मध्यकालीन भारतइतिहासविजयनगर साम्राज्य

विजयनगर साम्राज्य का प्रशासन

विजयनगर साम्राज्य का शासन राजतंत्रात्मक था। राजा को राय कहा जाता था। वह ईश्वर के समतुल्य माना जाता था। इस काल में भी प्राचीन काल की भाँति राज्य की सप्तांग विचारधारा पर जोर दिया जाता था।

राजा-

प्राचीन भारत की राज्याभिषेक पद्धति के अनुरूप इस काल में राजाओं का भव्य राज्याभिषेक किया जाता था। राजा के  चयन में राज्य के मंत्रियों और नायकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी। राज्याभिष्क के समय विजयनगर नरेश को वैदिक राजाओं की भाँति प्रजा – पालन और निष्ठा की शपथ लेनी पङती थी। अच्युतदेवराय ने अपना राज्याभिषेक तिरुपति मंदिर में सम्पन्न करवाया था। चोल नरेशों की भाँति विजयनगर नरेश भी अपने जीवन काल में ही अपने उत्तराधिकारियों को नामजद कर देते थे। विजयनगर काल में भी दक्षिण भारत की संयुक्त शासक परंपरा का निर्वाह किया गया। युवराज की नियुक्ति के बाद उसका राज्याभिषेक किया जाता था, जिसे युवराज पट्टाभिषेकम् कहते थे। इस काल में संरक्षक ( युवराज के अल्पायु होने पर प्रतिशासक की नियुक्ति ) व्यवस्था साम्राज्य के पतन के लिए बहुत अधिक सीमा तक उत्तरदायी सिद्ध हुई। सम्राट सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। विजयनगर शासकों ने धर्म के मामले में धर्म निरपेक्ष नीति का अनुसरण किया।

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प्रशासकीय संस्थाओं में राजपरिषद राजा की शक्ति पर नियंत्रण का सबसे शक्तिशाली माध्यम थी। इस परिषद के माध्यम से ही राजा शासन करता था और राज्य के समस्त मामलों एवं नीतियों के सम्बंध में इससे परामर्श लेता था।

कृष्णदेवराय ने अपने अनुपम ग्रंथ आमुक्त माल्यद में राजा के आदर्श को बहुत सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है- अपनी प्रजा की सुरक्षा और कल्याण के उद्देश्य को सदैव आगे रखो तभी देव के लोग राजा के कल्याण की कामना करेंगे और राजा का कल्याण तभी होगा, जब देश प्रगतिशील और समृद्ध शील होगा।

राजपरिषद-

राजपरिषद प्रांतों के नायकों, सामंत शासकों, प्रमुख धर्माचार्यों, राजदूतों को शामिल करके गठित किया गया एक विशाल संगठन होता था। कृष्णदेवराय और उसके दरबार के प्रमुख विद्वान पेड्डाना दोनों ही इस परिषद के सदस्य थे।

मंत्रिपरिषद-

राजपरिषद के बाद केन्द्र में मंत्रिपरिषद होती थी जिसका प्रमुख अधिकारी प्रधानी या महाप्रधानी होता था। इनकी सभाएं वेंकटविलास मंडप नामक सभागार में आयोजित की जाती थी।मंत्रियों के चयन में आनुवांशिकता के सिद्धांत का संभवतः अनुसरण किया जाता था। मंत्रिपरिषद में संभवतः 20 सदस्य होते थे। मंत्रिपरिषद के अध्यक्ष को सभा नायक कहा जाता था। विद्वान, राजनीति में निपुण पचास से सत्तर वर्ष के आयु वाले और स्वस्थ व्यक्तियों को ही इस मंत्रिपरिषद का सदस्य बनाजा जाता था। यह मंत्रिपरिषद विजयनगर साम्राज्य के संचालन में सबसे महत्त्वपूर्ण संस्था थी। केन्द्र में दण्डनायक नामक उच्च अधिकारी भी होते थे। दण्डनायक पदवोधक नहीं था, विरन् विभिन्न अधिकारियों की विशेष श्रेणी को दण्ड नायक कहा जाता था। दण्डनाथ और सायण बुक्का तथा हरिहर द्वितीय दोनों के मंत्री थे। राजा और युवराज के बाद केन्द्र का सबसे प्रधान ( मुख्य ) अधिकारी प्रधानी होता था। जिसकी तुलना हम मराठा कालीन पेशवा से कर सकते हैं।

केन्द्रीय सचिवालय –

सचिवालय में विभागों का बँटवारा किया गया था और इसमें रायसम या सचिव, कर्णिकम अर्थात् एकांटेंट जैसे अधिकारी होते थे। रायसम राजा के मौखिक आदेशों को लिपिबद्ध करता था तथा कर्णिकम लेखाधिकारी होता था। 

विशेष विभागों से संबंधित अधिकारियों या विभाग प्रमुखों के पदों के नाम भिन्न थे जैसे मानेय प्रधान-गृहमंत्री । शाही मुद्रा रखने वाला अधिकारी मुद्राकर्ता कहलाता था।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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