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पेशवाओं के अधीन मराठा प्रशासन

18 वीं तथा 19 वीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में मराठा प्रशासन हिन्दू तथा मुस्लिम संस्थाओं का उत्तम सम्मिश्रण था। मराठा राज्य उस समय अस्तित्व में आया जब हिन्दू तथा मुस्लिम सरकार तथा वित्तीय सिद्धांत कई शताब्दियों से एक-दूसरे को प्रभावित कर चुके थे। मराठा प्रशासन के मूल तत्व हिन्दू थे जिसमें कई मुस्लिम विशेषताएं प्रवेश कर चुकी थी। यह सत्य है कि पेशवाओं ने समय के अनुसार उनमें कई परिवर्तन किए थे।

पेशवाओं के अधीन मराठा प्रशासन

मुगल सम्राट की स्थिति के स्थान पर मराठा प्रशासन में एक स्पष्ट परिवर्तन था। शिवाजी के अधीन मराठा संविधान में मुगल सम्राट के लिए कोई स्थान नहीं था। परंतु शाहू के काल में मुगल सम्राट की सर्वोच्चता स्वीकार कर ली गयी थी। 1719 की संधि के अनुसार शाहू ने 10,000 का मनसब फर्रुखसीयर से स्वीकार किया तथा 10 लाख रुपया वार्षिक उसे खिराज देना स्वीकार किया। शाहू का कथन था कि वह सम्राट के अपमान तथा अवज्ञा का द्योतक है। इसी प्रकार महादजी सिन्धिया ने मुगल सम्राट से शाहू का वकील-ए-मुतलिक की पदवी दिलवाई तथा नाना फङनवीस भी सम्राट को पृथ्वीसिंह की संज्ञा देते थे।

सतारा के राजा

मराठा साम्राज्य का मुखिया शिवाजी का वंशज, छत्रपति था जो सतारा का राजा था। वह सभी नियुक्तियां करता था। परंतु राजा की शक्तियां तथा प्रतिष्ठा कम हो गयी थी, विशेषकर जब से पेशवा का पद बालाजी विश्वनाथ के वंश में वंशानुगत बन गया था। शाहू जब तक जीवित रहा राज्य तथा शासन दोनों करता रहा। शाहू का पुत्र केवल नाम मात्र का राजा रह गया। 1750 की संगोला की संधि से पेशवा ही राज्य का वास्तविक मुखिया बन गया तथा राजा केवल महलों का महापौर । परंतु राजा की झूठी सत्ता राज्य के अंत तक बनी रही। हां, यह स्मरण रहे कि राजा की सत्ता का अपहरण चुपचाप तथा धीरे-धीरे हुआ। स्कॉटवारिंग ने सत्य ही कहा है कि पेशवा द्वारा शक्ति अपहरण से न किसी को आश्चर्य हुआ न किसी ने इसकी ओर विशेष ध्यान दिया। वास्तव में यह संक्रमण, सरल, प्राकृतिक तथा क्रमिक था।
राजा की शक्ति का अपहरण शाहू के उत्तराधिकारियों के काल में इतना पूर्ण हो गया कि राजा के निजी व्यय पर पेशवा का सचिवालय कङी निगरानी रखता था। उसे अपने भृत्यों की नियुक्ति करने अथवा हटाने का अधिकार नहीं था तथा भृत्य पूने से भेजे जाते थे। राजा के आदेश प्रायः पेशवा रद्द कर देता था और उसे विशेष मदों के लिए अनुदान मांगना पङता था।

