आधुनिक भारतइतिहास

1919 के अधिनियम द्वारा किये गये परिवर्तन

1919 के अधिनियम द्वारा किये गये परिवर्तन

1919 के अधिनियम द्वारा किये गये परिवर्तन –

मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार की रिपोर्ट (8 जुलाई, 1918ई.) के आधार पर ब्रिटिश संसद में एक विधेयक प्रस्तुत किया गया, जिसे 1919 में पारित किया गया। इसे भारत सरकार अधिनियम 1919 अथवा मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार अधिनियम कहते हैं। इस अधिनियम को 1921 में कार्यान्वित किया गया।

इस अधिनियम द्वारा मुख्य रूप से निम्नलिखित परिवर्तन किये गये-

गृह सरकार

भारत सरकार – शासन का दो भागों में विभाजन भारत में ब्रिटिश प्रणाली की मुख्य विशेषता थी। इसका एक भाग इंग्लैण्ड में कार्य करता था और दूसरा भाग भारत में। शासन का जो भाग इंग्लैण्ड में कार्य करता था, वह गृह सरकार कहलाता था। इसके मुख्य पाँच अंग थे – सम्राट, मंत्रिमंडल, संसद, भारत सचिव और इंडिया कौंसिल। इनमें भारत सचिव व इंडिया कौंसिल सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण थे। भारत सचिव, भारत के शासन संबंधी मामलों के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी था तथा उसको वेतन भारतीय राजस्व में से मिलता था, जिसके विरुद्ध भारतीयों ने आवाज उठाई थी। अतः 1919 के अधिनियम द्वारा भारत सचिव का वेतन इंग्लैण्ड के कोष से दिये जाने की व्यवस्था की गयी।

इस अधिनियम द्वारा प्रांतों में आंशिक उत्तरदायी सरकार की स्थापना की गयी तथा केन्द्र की व्यवस्थापिका सभा में निर्वाचित सदस्यों का बहुमत रखा गया। अतः भारत सचिव की शक्तियों में कमी करना आवश्यक था। प्रांतों में जो विषय भारतीय मंत्रियों को दिये गये, उन्हें हस्तांतरित विषय कहा गया तथा जो विषय गवर्नर ने अपने पास रखे, उन्हें रक्षित विषय कहा गया। भारत सचिव का हस्तांतरित विषयों पर नियंत्रण कम कर दिया गया।

हस्तांतरित विषयों में भारत सचिव का हस्तक्षेप निम्नलिखित बातों तक सीमित कर दिया गया-

  • ब्रिटिश साम्राज्य के हितों की रक्षा।
  • ऐसे प्रश्नों का निर्णय करना, जो प्रांतों द्वारा न सुलझ सके हों।
  • गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद को 1919 के अधिनियम के अधीन जो कार्य सौंपे गये हैं, उनकी देखभाल करना तथा उनके उचित कार्यों का समर्थन करना। केन्द्रीय विषयों के शासन की देखभाल करना।
  • भारतीय हाई कमिश्नर, भारतीय नौकरियों और अपने ऋण लेने के अधिकारों की रक्षा करना।

केन्द्र तथा प्रांतों के रक्षित विषयों पर भी भारत सचिव का नियंत्रण कुछ ढीला कर दिया गया। इस अधिनियम के पूर्व जो भी विधेयक केन्द्रीय अथवा प्रांतीय विधान सभाओं में प्रस्तुत किये जाते थे, उनमें भारत सचिव की पूर्व स्वीकृति आवश्यक थी। इस अधिनियम में यह व्यवस्था की गयी कि कुछ विशेष मामलों से संबंधित विधेयक जैसे विदेशी मामलों, सीमा-शुल्क, सैनिक मामले, नोट तथा सार्वजनिक ऋण इत्यादि को छोङकर शेष विषयों में भारत सचिव की पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता नहीं होगी।

प्रांतों के मामलों के संबंध में यह निश्चित कर दिया गया कि किसी भी बिल को भारत सचिव के पास तब तक नहीं भेजा जायेगा, जब तक गवर्नर-जनरल उसकी स्वीकृति के बारे में कोई रुकावट उत्पन्न न करे।

