इतिहासप्राचीन भारत

सप्तांग सिद्धांत क्या था

वैदिक साहित्य तथा प्रारंभिक धर्मसूत्रों में दी गयी जानकारी के बाद भी हम राज्य की कोई निश्चित परिभाषा नहीं दे सकते। इसका कारण यह है, कि इस समय तक राज्य संस्था को ठोस आधार नहीं मिल सका था। उत्तरी भारत में विशाल राजतंत्रों की स्थापना के साथ ही राज्य के स्वरूप का निर्धारण किया गया। सर्वप्रथम कौटिल्य द्वारा रचित अर्थशास्र में ही राज्य की सही परिभाषा प्राप्त होती है। यह राज्य को एक सजीव एकात्मक शासन-संस्था के रूप में मान्यता प्रदान करता है, तथा उसे सात प्रकृतियों अर्थात् अंगों में निरूपित करता है, जो निम्नलिखित हैं-

  1. स्वामी
  2. अमात्य
  3. भू-प्रदेश(जनपद)
  4. दुर्ग
  5. कोष
  6. सेना
  7. मित्र

कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित राज्य का उपर्युक्त सप्तांग सिद्धांतवाद के लेखकों के लिये आदर्श स्वरूप बना रहा। कुछ ग्रंथों में इन अंगों के पर्याय भी मिलते हैं। विष्णु धर्मोत्तर पुराण में स्वामी तथा अमात्य के स्थान पर क्रमशः साम तथा दान का उल्लेख हुआ है। किन्तु कौटिल्य द्वारा निर्धारित अंग ही इतिहास में प्रमाणिक माने जाते हैं।

राज्य के अंगों का जो कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित हैं, का विस्तार से विवरण इस प्रकार है-

स्वामी

स्वामी से तात्पर्य राजा से है। इसे सम्राट भी कहा जाता था। यह राज्य का प्रथम अंग होता था। कौटिल्य राजा के गुणों की जानकारी प्रदान करता है-उसके अनुसार राजा इन गुणों से परिपूर्ण होना चाहिये- उच्चकुल में उत्पन्न, विनयशील,सत्यनिष्ठ, स्थूललक्ष, क्रतज्ञ, सत्यप्रतिज्ञ, धर्मात्मा, वृद्धदर्शी, सुख एवं दुःख में धैर्यशाली, बुद्धिमान, दैवसम्पन्न, आलस्यरहित, महान उत्साह युक्त, दृढ निश्चयी, बङी मंत्रिपरिषद वाला, सामंतों को आसानी से वश में करने वाला।

अमात्य

अर्थाशास्र में अमात्य शब्द का प्रयोग सभी उच्च श्रेणी के पदाधिकारियों के लिये किया गया है। इन मंत्रियों में से योग्यतानुसार सम्राट अपने मंत्रियों तथा अन्य सलाहकारों की नियुक्ति करता था। कौटिल्य कहता है, कि जनपद संबंधी सभी कार्य अमात्य के ऊपर ही निर्भर करते हैं। कृषि संबंधी कार्य,दुर्ग निर्माण, जनपद का कल्याण, विपत्तियों से रक्षा, अपराधियों को दंड देना, राजकीय करों को एकत्रित करना आदि सभी कार्य अमात्यों द्वारा ही किये जाने चाहिये। मौर्योत्तर युग में अमात्य को सचिव कहा जाने लगा था।

जनपद

मनुस्मृति तथा विष्णु स्मृति में जनपद को राष्ट्र कहा गया है। याज्ञवल्क्य स्मृति में जनपद को जन कहा गया है। राष्ट्र से तात्पर्य भू-प्रदेश तथा जन से तात्पर्य जनसंख्या से है। अर्थशास्र में जनपद शब्द का प्रयोग भू-प्रदेश तथा जनसंख्या दोनों के लिये किया गया है।

कौटिल्य ने जनपद के लिये कहा है, कि जनपद की जलवायु अच्छी होनी चाहिये, उसमें पशुओं के लिये चारागाह हो, जहाँ कम परिश्रम में अधिक अन्न उत्पन्न हो सके, जहाँ उद्यमी कृषक रहते हों, जहाँ योग्य पुरुषों का निवास हो, जहाँ निम्न वर्ग के लोग विशेष रूप से रहते हों तथा जहाँ के निवासी राजभक्त एवं चरित्रवान हों…।