पेशवा

आरंभ में पेशवा बालाजी की अष्टप्रधान समिति का सदस्य होता था अर्थात् आठ मंत्रियों में से एक, और संभवतः इस सूची में दूसरे स्थान पर। बालाजी विश्वनाथ सातवें पेशवा थे। परंतु उन्होंने अपनी योग्यता तथा राजमर्मज्ञता से इस पद को वंशानुगत बनाया। उनके पुत्र ने इस पद को मराठा प्रशासन में सर्वोच्च बना दिया। प्रतिनिधि, जो मुख्य सरदारों की परिषद थी, के विरोध करने पर भी शाहू ने बाजीराव की उत्तर में प्रसार की नीति को स्वीकार किया तथा इससे यह क्रिया अधिक तीव्र हो गयी। ज्यों-ज्यों पेशवा को उत्तर में अधिकाधिक सफलताएं मिलती गयी, त्यों-त्यों उसकी स्थिति और भी अधिक दृढ होती चली गयी। पुर्तगाली बस्तियों के गवर्नर-जनरल मार्क्विस ऑफ अलोरना के अनुसार – राजा केवल एक छाया मात्र बन कर रह गया था जिसकी पूजा तो अवश्य होती थी परंतु आज्ञा कोई नहीं मानता था।

प्राचीन अभिजात वंश जैसे, अंग्रिया, भोंसले, गायकवाङ, पेशवा को अपने समान मानते थे तथा उसकी आज्ञा केवल इसिलए मानते थे क्योंकि वह राजा का नायब था। उदाहरण के रूप में अंग्रिया आशा करते थे कि उनके पूना आने पर पेशवा नगर से दो मील बाहर आकर उन्हें लिवा ले जाएं तथा उनके आने पर घोङे से उतर कर गशा, जो एक कढाई किया हुआ कपङा होता था, पर खङे होकर उनकी आगवानी करें। परंतु नवीन अभिजात वंश, सिंधिया, होल्कर, रस्तिया लोग जिन्हें पेशवा ने ही महत्ता प्रदान की थी, उन्हें अपना स्वामी तथा अपने बच्चों का अन्नदाता मानते थे। इस प्रकार पेशवा के उत्थान ने सरदारों के बीच समानता की भावना समाप्त कर दी तथा भोंसले तथा अंग्रिया के लिए भी एक बुरा उदाहरण बना दिया था। डॉक्टर एस.एन.सेन लिखते हैं कि इसके फलस्वरूप मराठा साम्राज्य पवित्र रोमन साम्राज्य की भांति ही बन गया अर्थात महत्वाकांक्षी सरदारों का एक ढीला सा संगठन तथा पेशवा रोमन सम्राट की तरह इस गठन का नेता मात्र रह गया उसका प्रभुत्व केवल उन्हीं क्षेत्रों में रह गया जो सीधे उसके नियंत्रण में थे।

केन्द्रीय प्रशासन

पूना में पेशवा का सचिवालय, जिसे हजूर दफ्तर कहते थे, मराठा प्रशासन के का केन्द्र था। यह एक विशाल संस्था बन गया था जिसमें अनेक विभाग तथा कार्यालय थे। जे.मैक्लाउड के शब्दों में, इस सचिवालय के कार्य को यूं वर्णित किया जा सकता है, जिलों की आय तथा व्यय का ब्योरा जो सरकार को जिलों के वंशानुगत अधिकारी भेजते थे, गांव के अधिकारियों द्वारा भेजा गया विवरण, लोक राजस्व की छूट, चाहे वह सरिंजाम, इनाम अथवा कुछ अन्य हो, सरकार तथा ग्राम के अधिकारियों के वेतन तथा भत्ते, सैनिकों की संख्या तथा वेतन, असैनिक, सैनिक तथा धार्मिक व्यय सभी का लेखा-जोखा यहां रहता था। रोज किरद (दैनिक रजिस्टर), सभी करों के लेन-देन के रजिस्टर, जिन में सभी अनुदानों तथा भुगतानों का ब्योरा होता था, यहीं रखे जाते थे। इन सभी पर विचार कर एक व्यापक दृश्य तरजुमा में प्रस्तुत किए जाते थे।

सबसे महत्त्वपूर्ण विभाग एलबेरीज दफ्तर तथा चातले दफ्तर होते थे। इनमें से प्रथम सभी प्रकार के लेखों से संबंध रखता था तथा पूना में स्थित था।यह शेष सभी विभागों का वर्गीकृत ब्योरा रखता था तरजुमा प्रस्तुत करता था जो राज्य की वार्षिक आय की कुल प्राप्ति, व्यय तथा बचत का ब्योरा होता था तथा एक ऐसी खतौनी तैयार करता था जो कि व्यय का अनुवर्णित क्रम सारणी रूप से वर्णित सारांश होता था। चातले दफ्तर सीधा फङनवीस के अधीन होता था। नाना फङनवीस ने हजूर दफ्तर की कार्य प्रणाली में बहुत से सुधार किए परंतु पेशवा बाजीराव द्वितीय के काल में यह सभी अस्तव्यस्त हो गया।