इंडिया कौंसिल – 1919 के अधिनियम द्वारा किये गये परिवर्तन में एक परिवर्तन यह भी था, कि भारत सचिव, अवर सचिव तथा उसके विभाग के सभी खर्चे भारतीय कोष से देने की बजाय इंग्लैण्ड के खजाने से देने की व्यवस्था की गयी। यह भी व्यवस्था की गयी कि इंडिया कौंसिल में कम से कम 8 तथा अधिक से अधिक 12 सदस्य होंगे, जिनमें आधे सदस्य ऐसे होंगे जिन्हें भारत में कार्यकाल 7 वर्ष से घटाकर 5 वर्ष कर दिया गया तथा उनके वेतन 1,000 पौंड से बढाकर 1,200 पौंड वार्षिक कर दिया गया।

हाई कमिश्नर – 1919 के अधिनियम के अन्तर्गत पहली बार हाई कमिश्नर के पद का सृजन किया गया। इससे पहले भारत सरकार के लिए स्टोरों की सभी आवश्यक वस्तुएँ और मशीनें भारत सचिव लंदन में खरीदा करता था। इस अधिनियम में यह तय किया गया कि हाई कमिश्नर भारत सरकार की सभी आवश्यक वस्तुएँ लंदन में खरीदेगा। इसके अलावा वह इंग्लैण्ड में पढने वाले भारतीय विद्यार्थियों की सुविधाओं और आवश्यकताओं की तरफ ध्यान देगा।

हाई कमिश्नर की नियुक्ति सपरिषद गवर्नर-जनरल करता था और उसका वेतन भारतीय कोष से दिया जाता था। साधारणतः वह छः वर्ष के लिए नियुक्त किया जाता था। ब्रिटिश सरकार का विचार था कि इंग्लैण्ड में भारत का प्रतिनिधित्व हाई कमिश्नर द्वारा करवाने से भारतीय अनुभव करेंगे कि उनका सम्मान बढ गया है। किन्तु भारतीयों ने इसकी नियुक्ति को कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया।

इन सभी परिवर्तनों का गृह सरकार पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पङा, क्योंकि इस अधिनियम के बाद भी गृह सरकार की वैधानिक सर्वोच्चता ज्यों की त्यों बनी रही। गवर्नर जनरल और उसकी सरकार के सभी सदस्यों को गृह सरकार का आदेश मानना पङता था।

केन्द्रीय सरकार

गवर्नर-जनरल और उसकी कार्यकारिणी – इस अधिनियम द्वारा केन्द्रीय कार्यकारिणी परिषद की रचना और शक्तियों में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं किया गया। गवर्नर-जनरल की शक्तियाँ पहले की भाँति असीमित, निरंकुश और अनुत्तरदायी रही। गवर्नर-जनरल अपनी कार्यकारिणी परिषद का प्रधान होता था तथा कार्यकारिणी परिषद के सदस्यों की नियुक्ति उसकी सिफारिश पर भारत सचिव करता था।

गवर्नर-जनरल ही अपनी कार्यकारिणी के सदस्यों में कार्य का विभाजन करता और कार्यकारिणी परिषद की बैठक बुला सकता था। गवर्नर-जनरल अपनी कार्यकारिणी के परामर्श की अवहेलना भी कर सकता था। वह भारत में ब्रिटिश सम्राट द्वारा पाँच वर्ष के लिए की जाती थी।

1919 के अधिनियम के अनुसार गवर्नर जनरल का विदेश विभाग और राजनैतिक विभाग पर सीधा नियंत्रण स्थापित किया गया। इस अधिनियम द्वारा कानून सदस्य की योग्यता में कुछ परिवर्तन किया गया। अब उस व्यक्ति को कानून सदस्य नियुक्त किया जा सकता था, जो भारत के उच्च न्यायालयों में कम से कम दस वर्ष एडवोकेट रहा हो। इस अधिनियम में यह भी कहा गया कि कार्यकारिणी में तीन ऐसे सदस्य होने चाहिये, जिन्होंने ब्रिटिश ताज के अधीन कम से कम दस वर्ष भारत में सेवा की हो। इसके परिणामस्वरूप कार्यकारिणी में तीन भारतीय सदस्यों की नियुक्ति की गयी, लेकिन इन भारतीयों के हाथ में कोई वास्तविक शक्ति नहीं थी।

