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बालाजी विश्वनाथ (1713-20) का इतिहास

बालाजी विश्वनाथ

बालाजी विश्वनाथ (peshwa balaji vishwanath) –

जन्म

पेशवा बालाजी विश्वनाथ का जन्म कोकड़ प्रदेश के श्रीवर्धन गाँव के छितपावन ब्राह्मण के भट्ट परिवार मे 1662 ई. मे हुआ था । यह गाँव जंजीरा के सीदियों के शासन के अंतर्गत था। इनसे शत्रुता हो जाने के कारण बालाजी विश्वनाथ अपने परिवार सहित महाराष्ट्र चले गए ।

बालाजी विश्वनाथ


बालाजी विश्वनाथ कोंकण के एक ब्राह्मण कुल से थे जो आज भी अपनी बुद्धि और प्रतिभा के लिये प्रसिद्ध है। उनके पूर्वज जंजीरा राज्य में श्रीवर्धन के वंशानुगत कर संग्रहकर्त्ता थे। बालाजी विश्वनाथ के अंगरियों से, जो जंजीरा(जंजीरा के सिद्दी और कोलाबा के अंगरिया लोग भारत के पश्चिमी तट पर दो समुद्री शक्तियां थी।

सिद्दी लोग सैयद से बिगङा शब्द प्रारंभ में हबश से आए नाविक थे जिन्होंने अहमद नगर के सुलतान के अधीन नौकरी कर ली थी। मुगलों का अहमद नगर को जीतने और मराठा राज्य के शिवाजी के बाद पतन के कारण सिद्दियों की शक्ति को बल मिला। जंजीरा के द्वीप से ये लोग समुद्री लुटेरों का काम करते रहे।

अंगरिया लोग पश्चिमी तट पर मराठा नौ सेना के संरक्षक के रूप में कार्य करते थे।) के सिद्दियों के शत्रु थे, संबंधों के कारण इनका सिद्दियों से झगङा हो गया और उन्हें देश छोङ कर सासवाङ में बसना पङा। बालाजी के कर संबंधी ज्ञान के कारण उन्हें मराठों के अधीन कार्य करने का अवसर मिला। 1696 में वह पूना के सभासद थे। कालान्तर में वह पूरे पूना के (1699-1702) और फिर दौलताबाद के (1704-7) सर सूबेदार रहे।

1699 से 1704 तक औरंगजेब पूना में और खेङ में पङाव डाले बैठा रहा, परंतु उन्होंने बालाजी विश्वनाथ को कुछ नहीं कहा। संभवतः वह औरंगजेब के लिये रसद जुटाने में लगे थे। औरंगजेब के उत्तराधिकारी बहादुरशाह ने शाहू को इस आशा से मुक्त कर दिया कि उसके महाराष्ट्र में पहुंचने पर वहां गृहयुद्ध छिङ जाएगा।

औरंगजेब जब तक दक्षिण में रहा शाहू उसकी कैद में उसके साथ ही था। संभवतः बालाजी विश्वनाथ ने शाहू से उन्हीं दिनों कुछ तालमेल स्थापित किया। 1705 में विश्वनाथ ने प्रच्छन्नरूप से शाहू को स्वतंत्र कराने का प्रयत्न भी किया।
शाहू को राजकुमार आजम ने 1707 में मुक्त कर दिया। तुरंत गृहयुद्ध आरंभ हो गया। शाहू की चाची ताराबाई ने शाहू को झूठा दावेदार बतलाया और अपने पुत्र के लिए सतारा की गद्दी प्राप्त करने का प्रयत्न किया।

अक्टूबर 1707 में खेङ में ताराबाई और शाहू के बीच गृहयुद्ध हुआ। बालाजी ने शाहू का साथ दिया और अपनी कूटनीति से ताराबाई के सेनापति धन्नाजी को अपनी ओर मिला लिया और मैदान मार लिया। 1708 में धन्नाजी की मृत्यु हो गयी और शाहू ने उसके पुत्र चंद्रसेन को अपना सेनापति नियुक्त कर लिया। चंद्रसेन का झुकाव ताराबाई की ओर था। शाहू ने चंद्रसेन के संभावित विश्वासघात से बचने के लिये एक नया पद सेनाकर्तें (सेना को संगठित करने वाला) बना दिया और बालाजी को उस पद पर नियुक्त कर दिया।