प्रांतीय तथा जिला प्रशासन

पेशवाओं के अधीन – तरफ, परगना, सरकार तथा सूबा आदि शब्दों का अविवेक रूप से प्रयोग किया जाता था। प्रायः सूबे को प्रांत कहते थे तथा तरफ अथवा परगने को महल भी कहते थे। खानदेश, गुजरात तथा कर्नाटक जैसे बङे-बङे प्रान्त सर सूबेदारों के अधीन होते थे। कर्नाटक का सर सूबेदार अपने मामलतदार स्वयं नियुक्त करता था। परंतु खानदेश के सर सूबेदार को केवल अधीक्षण का ही अधिकार था तथा उसके अधीनस्थ मामलतदार सीधे केन्द्रीय दफ्तर को अपना ब्यौरा देते थे।
सर सूबेदार के अधीन एक मामलतदार होता था जिस पर मंडल, जिले, सरकार, सूबा इत्यादि का कार्य भार होता था। मामलतदार तथा कामविसदार दोनों ही जिले में पेशवा के प्रतिनिधि होते थे। वे सभी प्रकार के कार्यों की देख-भाल करते थे जैसा कि खेती अथवा उद्योग का विकास, दीवानी तथा फौजदारी न्याय, स्थानीय हिबन्दी (नागरिक सेना), पुलिस तथा सामाजिक और धार्मिक झगङों में विवेचना इत्यादि। ग्रामों में कर निर्धारण मामलतदार स्थानीय पटेलों के परामर्श से करता था, यदि आवश्यक हो तो मामलतदार कर वसूली के लिए हिबन्दी सैनिकों का प्रबंध भी करता था।
मामलतदार तथा कामविसदार के वेतन तथा भत्ते भिन्न-भिन्न जिलों की महत्ता के अनुसार होते थे। शिवाजी के काल में ये अधिकार हस्तान्तरणीय होते थे परंतु पेशवाओं के अधीन ये प्रायः वंशानुगत हो गए, जिससे रिश्वत तथा भ्रष्टाचार फैल गया।
देशमुख तथा देशपाण्डे अन्य जिला अधिकारी थे जो मामलतदार पर एक नियंत्रण के रूप में कार्य करते थे। उनकी पुष्टि के बिना कोई लेखा स्वीकार नहीं किया जाता था, इसके अलावा दरखदार जो एक वंशानुगत तथा मामलतदार से स्वतंत्र अधिकारी था, इन पर नियंत्रण के रूप में कार्य करता था। इसी प्रकार प्रत्येक जिले में कारकुन भी होता था जो विशेष घटनाओं की सूचना सीधे केन्द्र को देता था।
इस से छोटे प्रशासकीय भागों, महल अथवा तरफ का प्रशासन भी जिलों की भांति ही था। महल में मुख्य कार्यकर्त्ता हवलदार होता था तथा मजूमदार और फङनवीस उसकी सहायता करते थे।

स्थानीय अथवा ग्राम प्रशासन

प्राग् ऐतिहासिक काल से ही भारतीय ग्राम समुदाय, स्थानीय प्रशासन की इकाई के रूप में कार्य करते थे। यह स्वतः पूर्ण तथा आत्मनिर्भर ग्राम समुदाय सरकारी अधिकारियों के निरीक्षण में पूर्णतया स्वायत्तता भोगते थे। मुख्य ग्राम अधिकारी पटेल होता था जो कर संबंधी, न्यायिक तथा अन्य प्रशासनिक कार्य करता था। वह ग्राम तथा पेशवा के अधिकारियों के बीच एक कङी था। पटेल का पद वंशानुगत था तथा इसका क्रय-विक्रय किया जा सकता था। इसका आंशिक हस्तातरण भी हो सकता था। उस अवस्था में एक ग्राम में एक से अधिक पटेल भी हो सकते थे। पटेल को सरकार से वेतन नहीं मिलता था। वह एकत्रित कर का एक छोटा सा भाग अपने लिए रख लेता था। वह ग्राम समाज का नेता भी होता था तथा उसके अपने ग्राम के प्रति कुछ उत्तरदायित्व भी होते थे।