कार्यकारिणी, विधान मंडल के प्रति उत्तरदायी न होकर गवर्नर जनरल के प्रति उत्तरदायी थी। गवर्नर जनरल भी केन्द्रीय विधान मंडल के प्रति उत्तरदायी न होकर भारत सचिव के प्रति उत्तरदायी था और भारत सचिव ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था।

केन्द्रीय विधान मंडल – इस अधिनियम द्वारा पहली बार द्विसदनात्मक विधान मंडल की स्थापना की गयी। पहले सदन को विधान सभा तथा दूसरे सदन को राज्य सभा कहा जाता था। विधान सभा में 145 सदस्य थे, जिनमें 104 निर्वाचित होते थे। 104 निर्वाचित सदस्यों में से 52 सदस्य सामान्य निर्वाचित क्षेत्रों से, 30 मुस्लिम, 2 सिक्, 9 यूरोपीयन, 7 जमींदार तथा 4 भारतीय वाणिज्य के हितों का प्रतिनिधित्व करते थे।

41 मनोनीत सदस्यों में 26 सरकारी अधिकारी और 15 गैर-सरकारी अधिकारी होते थे। राज्य सभा के 60 सदस्यों में 33 निर्वाचित और 27 मनोनीत सदस्यों में से 17 सरकारी अधिकारी और 10 गैर-सरकारी सदस्य होते थे।

विधान सभा तीन वर्ष के लिए तथा राज्य सभा पाँच वर्ष के लिए निर्वाचित होती थी। किन्तु गवर्नर जनरल इन सदस्यों का कार्यकाल बढा सकता था और कार्यकाल समाप्त होने से पूर्व उन्हें भंग कर सकता था।

विधान मंडल का कार्यक्षेत्र – विधान सभा केन्द्रीय सूची में निम्नलिखित विषयों पर ब्रिटिश भारत के लिए कानून बना सकती थी। गवर्नर जनरल की पूर्व स्वीकृति से यह प्रांतों के लिए भी कानून बना सकती थी। किन्तु यह 1919 के अधिनियम में कोई परिवर्तन नहीं कर सकती थी तथा ऐसा कोई कानून नहीं बना सकती थी, जो ब्रिटिश संसद के किसी कानून के विरुद्ध हो। केन्द्रीय बजट सबसे पहले विधान सभा में प्रस्तुत किया जाता था और इसके बाद राज्य सभा में भेजा जाता था। किन्तु बजट के लगभग 85 प्रतिशत भाग पर विधान सभा बहस तो कर सकती थी लेकिन मतदान नहीं कर सकती थी। शेष 15 प्रतिशत भाग के बारे में विधान सभा किसी खर्च के लिये इन्कार कर सकती थी अथवा कोई कटौती कर सकती थी, किन्तु यह किसी रकम को बढा नहीं सकती थी।

कोई भी बिल जब तक दोनों सदनों द्वारा पारित नहीं हो जाता था, कानून नहीं बन सकता था। बजट, राज्य सभा में उसी दिन पेश किया जाता था, जिस दिन विधान सभा में। अन्य वित्त विधेयक पहले विधान सभा में पेश किये जाते थे। वित्त विधेयक को राज्य सभा या तो बिल्कुल अस्वीकार कर सकती थी अथवा कुछ संशोधन के लिए सुझाव दे सकती थी। लेकिन राज्य सभा की अस्वीकृति या संशोधनों के सुझाव से विधान सभा सहमत न होती तो गवर्नर जनरल अपनी विशेष शक्तियों द्वारा उसे स्वीकार कर सकता था।

केन्द्रीय विधान मंडल का ढाँचा अत्यन्त ही दोषपूर्ण था। गवर्नर जनरल तथा उसकी कार्यकारिणी विधान मंडल के प्रति उत्तरदायी नहीं थी। विधान मंडल, गवर्नर जनरल तथा उसकी कार्यकारिणी के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास करके उन्हें त्यागपत्र देने को बाध्य नहीं कर सकती थी। यह केवल सार्वजनिक हितों के मामलों में प्रस्ताव पास कर सकती थी, लेकिन इन प्रस्तावों को मानना या न मानना गवर्नर जनरल की इच्छा पर निर्भर था।

