। यह वि.सं.1650 (1594ई.)की है।

आमेर का शिलालेख

आमेर के कछवाहा राजवंश के इतिहास के निर्माण में यह लेख बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसमें कछवाहा शासकों को रघुवंशतिलक कहा गया है। इसमें पृथ्वीराज, भारमल, भगवंतदास और मानसिंह का उल्लेख है। इस लेख में मानसिंह को भगवन्तदास का पुत्र बताया गया है। मानसिंह द्वारा जमुआ रामगढ के प्राकार वाले दुर्ग का निर्माण का भी उल्लेख है। लेख संस्कृत तथा नागरी लिपि में है। लेख वि.सं. 1669 (1612 ई.)का है।

राज प्रशस्ति

मेवाङ के महाराणा राजसिंह ने राजसमंद नामक विशाल झील का निर्माण करवाया था। उन्हीं के आदेश पर रणछोङ भट्ट ने संस्कृत में एक महाकाव्य की रचना की और इस महाकाव्य को 25 बङी-बङी श्याम रंग की शिलाओं पर उत्कीर्ण करवाकर झील के तट पर लगवा दिया गया जो आज भी विद्यमान हैं। इस महाकाव्य को राज प्रशस्ति कहा जाता है।

वैसे प्रशस्ति संस्कृत भाषा में है परंतु इसमें कई स्थानीय तथा फारसी शब्दों का भी उपयोग किया गया है। प्रशस्ति के प्रारंभ में मेवाङ के प्रारंभिक राणाओं की उपलब्धियों का उल्लेख है जो काफी काल्पनिक लगती है। कुम्भा, साँगा, प्रताप आदि महाराणाओं की उपलब्धियों का काफी सही वर्णन किया गया है।

महाराजा मानसिंह और महाराणा प्रताप के वैमनस्य और हल्दीघाटी के युद्ध में शक्तिसिंह की भूमिका का अच्छा वर्णन है। इसी प्रकार महाराणा अमरसिंह और जहाँगीर के मध्य संपन्न संधि, महाराणा कर्णसिंह और शाहजहाँ के मैत्रीपूर्ण संबंधों तथा महाराणा राजसिंह के सार्वजनिक कार्यों, पुण्य कार्यों तथा विजयों का भी वर्णन किया गया है। वस्तुतः मेवाङ के राजनीतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास के निर्माण में यह प्रशस्ति अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हुई है। इस प्रशस्ति का समय वि.सं. 1732 (1676ई.) है।

फारसी शिलालेख

भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना के बाद के फारसी भाषा के लेख भी राजस्थान में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। ये लेख मस्जिदों, दरगाहों, कब्रों, राजभवनों, सरायों, तालाबों के घाटों पर पत्थरों पर उत्कीर्ण करके लगाये गये थे। राजस्थान के इतिहास के निर्माण में इन लेखों से भी महत्त्वपूर्ण सहायता मिलती है।

इनके माध्यम से हम राजपूत शासकों और दिल्ली के सुल्तानों तथा मुगल शासकों के मध्य लङे गये युद्धों, राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों पर समय-समय पर होने वाले मुस्लिम प्रभुत्व,, राजनीतिक संबंधों आदि का सही मूल्यांकन कर सकते हैं। फारसी के लेख साम्भर नागौर, जालौर, सांचोर, जयपुर, अलवर, अजमेर, मेङता, टौंक, कोटा आदि क्षेत्रों में अधिक पाये गये हैं, जिससे पता चलता है, कि इन क्षेत्रों पर मुसलमानों का राजनीतिक प्रभुत्व अधिक समय के लिये रहा होगा।

इन लेखों से हमें मुस्लिम युग की प्रशासनिक इकाइयों तथा प्रशासनिक अधिकारियों एवं कर्मचारियों के बारे में भी पर्याप्त जानकारी मिलती है। कुछ लेख दिल्ली सुल्तानों और मुगल शासकों की धार्मिक उदारता की जानकारी भी देते हैं। इसके अलावा इन लेखों से उस युग की सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक स्थिति की भी जानकारी उपलब्ध होती है।

फारसी का सबसे पुरालना लेख अजमेर का ढाई दिन के झोंपङे के गुम्बज की दीवार के पीछे लगा हुआ मिला है। यह लेख 1200 ई. का है और इसमें उन व्यक्तियों के नामों का उल्लेख है जिनके निर्देशन में मस्जिद का निर्माण-कार्य करवाया गया। चित्तौङ में सुल्तान गयासुद्दीन का लेख मिला है जो संभवतः 1321-25 ई. का होना चाहिये। इसी प्रकार चित्तौङ में 1325 ई. का एक लेख धाईबी पीर की दरगाह में मिला है।