पटेल को भूमि कर राज्य को देना होता था तथा न देने की अवस्था में उसे जेल में भी डाल दिया जाता था। राजनैतिक गङबङी के समय ये अपने ग्राम की नेक चलनी की जमानत भी देते थे। उसके नीचे कुलकर्णी होता था जो ग्राम की भूमि का लेखा रखता था। पटेल की भांति कुलकर्णी को भी ग्रामवासी कुछ अनुलाभ देते थे। इसके अलावा ग्रामों में बारह बलूटे अथवा शिल्पी होते थे जो ग्राम की भिन्न सेवाएं करते थे जिनके बदले उन्हें अन्न मिलता था। कुछ ग्रामों में बारह बलूटों के अलावा बारह अलूटे होते थे जो सेवक के रूप में काम करते थे।

नगर प्रशासन

मराठों का नागरिक प्रशासन मौर्य प्रशासन से मिलता-जुलता था। कोतवाल, मौर्य नागरक के बराबर होता था। वह नगर का मुख्य शासक होता था। उसका कर्त्तव्य महत्वपूर्ण झगङों को निबटाना, मूल्यों को नियमित करना नगर में आने-जाने वालों का ब्यौरा रखना, राजपथों, मकानों तथा गलियों के झगङों आदि को निबटाना तथा सरकार को इन कार्यों का मासिक ब्योरा भेजना होता था। सब से महत्त्वपूर्ण यह था कि कोतवाल नगर का मुख्य दंडाधिकारी तथा पुलिस का मुखिया होता था।

न्याय प्रणाली

प्राचीन हिन्दू स्मृतिकारों का सब से अधिक प्रभाव मराठा न्याय प्रणाली में देखने को मिलता है। मराठा कानून, प्राचीन संस्कृत स्मृति ग्रंथों, दाय भाग तथा मनु स्मृति आदि पर आधारित थे।
न्याय के लिए ग्राम में पटेल, जिले में मामलतदार, सूबे में सर सूबेदार तथा अंत में सतारा का राजा होता था। नगरों में न्यायाधीश होते थे जो कि शास्त्रों में पारंगत होते थे तथा केवल न्याय कार्य ही करते थे। इस प्रकार मराठे न्याय तथा कार्यपालिका के पार्थक्य से अनभिज्ञ नहीं थे।
न्याय का प्रशासन साधारण तथा समय की आवश्यकता के अनुसार था। मुकदमों की कार्यविधि निश्चित नहीं थी तथा न ही कानून संहिताबद्ध था। प्रयत्न इस बात का होता था कि आपस में मित्रतापूर्ण समझौता हो जाए। छत्रपति तथा पेशवा आधुनिक न्यायाधीशों के स्थान पर प्राचीन कुलपिता की भूमिका निभाते थे।
दीवानी मुकदमों का फैसला पंचायतें करती थी। उन्हें प्रायः पंचपरमेश्वर कहते थे। पंचों को मां बाप के शब्द से संबोधित करते थे, पंचायत की आज्ञा दोनों पक्षों को स्वीकार करनी पङती थी। पंचायत से अपील मामलदार के यहां होती थी। जब तक यह न सिद्ध हो जाए कि पंचायत ने बेईमानी की है वह प्रायः पंचायत के फैसले की पुष्टि कर देता था। इस अवस्था में पंचायत के निर्णय को पेशवा पुनः सुन सकता था।
फौजदारी मामलों में अधिकारी दीवानी वाले ही होते थे। प्रायः कोङे लगाए जाते थे तथा देशद्रोह के मामले में यातनाएं दी जाती थी। डकैती, वध, देशद्रोह इत्यादि में जेल अथवा संपत्ति जब्त करने की सजा भी दी जाती थी। न्याय का उद्देश्य सुधार था न कि अपराधी को निराश बनाना।