अतः विधान मंडल के पास प्रभुत्व शक्ति का अभाव था। यह केवल कार्यकारिणी को प्रभावित कर सकता था। गवर्नर जनरल विधान मंडल द्वारा पारित किसी भी विधेयक को अस्वीकृत कर सकता था, वह किसी प्रस्ताव पर बहस रोक सकता था और अपनी इच्छानुसार किसी विधेयक में संशोधन कर सकता था।

आपातकाल में वह अध्यादेश प्रसारित कर सकता था। इससे स्पष्ट है कि गवर्नर जनरल भारतीय प्रशासन के मामलों में सर्वेसर्वा था और केन्द्रीय विधान मंडल उसके सामने बिल्कुल अशक्त थे।

शक्ति तथा राजस्व विभाजन – 1919 के अधिनियम द्वारा प्रांतों में आंशिक उत्तरदायी सरकार स्थापित की गयी थी। अतः शासन संबंधी समस्त विषयों को दो सूचियों में विभाजित किया गया – केन्द्रीय सूची और प्रांतीय सूची । जो विषय दोनों सूचियों में सम्मिलित होने से रह गये थे, वे केन्द्रीय सरकार के अन्तर्गत आ जाते थे।

जिन विषयों के संबंध में संपूर्ण भारत अथवा एक से अधिक प्रांतों में समान कानून की आवश्यकता अनुभव की गयी, उन्हें केन्द्रीय सूची में रखा गया और प्रांतीय हित के विषय प्रांतीय सूची में रखे गये। केन्द्रीय सूची में 47 विषय थे, जैसे – प्रतिरक्षा, विदेशों से संबंध, देशी रियासतों से संबंध, रेल, डाक व तार, सिक्के तथा नोट, सैन्य संबंधी विषय, सार्वजनिक स्वास्थ्य तथा चिकित्सा, शिक्षा, सार्वजनिक निर्माण कार्य, पुलिस तथा जेल, वन, सिंचाई, अकाल सहायता, कृषि, भूमि-कर, सहकारी संस्थायें आदि। दोनों सूचियों के किसी विषय के संबंध में मतभेद होने पर उनका निर्णय गवर्नर जनरल करता था।

प्रशासनिक अधिकारों की भाँति राजस्व के संसाधनों को भी दो भागों में विभाजित किया गया। केन्द्रीय राजस्व में चुँगी, आयकर, रेल, तार, डाक, नमक, अफीम आदि रखे गये तथा प्रांतीय राजस्व में भूमि-कर, चुँगी, सिंचाई, स्टाम्प व रजिस्ट्रेशन आदि थे।

प्रांतीय शासन व्यवस्था (द्वैध शासन)

इस अधिनियम द्वारा सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन प्रांतीय शासन में किया गया। प्रांतों में एक विचित्र प्रकार की शासन व्यवस्था स्थापित की गयी, जिसे द्वैध शासन प्रणाली कहते हैं। द्वैध शासन का अर्थ है – दो शासकों का शासन या दोहरा शासन। इस अधिनियम द्वारा प्रांतों में आंशिक उत्तरदायी सरकार स्थापित की गयी।

द्वैध शासन की स्थापना बंगाल में किसने की थी?

संपूर्ण प्रशासनिक विषयों को केन्द्रीय सूची और प्रांतीय सूची में विभाजित किया गया। इस अधिनियम द्वारा पहली बार प्रांतीय विषयों को भी दो भागों में बाँटा गया – रक्षित विषय तथा हस्तांतरित विषय। जिन विषयों को भारतीयों के हाथों में देने से ब्रिटिश सरकार को कोई विशेष हानि नहीं होती थी, उन विषयों को हस्तांतरित किया गया तथा उनके शासन का उत्तरदायित्व भारतीय मंत्रियों को सौंपा गया।