1712 में शाहू का भाग्य निम्नतम स्तरो पर था। चंद्रसेन ताराबाई से जा मिला। सीमा रक्षक कान्होंजी आंगङे ने स्पष्ट रूप से ताराबाई का समर्थन किया और शाहू और उसके पेशवा बहिरोपंत पिंगले को बंदी बना लिया और सतारा की ओर प्रस्थान की धमकी दी। दिल्ली में शाहू के समर्थक जुलफिकार खां का गुटबंदी के झगङों में वध कर दिया गया था। ऐसे आङे समय में बालाजी शाहू के काम आया।

उसने अपनी कूटनीति से न केवल सिंहासन को बचाया अपितु चंद्रसेन जादव को हराया। फिर उसने ताराबाई के समर्थकों में फूट डलवा दी। सबसे प्रमुख बात यह थी कि उन्होंने कान्होंजी आंगङे को बिना युद्ध के शाहू की ओर मिला लिया। एक ओर उन्होंने सिद्दियों,अंग्रेजों और पुर्तगालियों की शत्रुता का दबाव डाला और दूसरी ओर कान्होजी की राष्ट्रीयता को ललकारा कि मराठा राज्य शिवाजी की सब से महान देन है। और प्रत्येक मराठा को इसकी रक्षा तथा बनाए रखने के लिए प्रयत्न करना चाहिए।
सत्ता के लिये राजनीति के युद्ध में 1713 में फर्रुखसीयर सैयद बंधु हुसैन अली और अब्दुल्ला खां की सहायता से सिंहासन पर बैठ गया। शीघ्र ही दोनों में विरोध उत्पन्न हो गया और दरबार एक बार पुनः षङ्यंत्रों का केन्द्र बन गया। सम्राट ने मुख्य सेनापति हुसैन अली से मुक्ति पाने की इच्छा से उसे दक्षिण का वाइसराय नियुक्त कर दिया और दूसरी ओर गुजरात के गवर्नर दाऊद खां और शाहू को इसके विरुद्ध युद्ध करने और उसे समाप्त करने के लिए प्रेरित किया। सम्राट का यह उद्देश्य सैयद बंधुओं को विदित था।

1717 में अब्दुल्ला खां की दरबार में स्थिति इतनी बिगङ गयी कि वह हुसैन अली को बुलाने पर बाध्य हो गया। दूसरी ओर हुसैन अली ने यह अनुभव किया कि यदि उसे दक्षिण में अनुपस्थित रहना है तो वह मराठों से शत्रुता नहीं रख सकता।सैयद बंधुओं को मराठों और दरबारी षङ्यंत्रों के बीच पिस जाने का भय था अतः हुसैन अली ने दिल्ली की ओर प्रस्थान करने से पूर्व मराठों से मित्रता करने की सोची। शाहू अपनी माता तथा भाई को जो दिल्ली में बधक थे, मुक्त करवाना चाहता था, तुरंत इस मित्रता के लिये तैयार हो गया। संधि की शर्तें बनाई गई और मसविदा सम्राट की अनुमति के लिए दिल्ली भेज दिया गया।