पुलिस

पुलिस के प्रबंध संतोषजनक थे। पूना की महानगरीय पुलिस ईमानदार तथा कार्यकुशल थी। उन्होंने एल्फिन्सटन तथा टोन जैसे यूरोपीय लेखकों से प्रशंसा प्राप्त की है। एल्फिन्सटन के अनुसार इस कार्य पर 9,000 रुपये वार्षिक व्यय किया जाता था। इसमें अनेक चपरासी, घुङसवार, गश्ती टुकङियां तथा रामोशी थे। टोन ने भी इसकी प्रशंसा की है। वह लिखता है, रात में 10 बजे तोप दागने के बाद मार्गों पर चलने वाले व्यक्ति पुलिस के हाथों नहीं बचते थे तथा प्रातः काल तक कोतवाल महोदय उन्हें न छोङ दें, वे जेल में बंद रहते थे। यह अनुशासन इतना कठोर था कि पेशवा को भी इसी नियंत्रण में रहना पङता था।

कर व्यवस्था

भारत का मुख्य व्यवसाय कृषि ही था अतः भूमि कर आय का मुख्य साधन था। शिवाजी खेत की वास्तविक उपज का भाग लेना पसंद करते थे परंतु पेशवाओं के काल में यह लंबी अवधि के लिए निश्चित कर दिया जाता था। यह सिंचाई की सुविधाओं पर निर्भर होता था। परंतु खेती तथा उर्वरता के अनुसार भी भूमि का वर्गीकरण होता था जो कि निश्चय ही मुगल प्रभाव था।
कृषक को नई भूमि जोतने की प्रेरणा देने के लिए, उस पर कर कम होता था। पेशवा माधवराव ने बंजर तथा पथरीली भूमि को जोतने पर आज्ञा दी कि ऐसी भूमि का आधा भाग इनाम के रूप में किसान को दे दिया जाएगा तथा शेष आधे पर आने वाले 20 वर्ष तक रियायती दर से कर लिया जाएगा तथा अगले 5 वर्ष तक कम कर लगेगा। अकाल तथा सूखा पङने, खेत उजङने अथवा फसल नष्ट होने पर भूमि कर छोङ दिया जाता था तथा किसान को साहूकार के हाथों बचाने के लिए उन्हें तगाई (तकावी) ऋण, थोङे सूद पर दिए जाते थे।
कर लगाने तथा एकत्रित करने की अवस्था समस्त देश में एक सी नहीं थी। इस प्रकार मराठा कर व्यवस्था में करदाता को संरक्षण मिलता था परंतु बाजीराव द्वितीय के काल में यह अवस्था नष्ट हो गयी तथा कर वसूली का अधिकार नीलामी पर दिया जाने लगा।

राज्य की आय के अन्य स्रोत

राज्य की आय के अन्य स्रोत – चौथ (25 प्रतिशत), तथा सरदेशमुखी (10 प्रतिशत) थी जो उन प्रदेशों को देनी पङती थी जो मराटों की चपेट में आ जाते थे। उन्हें अपने बचाब के लिए ऐसा करना पङता था। चौथ की आय का बंटवारा इस प्रकार होता था – बबती अर्थात् 1/4 भाग राजा के लिए सहोत्रा अथवा 6 प्रतिशत पंत सचिव के लिए, नाङगुण्डा अथवा 3 प्रतिशत राजा की इच्छा पर निर्भर तथा शेष मोकास अथवा 66 प्रतिशत मराठा सरदारों को घुङसवार रखने के लिए दिया जाता था।
सरदेशमुखी भी इसी प्रकार बांट ली जाती थी। जब यह प्रदेश सीधा मराठा साम्राज्य में विलय कर लिया जाता था तो अंतिम 66 प्रतिशत मराठा सरदारों में बांट दिया जाता था।
सरकार को कुछ आय वनों, सीमा शुल्क, उत्पादन शुल्क तथा टकसाल से भी होती थी। जंगलों से लकङी काटने, बांस काटने तथा ईंधन वाली लकङी तथा शहद इत्यादि के लिए आज्ञापत्र भी बेचे जाते थे। इसी प्रकार सरकार प्रमाणित सुनारों से निजी टकसाल चलाने की अनुमति के बदले भी धन प्राप्त करती थी।