उदाहरणार्थ – स्थानीय स्वशासन, चिकित्सा, सार्वजनिक स्वास्थ्य तथा सफाई, यूरोपीयनों एवं एंग्लो-इंडियन्स की शिक्षा को छोङकर शेष जनता की शिक्षा, सार्वजनिक कार्य, कृषि सहकारी समितियाँ, मछली क्षेत्र, उद्योग-धंधे, खाद्य वस्तुओं में मिलावट, जन्म तथा मृत्यु संबंधी आँकङे, तोल और माप आदि सभी ऐसे 22 विषय हस्तांतरित रखे गये। शेष 28 विषय जो अधिक महत्त्वपूर्ण थे, वे सभी रक्षित रखे गये। उदाहरणार्थ – भमि-कर, अकाल सहायता, न्याय प्रशासन, खनिज साधनों का विकास, पुलिस, समाचार-पत्र पुस्तकों व छापाखानों पर नियंत्रण, प्रांतीय वित्त आदि रक्षित विषय रखे गये।

हस्तांतरित विषयों का दायित्व भारतीय मंत्रियों को सौंप दिया गया, जो प्रांतीय विधान परिषद के प्रति उत्तरदायी होते थे। रक्षित विषयों के शासन का दायित्व गवर्नर तथा उसकी कार्यकारिणी परिषद को सौंपा गया जो प्रांतीय विधान परिषद के प्रति उत्तरदायी न होकर भारत सचिव के प्रति उत्तरदायी होते थे। रक्षित विषयों पर प्रांतीय विधान परिषद का कोी नियंत्रण नहीं था। जहाँ यह विवाद उत्पन्न हो जाता कि कोई विषय रक्षित है अथवा हस्तांतरित, वहाँ गवर्नर का निर्णय अंतिम समझा जाता था।

प्रांतीय कार्यपालिका –

प्रांतीय कार्यपालिका को भी दो अलग-अलग भागों में बाँटा गया। एक भाग तो कार्यकारिणी परिषद थी और दूसरा भाग भारतीय मंत्री थे। कलकत्ता, बंबई और मद्रास में कार्यकारिणी परिषद में चार सदस्य थे, अन्य प्रांतों में केवल दो थे। यह व्यवस्था की गयी कि कार्यकारिणी परिषद में आधे सदस्य गैर सरकारी भारतीय होंगे।

कार्यकारिणी के सभी सदस्य पाँच वर्ष के लिए ब्रिटिश ताज द्वारा भारत सचिव की सिफारिश पर नियुक्त किये जाते थे। व्यवहार में जिन व्यक्तियों के नाम की सिफारिश गवर्नर जनरल कर देते थे, भारत सचिव उन्हीं को स्वीकृति देता था। गवर्नर कार्यकारिणी परिषद का प्रधान होता था तथा कार्यकारिणी के किसी भी निर्णय की वह उपेक्षा कर सकता था।

हस्तांतरित विषयों का शासन चलाने के लिए मंत्री नियुक्त किये गये। उनकी अधिकतम संख्या निश्चित नहीं की गयी। बंबई, कलकत्ता व मद्रास में तीन मंत्री नियुक्त किये गये और शेष प्रांतों में दो मंत्री नियुक्त किये गये थे। मंत्रियों की नियुक्ति गवर्नर द्वारा की जाती थी तथा उसकी इच्छा रहने तक ही वे अपने पद पर बने रह सकते थे। मंत्रियों की नियुक्ति विधान परिषद के सदस्यों में से ही की जाती थी। यदि किसी ऐसे व्यक्ति को मंत्री नियुक्त कर दिया जाता तो विधान परिषद का सदस्य नहीं होता था, तो उसे 6 महीने के अंदर विधान परिषद का सदस्य बनना पङता था। जिस मंत्री में विधान परिषद का विश्वास नहीं होता था, उसे अपना त्यागपत्र देना पङता था।

इधर गवर्नर को बिना कारण बताये मंत्रियों को हटाने का अधिकार था। इस प्रकार मंत्रियों को विधान परिषद तथा गवर्नर की दया पर छोङ दिया गया था। इसलिए मंत्रियों को अपने दो स्वामियों को प्रसन्न रखना पङता था। यदि मंत्रियों की सलाह से प्रांत की शांति या सुरक्षा में बाधा उत्पन्न होती हो अथवा वह सलाह अल्पसंख्यक जातियों के हितों के विरुद्ध हो, अथवा भारत सचिव व गवर्नर-जनरल के आदेशों के विरुद्ध हो तो गवर्नर मंत्रियों की सलाह की उपेक्षा करके अपनी इच्छानुसार कार्य कर सकता था।