मुख्य शर्तें निम्नलिखित थी-

  • शाहू को शिवाजी का स्वरूप पूर्णरूपेण अधिकार में मिलेगा। खानदेश,बराङ,गोंडवाना,हैदराबाद और कर्नाटक के वे सभी क्षेत्र जो मराठों ने पिछले दिनों विजय कर लिये थे, शाहू को मराठा राज्य के भाग के रूप में मिल जायेंगे।
  • मराठों का दक्कन में मुगल प्रान्तों से चौथ तथा सरदेशमुखी प्राप्त करने का अधिकार होगा। उसके प्रतिकार के रूप में मराठे 15,000 सैनिक सम्राट की सेवा के लिये देंगे तथा दक्कन में शांति बनाए रखेंगे। प्रतिकार के रूप में मराठे 15,000 सैनिक सम्राट की सेवा के लिए देंगे तथा दक्कन में शांति बनाए रखेंगे। शाहू कोल्हापुर के शंभूजी को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाएगा।
  • शाहू सम्राट को 10 लाख रुपया वार्षिक का कर या खिराज देगा। मुगल सम्राट शाहू की माता तथा अन्य संबंधियों को छोङ देगा।
  • अतएव बालाजी विश्वनाथ ने 15,000 सैनिकों समेत हुसैन अली के संग दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। इन सैनिकों की सहायता से सैयद बंधुओं ने सम्राट फर्रुखसीयर को सिंहासन से उतार दिया तथा अगले सम्राट रफी-उद्द-रजात ने इस संधि को स्वीकार कर लिया।

    रिचर्ड टेम्पल ने इस संधि को मराठा साम्राज्य के मैगनाकार्टा की संज्ञा दी है। मुगल सम्राट अकबर दक्कन के छः प्रांतों से चौथ तथा सरदेशमुखी की मांग को नहीं ठुकरा सकते थे। वास्तव में चौथ का देना इस तथ्य का द्योतक था कि मुगलों की स्थिति मराठों की तुलना में क्षीण हो गयी थी। मराठों ने मुगलों की कमर तोङ दी थी और मुगलों की दक्कन की आय का चौथा भाग उन्हें मिलने लगा। इससे तथा शाहू के राज्य पर अधिकार को मान्यता मिलने से महाराष्ट्र में उसका मान बढ गया। वह मराठों का पूर्णरूपेण नेता बन गया। शंभूजी की आकांक्षाओं पर पानी फिर गया। अब निश्चय ही आकाश में एक नया तारा चमक रहा था।

    दिल्ली से लौटने पर बालाजी का अंतिम कार्य कोल्हापुर के विरुद्ध सैनिक अभियान था। शंभूजी उसकी अनुपस्थिति में अनेक कठिनाइयां उत्पन्न करने का प्रयत्न कर रहे थे। विश्वनाथ का 2 अप्रैल, 1720 को देहावसान हो गया।

बालाजी विश्वनाथ का मूल्यांकन

बालाजी स्वनिर्मित व्यक्ति थे। शून्य से चल कर वह पेशवा बन गए। आज उनका स्मरण एक वीर योद्धा के रूप में ही नहीं अपितु राजनीतिज्ञ और राजमर्मज्ञ के रूप में किया जाता है। वह मराठा राजनीति की गहनता को समझते थे और इसी कारण उन्होंने ताराबाई अथवा यशुबाई को छोङकर शाहू को अपनाया।

अपनी कूटनीति के कारण उन्होंने धन्नाजी यादव, खांडे राव दहबाङे, परशोजी तथा सबसे प्रमुख कान्होजी आंगङे को शाहू की ओर मिला लिया। अपनी कूटनीति से उन्होंने देश को गृहयुद्ध से बचाया तथा माधाजी कृष्ण जोशी जैसे साहूकारों की सहायता से शाहू को अपनी वित्तीय कठिनाइयों से छुटकारा दिलाया।

उसके सैयद बंधुओं के सौदे के कारण राज्य को 30 लाख रुपया मिला और नियमित रूप से 35 प्रतिशत वार्षिक कर, चौथ तथा सरदेशमुखी के रूप में मिलने लगा। युद्धपीङित देश में शांति स्थापित कर मराठों की शक्ति को साम्राज्य के गठन में लगाया।

बालाजी विश्वनाथ ने मराठा संघ की नीव रखी । इसके अंतर्गत सभी सामंतों को उनकी जागीरों मे स्थायी किया गया और ये मराठा सरदार अपने-अपने क्षेत्र मे स्वतंत्र होते थे । तथा अपने क्षेत्र से चौथ तथा सरदेसमुखी वसूल कर, अपने हिस्से का धन निकाल बचें हुए धन को सरकारी कोष मे जमा करा देते थे ।

Reference Books :
1. पुस्तक – आधुनिक भारत का इतिहास, लेखक – बी.एल.ग्रोवर, अलका मेहता, यशपाल

  

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