मराठो की सैनिक व्यवस्था

मराठा सेना का गठन भी मुगल व्यवस्था पर आधारित थआ। मराठा सैन्य विनिमय दक्षिण के मुस्लिम राज्यों के अधिनियमों पर आधारित थे। उसमें पदातियों की अपेक्षा घुङसवारों पर अधिक बल दिया जाता था। वेतन देना, सैनिकों को नए पद जीतने पर पुरस्कृत करना, आश्रितों के लिए व्यवस्था इत्यादि में मुगल प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से दिखाई पङता है तथा यह प्राचीन हिन्दू पद्धति से सिद्धांत तथा व्यवहार में भिन्न था।
इसी प्रकार शिवाजी प्रायः माराष्ट्र से ही सैनिक लेते थे परंतु पेशवा समस्त भारत से। उनकी सेना में सभी जातियों, धर्मों तथा वर्णों के लोग होते थे जैसे कि कर्नाटकी, अरबी, हब्शी, तैलिंग, बीदरी, राजपूत, सिक्ख, रुहेले, भारतीय ईसाई, तथा पुर्तगाल के भारतीय प्रदेशों से आए शैण्वी अर्थात् अब यह सेना राष्ट्रीय न रहकर व्यावसायिक बन गई थी। संभवतः यह मराठा शक्ति के प्रसार का अवश्यंभावी परिणाम था। शिवाजी सामंतशाही सेना पर निर्भर नहीं थे तथा सेना को सीधे वेतन देना पसंद करते थे। पेशवा लोग सामंतशाही पद्धति पसंद करते थे तथा बहुत सा साम्राज्य जागीरों में बांट दिया गया था।

घुङसवार

मराठा सेना का प्रमुख अंग शिवाजी के काल से ही घुङसवार थे। सरदारों को निश्चित जागीर के उपलक्ष्य में घुङसवारों की निश्चित संख्या रखनी पङती थी। वर्ष में एक बार उन्हें निरीक्षण के लिए भी लेना पङता था। बाजीराव के काल में 400 रु. मूल्य का घोङा उत्तम, 200 रु. का मध्य वर्गीय तथा 100 रुपये मूल्य वाला निम्न वर्गीय माना जाता था। इससे कम मूल्य के घोङे सेना के लिए उपयोगी नहीं समझे जाते थे।
सामंतसाही के भय को कम करने के लिए भिन्न सरदारों को एक ही क्षेत्र में जागीरें दी जाती थी ताकि वे आपस में नियंत्रण का काम करें।

पदाति-साम्राज्य का नर्मदा पार विस्तार होने पर पदाति सेना की अधिक आवश्यकता हुई जिसके लिए राजपूत, रुहेले, सिक्ख, सिन्धी तथा अरबों को भरती किया गया। यूरोपीय लोग भी पेशवा की कुछ टुकङियों में कार्य करते थे। बॉयड द्वारा प्रशिक्षित रेजिमेन्ट का व्यय 26,242 रुपये प्रति मास था। कमांडर को 3000रु. प्रति मास तथा कप्तान को 450 रु., लेफ्टिनेन्ट को 250 रु., सार्जेट को 90 रु. तथा हवलदार को 15 रु. प्रति मास मिलता था।

विदेशियों को पदाति सेना में भरती होने के लिए अधिक वेतन का प्रलोभन दिया जाता था। अतः एक अरब सैनिक को 15 रु., हिन्दुस्तानी को 8 रु. तथा मराठा और दक्कनी सैनिक को केवल 6 रुपय मासिक मिलता था।

तोपखाना

मराठों के तोपखाने में मुख्यतः पुर्तगाली अथवा भारतीय ईसाई ही कार्य करते थे। पेशवाओं ने तोपें तथा गोले बनाने के लिए अपने कारखाने स्थापित कर रखे थे। जुन्नार जिले के अन्तर्गत अम्बेगांव में एक गोले बनाने का कारखाना 1765 में लगा तथा पूना में 1770 में। परंतु बहुधा पेशवा लोग अपनी तोपों तथा गोलों की आवश्यकताओं के लिए अंग्रेजों तथा पुर्तगालियों पर ही निर्भर थे।