इस लेख में चित्तौङ का नाम खिज्राबाद अंकित किया गया है। जालौर और नागौर में इस प्रकार के बहुत से लेख मिले हैं, जिनसे इस क्षेत्रों पर मुस्लिम प्रभुत्व की जानकारी मिलती है। पुष्कर के जहाँगीरी महल के लेख (1615ई.) से राणा अमरसिंह पर जहाँगीर की विजय की जानकारी मिलती है।

इस घटना की पुष्टि 1637 ई. के शाहजहानी मस्जिद, अजमेर के लेख द्वारा भी होती है, जिसमें कहा गया है, कि जब शाहजादा खुर्रम राणा को परास्त करके यहाँ आया तो उसने यहाँ पर मस्जिद बनाने का प्रण किया और बादशाह बनने के बाद उसने उक्त मस्जिद बनवाई। शाहजहानी दरवाजा, दरगाह अजमेर के लेख (1654ई.) से पता चलता है, कि शाहजहाँ ने मूर्तिपूजा के अंधकार को समाप्त कर दिया।

अर्थात् इससे शाहजहाँ की धर्मान्धता का पता चलता है। कोटा जिले के शाहबाद लेख (1679ई.) से औरंगजेब के समय में वसूल किये जाने वाले विविध करों की जानकारी मिलती है । तारागढ की सैय्यद हुसैन की दरगाह के लेख (1813 ई.) से पता चलता है, कि राव गुमानजी सिन्धिया ने इस भवन के दालान का निर्माण करवाया था। इससे मराठों की दार्मिक सहिष्णुता का पता चलता है।

सिक्के

इतिहास की जानकारी के स्रोतों में सिक्कों का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्राचीनकाल से ही सिक्के दैनिक लेन-देन, व्यापार-वाणिज्य, राजकीय आय एवं आर्थिक व्यवस्था के आधारस्तंभ रहे हैं। राजनीतिक दृष्टि से सिक्के शासकों की प्रभुसत्ता के प्रतीक माने जाते थे। अतः लगभग सभी शासकों ने अपने शासनकाल में अपने नाम के सिक्के जारी किये थे।

राजस्थान के विभिन्न राज्यों – मेवाङ, डूँगरपुर, प्रतापगढ, बाँसवाङा, जोधपुर, बीकानेर, जयपुर, बून्दी, कोटा, किशिनगढ, झालावाङ, जैसलमेर, अलवर, भरतपुर, धौलपुर, टौंक, सिरोही आदि के शासकों द्वारा सोने, चाँदी, ताँबे और सीसे के सिक्के जारी किये गये थे और अब तक लाखों की संख्या में ये सिक्के मिल चुके हैं। इन सिक्कों के माध्यम से हम शासकों का वंशक्रम निर्धारित कर सकते हैं।

उनके शासनकाल की आर्थिक सम्पन्नता का अनुमान लगा सकते हैं। सिक्कों पर उत्कीर्ण विशेष धार्मिक चिह्नों के आधार पर शासक की धार्मिक वृत्ति की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। सिक्कों की बनावट तथा उत्कीर्ण शब्दों एवं मूर्तियों के आधार पर उस समय की कला, वेश-भूषा आदि का बोध होता है। शुद्ध धातु के सिक्के जहाँ शासक की सम्पन्नता को उजाग करते हैं, वहीं अशुद्ध धातु या कम मूल्यवान धातु के सिक्के आर्थिक कठिनाइयों का संकेत करते हैं।

कुछ प्रमुख सिक्के

अजमेर के चौहान शासकों के कई चाँदी व ताँबे के सिक्के मिलते हैं। जो 11वीं से 13 वीं सदी के प्रारंभ तक के समय में जारी किये गये थे। शिलालेखों में चौहानों के सिक्कों के लिये द्रम्म, विंशोपक, रूपक, दीनार आदि नामों का प्रयोग किया गया । चौहान नरेशों में अजयराज, सोमेश्वर और पृथ्वीराज तृतीय के सिक्के विशेष प्रसिद्ध हैं। पृथ्वीराज चौहान के समय का एक सिक्का मिला है जो 1192 ई. का है। इस सिक्के के एक तरफ मुहम्मद बिन साम और दूसरी तरफ पृथ्वीराज का नाम अंकित है। इस सिक्के के आधार पर कुछ विद्वानों का मानना है कि तराइन के द्वितीय युद्ध के बाद पृथ्वीराज को गजनी नहीं ले जाया गया था।