जनपद की जनसंख्या के विषय में कौटिल्य का विचार है, कि एक गाँव में कम से कम सौ तथा अधिक से अधिक पाँच सौ परिवार रहने चाहिये। जनपद की सबसे बङी इकाई स्थानीय में आठ सौ ग्राम होने चाहिये।

दुर्ग

दुर्ग राज्य का महत्त्वपूर्ण अंग था। मनुस्मृति में तथा महाभारत के शांतिपर्व में दुर्ग को पुर कहा गया है। दुर्ग शब्द का अर्थ किला है, किन्तु अर्थशास्र में इसका वर्णन दुर्गीकृत राजधानी से है। पुर का भी यही अर्थ है। दुर्ग निवेश प्रकरण में कौटिल्य दुर्ग की विशेषतायें बताता है। तदनुसार दुर्ग का निर्माण नगर के केन्द्र भाग में किया जाना चाहिये तथा प्रत्येक वर्ण तथा कारीगरों के निवास के लिये नगर में अलग-2 व्यवस्था होनी चाहिये।

कोष

कौटिल्य राज्य के सातवें अंग कोष को बहुत अधिक महत्त्व देता है। कौटिल्य कहतै है,कि धर्म तथा काम संबंधी संपूर्ण कार्य कोष के माध्यम से ही संपन्न होते हैं। सेना की स्थिति कोष पर ही निर्भर करती है। कोष के अभाव में सेना पराये के पास चली जाती है, यहां तक कि स्वामी की हत्या कर देती है। कोष सब प्रकार के संकट का निर्वाह करता है। कौटिल्य का मत है,कि राजा को धर्म और न्यायपूर्वक अर्जित कोष अर्थात् धन का संग्रह करना चाहिये। कोष स्वर्ण, रजत, बहुमूल्य रत्नों, मणियों, मुद्राओं आदि से परिपूर्ण होना चाहिये, ऐसा कोष अकालादि विपत्तियों का सामना करने में समर्थ होता है।

दंड

दंड से तात्पर्य सेना से है। इसमें अनुवांशिक, भाङे पर लिये गये, जंगली जातियों से लिये गये एवं निगम के सैनिक होते थे। सेना में पैदल, रथ, गज तथा घोङे सभी थे। कौटिल्य सेना में भर्ती के लिये क्षत्रियों को सबसे सही मानता है। उसने वैश्य तथा शूद्र वर्ण से भी उनकी संख्या के अनुसार सैनिक लिये जाने का समर्थन किया है।

कौटिल्य ने सेना की कुछ विशेषताओं का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार हैं- सेना को सदा राजा के अधीन रहना चाहिये। सैनिकों के परिवार का भरण-पोषण राज्य का कर्त्तव्य है। शत्रु पर चढाई आदे के समय सैनिकों की सुख-सुविधा के लिये आवश्यक भोग्य वस्तुयें उपलब्ध कराना आवश्यक है।

मित्र

कौटिल्य द्वारा वर्णित राज्य का अंतिम अंग मित्र था। मित्र की विशेषता कौटिल्य ने इस प्रकार बताई हैं- मित्र पिता-पितामह के क्रम से चले आ रहे हों, नित्यकुलीन, दुविधा रहित, महान एवं अवसर के अनुरूप सहायता करने वाले हों। मित्र तथा शत्रु में भेद बताते हुये कौटिल्य लिखता है, कि शत्रु वह है, जो लोभी, अन्यायी, व्यसनी एवं दुराचारी होता है। मित्र इन दुर्गणों से रहित होता है।

निष्कर्ष

इस प्रकार हम कह सकते हैं, कि कौटिल्य द्वारा वर्णित राज्य के सात तत्व शरीर के तत्वों की भाँति ही हैं। ये तत्व एक दूसरे के पूरक होते हैं तथा किसी के भी अभाव में कोई दूसरा पूरा नहीं कर सकता। इन तत्वों को राज्य की स्वाभाविक संपदा कहा गया है। राज्य के अस्तित्व को बनाये रखने तथा उसकी व्यवस्था को समुचित ढंग से चलाने के लिये सभी अंगों का समन्वय अनिवार्य है।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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