नौसेना

अंग्रियों के पास पश्चिमी तट पर एक शक्तिशाली नौसेना थी। परंतु अंग्रिये पेशवा के अधीन नहीं थे। पेशवाओं ने भी अपनी नौसेना बनाई परंतु इसका प्रयोग प्रायः समुद्री डाकुओं को रोकने, आने-जाने वाले जहाजों से जकात प्राप्त करने तथा मराठा बंदरगाहों की रक्षा के लिए ही किया जाता था। बालाजी राव के अधीन एक एडमिरल को 1186 रु. वार्षिक तथा अन्य अनुलाभ मिलते थे। विजय के बाद पुरस्कार की भी संभावना थी। एक सरटंडल को 10रु. प्रति मास, टंडल को साढे सात, नाविक को साढे चार से पांच रुपया मासिक मिलता था।

विदेशियों की नियुक्तियां

पेशवा अपनी सेना में बहुत से विदेशी भरती करते थे। मराठों को यूरोपीय व्यक्तियों के विरुद्ध भी लङना पङता था अतः वे इन्हीं विदेशियों को इनके विरुद्ध प्रयोग करते थे। इसके अलावा अपनी सेना के लिए भी वे अंग्रेज, फ्रांसीसी, पुर्तगाली, जर्मन, स्विस, इटालियन, तथा आर्मीनियन लोगों का प्रयोग करते थे। उन्हें ऊंचे-ऊंचे वेतन देते थे, तथा उनकी टुकङियों के भरण-पोषण के लिए जागीरें भी देते थे। परंतु ये लोग केवल धन के लाभ के लिए काम करते थे उनकी मराठों इत्यादि के प्रति कोई स्वामिभक्ति नहीं होती थी। अंग्रेजों से यह आशा करना कि वे अंग्रेजों के विरुद्ध लङेगें सरासर मूर्खता थी। जिस सुगमता से अलीगढ अथवा कोइल के दुर्ग को जीत लिया गया उस पर टिप्पणी करते हुए थोर्न लिखते हैं, यह ध्यान रहे कि यह सफलता मिस्टर लूसन जो अक अंग्रेज था उसकी वीरता तथा देशभक्ति के कारण ही मिली, यह व्यक्ति सिन्धिया की सेना छोङ आया था ताकि अपने ही देश के विरुद्ध न लङना पङे। अपनी सेना में भरती होने के बाद कर्नल मोनसन को दुर्ग के द्वार तक ले गया तथा दुर्ग में से गुजरने का मार्ग दिखलाया ताकि कमाण्डर-इन-चीफ तथा सरकार का धन्यवाद प्राप्त कर सके।

मूल्यांकन

मराठा प्रशासन पद्धति की प्रशंसा नहीं की गयी क्योंकि अंग्रेज इतिहासकारों ने इसकी तुलना आधुनिक यूरोपीय पद्धति से की है न कि समकालीन यूरोपीय मानदंडों से। ऐसे इतिहासकारों ने इस पद्धति को घृणित कहा है तथा मराठा जरनैलों को डाकू, लुटेरे और बदमाश की संज्ञा दी है। परंतु निष्पक्ष अध्ययन से पता चलता है कि मराठा प्रशासन प्रद्धति उत्तम नियमों पर आधारित थी जो उन्होंने अपने हिन्दू तथा मुसलमान पूर्वजों से प्राप्त की थी तथा जिसे वे अपने अंग्रेज उत्तराधिकारियों के लिए छोङ गए। निश्चय ही यह साम्राज्य लूटपाट पर निर्भर नहीं था क्योंकि यदि वह उत्तम नियमों पर आधारित नहीं होता तो 150 वर्ष तक कैसे चलता रहता।

Reference Books :
1. पुस्तक – आधुनिक भारत का इतिहास, लेखक – बी.एल.ग्रोवर, अलका मेहता, यशपाल

  

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