महाराणा कुम्भा के चाँदी और ताँबे के सिक्के मिलते हैं जिन पर कुम्भकर्ण, कुम्भलमेरु आदि विरुद अंकित हैं। अकबर की चित्तौङ विजय के बाद मेवाङ में मुगल शासकों के सिक्के भी चलने लगे जिन्हें सिक्का एलची कहा जाता था। बाद में चित्तौङ, भीलवाङा और उदयपुर की टकसालों से स्थानीय सिक्के जारी किये गये जिनको चित्तौङी, भिलाङी और उदयपुरी रुपैया कहते थे। जोधपुर राज्य में पहले चौहानों के सिक्के चलते थे।

बाद में दिल्ली सुल्तानों और फिर मुगल शासकों के सिक्कों का जमाना आया। मुगल साम्राज्य के पतन के दिनों में जोधपुर के शासकों ने बादशाह की आज्ञा से अपने राज्य में टकसालें खोलकर अपने नाम के सिक्के ढलवाये। इनमें विजयशाही सिक्का काफी लोकप्रिय रहा। बीकानेर में भी मुगल शासकों के सिक्के जारी थे।

सर्वप्रथम महाराजा गजसिंह को बादशाह आलमगीर से सिक्के बनाने की स्वीकृति मिली। उसके बाद से वहाँ के शासकों ने अपने नाम के सिक्के ढलवाने जारी रखे। मुगल शासकों के साथ अधिक मैत्रीपूर्ण संबंधों के कारण जयपुर के कछवाहा शासकों को अपने राज्य में टकसाल खोलने की स्वीकृति अन्य राज्यों से पहले मिल गयी थी। वहाँ के सिक्कों को झाङशाही कहा जाता था। ब्रिटिश सत्ता की स्थापना के बाद कलदार रूपये का प्रचलन हुआ और धीरे-धीरे राजपूत राज्यों में मिलने वाले सिक्कों का प्रचलन समाप्त हो गया।

ताम्र-पत्र (दान पत्र)

प्राचीन काल से ही राजा-महाराजा, रानियाँ, सामंत एवं समृद्ध लोग दान-पुण्य के लिये भूमि अनुदान में देते आये हैं । स्थायी अनुदायों को ताम्बे की चद्दर पर उत्कीर्ण करवा दिया जाता था। इसीलिए इन्हें ताम्र-पत्र कहा जाता था। ताम्र-पत्रों में पहले संस्कृत भाषा का प्रयोग किया जाता था परंतु बाद में स्थानीय भाषा का प्रयोग किया जाने लगा।

दान पत्र में राजा का नाम, अनुदान पाने वाले का नाम, अनुदान देने का कारण, अनुदान में दी गयी भूमि का विवरण, समय, अनुदान देने वाले का नाम आदि का उल्लेख किया जाता था। इसलिये दान पत्रों से कई राजनीतिक घटनाओँ, आर्थिक स्थिति, धार्मिक विश्वासों आदि की उपयोगी जानकारी मिलती है। दान पत्रों से विविध राजवंशों के वंशक्रम को निर्धारित करने में भी सहायता मिलती है।

इनसे भूमि नापने की इकाइयों, भूमि की किस्म, रबी व खरीब की फसलों आदि के बारे में भी पर्याप्त जानकारी मिलती है। आहङ के ताम्रपत्र (1206ई.) में गुजरात के मूलराज से लेकर भीमदेव द्वितीय तक के सोलंकी राजाओं की वंशावली दी गयी है। इससे यह भी पता चलता है, कि भीम देव के समय में मेवाङ पर गुजरात का अधिकार था। वीरसिंह देव के ताम्रपत्र(1287ई.) से बागङ के राजाओं के वंशक्रम को निर्धारित करने में सहायता मिलती है।

खेरोदा के ताम्रपत्र (1437ई.) से एकलिंग जी में महाराणा कुम्भा द्वारा प्रायश्चित करने, दान में दिये गये खेतों के आस-पास से गुजरने वाले मुख्य मार्गों, उस समय में प्रचलित मुद्रा, धार्मिक स्थिति आदि की जानकारी मिलती है। चीकली ताम्रपत्र (1483ई.) से किसानों से वसूल की जाने वाली विविध लाग बागों का पता चलता है।

पुर के ताम्रपत्र (1535ई.) में हाङी रानी कमेती (कर्मवती) द्वारा जौहर में प्रवेश करते समय दिये गये भूमि अनुदान की जानकारी मिलती है। जब बहादुरशाह ने चित्तौङ पर दूसरी बार आक्रमण किया था, उस समय राजपूत स्रियों ने जौहर के द्वारा अपने सतीत्व की रक्षा की थी। यह ताम्रपत्र उसी घटना की पुष्टि करता है।

अन्य पुरालेखीय स्रोत

अन्य पुरालेखीय स्रोत हिन्दी, राजस्थानी, फारसी और अँग्रेजी में लिखित पत्रों, बहियों, पट्टों, फाइलों, फरमानों, रिपोर्टों आदि के रूप में हैं। मुगल शासकों को सरकारी कागजातों को संगृहीत करने में रुचि थी और इस काम के लिये वे पृथक अधिकारी तथआ कर्मचारी नियुक्त करते थे।

मुगलों की इस रुचि का प्रभाव राजपूत शासकों पर भी पङा और उनेहोंने भी अपने राजकीय कागजातों के संग्रह की तरफ ध्यान दिया। अतः प्रत्येक राज्य ने इन पत्रों तथा अपने राज्य से संबंधित अन्य राजकीय कागजातों को सुरक्षित रखने का प्रयास किया। 18 वीं सदी की राजनैतिक उथल-पुथल और मराठों की घुसपैठ के परिणामस्वरूप बहुत सी पुरालेख सामग्री नष्ट हो गयी, फिर भी कुछ अवशेष रह गये।

19 वीं और 20वीं शताब्दियों का पुरालेख साहित्य आज भी राजस्थान राज्य के केन्द्रीय पुरालेख विभाग (राजस्थान राज्य अभिलेखागार), बीकानेर में सुरक्षित है। इसी प्रकार ब्रिटिश सरकार और राजपूत राज्यों का पत्र-व्यवहार तथा राजपूत राज्यों में नियुक्त ब्रिटिश एजेन्टों तथा रेजीडेन्टों द्वारा अपनी सरकार को प्रेषित रिपोर्टें राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली में सुरक्षित हैं। इस प्रकार से उपलब्ध पुरालेख सामग्री के वैज्ञानिक अध्ययन से राजस्थान के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक इतिहास के निर्माण में महत्त्वपूर्ण सहायता मिलती है।

फारसी भाषा में लिखित फरमान, मन्सूर, रुक्का, निशान, हस्तबुल हुक्म, इंशा और रुक्केयात तथा वकील रिपोर्ट महत्त्वपूर्ण पुरालेख सामग्री हैं। इनमें से फरमान, मन्सूर व रुक्के स्वयं मुगल सम्राट द्वारा जारी किये जाते थे। सामान्यतः ये शाही वंश से संबंधित लोगों, शाही मनसबदारों तथा विदेशी शासकों के नाम से जारी किये जाते थे। सम्राट द्वारा जारी किये जाने वाले कागजातों पर सम्राट का तुगश होता था और इसके साथ स्वयं सम्राट द्वारा लिखी गयी कुछ पंक्तियाँ अथवा उसके दायें हाथ के पंजे का निशान होता था।

जहाँगीर के समय में नूरजहाँ के प्रभुत्व काल में सरकारी कागजातों पर नूरजहाँ की मोहर भी लगाई जगाती थी। राजस्थान के कुछ शासकों ने इस प्रकार के फरमानों, मन्सूरों एवं रुक्कों को सुरक्षित रखा, जो इस समय बीकानेर के राज्य अभिलेखागार में मौजूद हैं। इनसे राजपूत शासकों और मुगल शासकों के आपसी संबंधों तथा मुगल साम्राज्य की सुरक्षा में राजपूत शासकों के योगदान की महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।

मुगल सम्राट की आज्ञानुसार शाही पदाधिकारियों द्वारा जारी किये जाने वाले कागजात हस्बुल हुक्म, इंशा व रुक्केयात के नाम से पुकारे जाते थे। राजपूत राजाओं की तरफ से सम्राट तथा शाहजादों की सेवा में प्रेषित कागजात अर्जदाश्त के नाम से पुकारे जाते थे। ये भी प्रचुर मात्रा में पुरालेख विभाग में उपलब्ध हैं। मुगल शासनकाल में प्रत्येक राजपूत शासक मुगल दरबार में अपना वकील रखता था जो अपने शासक को दरबार की गतिविधियों के बारे में नियमित रूप से सूचना भेजते रहते थे। इनको वकील रिपोर्ट कहा जाता था।

इसके अध्ययन से न केवल राजपूत शासकों और मुगस सम्राटों के आपसी संबंधों का ही पता चलता है,अपितु मुगल दरबार में होने वाली कूटनीतिक घटनाओं, राजनीतिक घटनाओं, राजनीतिक षड्यंत्रों, उत्तराधिकार संघर्ष और अमीरों की दलबंदी की भी जानकारी मिलती है। वकील रिपोर्टों से राजस्थान के इतिहास के तिथिक्रम को निर्धारित करने में भी सहायता मिलती है।

राजपूत राज्यों में बहियाँ लिखने की परंपरा मध्यकाल में शुरू हो चुकी थी। जिन बहियों में राजा की दैनिकचर्या का उल्लेख रहता था उन्हें हकीकत बहियें कहा जाता था। जिनमें शासकीय आदेशों की नकल होती थी उन्हें हकूमतरी बही महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों से आने वाले पत्रों की नकल जिसमें रहती थी, उसे खरीता बङी, विवाह – शादि से संबंधित बही विवाह की बही, सरकारी भवनों के निर्माण से संबंधित बहियाँ कमठाना बही इत्यादि बहुत सी बहियाँ अभिलेखागार में उपलब्ध हैं। राज्य अभिलेखागार बीकानेर में जिन प्रमुख राज्यों के रिकार्ड्स उपलब्ध हैं, उनकी संक्षिप्त जानकारी निम्नलिखित हैं

जोधपुर राज्य से संबंधित रिकार्ड्स में हकीकत बहियाँ, हकीकत खाता रजिस्टर, हकीकत खाता बहियाँ, खास रुक्का बहियाँ, हथ बहियाँ, अर्जी बहियाँ, पट्टा बहियाँ, दस्तरी रिकार्ड्स बहियाँ, जमाखर्च बहियाँ मुख्य हैं। बीकानेर राज्य से संबंधित रिकार्ड्स में माल री बहियाँ, हासिल बहियाँ, खालसा गाँवों की बहियाँ, जमा-खर्च बहियाँ, पुण्यार्थ बहियाँ, कमठाना बहियाँ मोदीखाना बहियाँ, जगात री बहियाँ, कागदाँ री बहियाँ मुख्य हैं।

उदयपुर राज्य में संबंधित रिकार्ड्स में बक्शीखाना बहियाँ, देवस्थान बहियाँ, सिलहखाना के कागजात, हिसाब के रिकार्ड्स मेहता संग्रामसिंह कलेक्शंस की फाइलें तथा श्यामलदास कलेक्शंस के गोपनीय पत्र मुख्य हैं। जयपुर राज्य से संबंधित रिकार्ड्स से सियाहजूर और दस्तूर कौमवार के अलावा तौजी रिकार्ड्स, नक्सा जमा परगनात, कारखाना जात फाइलें आदि महत्त्वपूर्ण हैं। सियाहजूर में राज परिवार से संबंधित खर्चे की जानकारी मिलती है तो दस्तूर कौमबार की 32 जिल्दों से विभिन्न कौमों के प्रमुख व्यक्तियों को दरबार की तरफ से दिये जाने वासे सम्मान आदि की जानकारी मिलती है।

अजमेर से प्राप्त दरगाह की फाइलों तथा अजमेर के कमिश्नर आफिस की फाइलों से भी महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। राजघरानों के अलावा बङे-बङे ठिकानों के जागीरदारों तथा समृद्ध सेठ-साहूकारों की बहियों से भी इतिहास के निर्माण में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।

राष्ट्रीय अभिलेखागार, दिल्ली में राजपूत राज्यों से संबंधित रिकार्ड्स प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। इसमें फोरेन डिपार्टमेण्ट के पोलीटिकल कंसल्टेशन एवं फोरेन डिपार्टमेण्ट के सीक्रेट कंसल्टेशन विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। इनके द्वारा हमें राजपूत राज्यों के साथ ईस्ट इंडिया कंपनी की संधियाँ, शासकों, सामंतों और ब्रिटिश समर्थक दलों, सैनिक बटालियनों की स्थापना, खिराज, जागीरदारों की सैनिक सेवा, उत्तराधिकारी और अभिभावन परिषद्, कुशासन, सती और कन्या वध, कृषि, भूमिकर और भूमि बंदोबस्त, अकाल, शिक्षा, उद्योग-धंधे तथा व्यापार-वाणिज्य, राहदारी और चुँगी शुल्क और परिवहन संबंधी महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।

इससे स्पष्ट है कि मध्यकालीन तथा आधुनिक राजस्थान के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक इतिहास के निर्माण में पुरालेखागारीय स्रोतों का बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
vidhyarthidarpan : पुरालेखीय स्रोत

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