यदि किसी कारणवश हस्तांतरित विषयों का शासन इस अधिनियम के अनुसार नहीं चलाया जा सकता था, तो गवर्नर भारत सचिव की पूर्व स्वीकृति से इस अधिनियम को, जितने समय के लिए आवश्यक समझे, स्थगित कर सकता था। ऐसी स्थिति में हस्तांतरित विषयों का प्रशासन रक्षित विषयों की तरह चलाया जा सकता था।

प्रांतीय विधान मंडल – प्रांतीय विधान मंडल से हमारा अभिप्राय केवल विधान परिषद से है। विधान परिषद के सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गयी। प्रत्येक प्रांत में इसके सदस्यों की संख्या भिन्न-भिन्न थी। यह व्यवस्था की गयी कि विधान परिषद में कम से कम 20 प्रतिशत सदस्य निर्वाचित होंगे और 20 प्रतिशत से अधिक सरकारी अधिकारी नहीं होंगे। इसके अलावा कुछ मनोनीत गैर-सरकारी अधिकारी भी होंगे। गवर्नर की कार्यकारिणी के सदस्य विधान परिषद के पदेन सदस्य होते थे।

विधान परिषद का कार्यकाल तीन वर्ष निर्धारित किया गया। किन्तु गवर्नर इस अवधि से पूर्व भी उसे भंग कर सकता था और विशेष परिस्थिति में उसकी अवधि एक वर्ष के लिए बढा भी सकता था।

प्रांतीय विधान परिषद को यह अधिकार दिया गया कि वह अपने प्रांत की शांति तथा अच्छी सरकार के लिए कानून बनाये। इस अधिनियम से पूर्व प्रत्येक बिल के लिए गवर्नर-जनरल की आज्ञा लेना आवश्यक था, लेकिन इस अधिनियम में यह तय किया गया कि कुछ विशेष मामलों को छोङकर शेष के लिए गवर्नर जनरल की आज्ञा की आवश्यकता नहीं रहेगी। परंतु गवर्नर जनरल को विशेष शक्तियाँ देकर विधान परिषद के अधिकारों को सीमित कर दिया गया।

द्वैध शासन के दोष और उसकी असफलता के कारण

द्वैध शासन प्रणाली के वर्णन से स्पष्ट है कि प्रांतों में पूर्ण उत्तरदायी सरकार स्थापित नहीं की गयी थी। अतः कांग्रेस दल ने इसका पूर्ण बहिष्कार किया। 1924 में कांग्रेस की ओर से स्वराज पार्टी ने चुनाव में भाग लिया।

स्वराज्य पार्टी का मुख्य उद्देश्य विधान मंडलों में जाकर द्वैध शासन को असफल बनाना था। विधान मंडलों में आकर उन्होंने द्वैध शासन में परिवर्तन की माँग की। अतः सरकार ने मुडीमैन समिति की नियुक्ति की, जिसमें यूरोपीयन और भारतीय दोनों तरह के सदस्य थे। यूरोपीयन सदस्य द्वैध शासन को मौलिक रूप से सही मानते थे, जबकि भारतीय सदस्य द्वैध शासन को मौलिक रूप से गलत मानते थे। साइमन कमीशन ने भी द्वैध शासन प्रणाली के दोषों पर प्रकाश डाला था। नेहरू रिपोर्ट में भी इसकी कटु आलोचना की गयी थी। 1921 से 1937 तक द्वैध शासन पद्धति ब्रिटिश भारतीय प्रांतों में चालू रही। इस काल में जो अनुभव प्राप्त हुआ, उससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इस अवस्था में अनेक दोष थे और इसकी असफलता निश्चित थी।

द्वैध शासन के दोष उसकी असफलता के कारण सिद्ध हुए, जो निम्नलिखित थे-

सैद्धांतिक दृष्टि से दोषपूर्ण

द्वैध शासन सैद्धांतिक दृष्टि से दोषपूर्ण था। द्वैध शासन में यह बात स्वतः मान ली गयी कि भारतीय अभी पूर्ण उत्तरदायी शासन के लिए अयोग्य हैं। इसलिए भारत में शुरू में आंशिक उत्तरदायी सरकार की स्थापना की जाय, ताकि भारतीय मंत्रियों को साधारण अधिकार भी मिल जायँ और अंग्रेजों के हाथों से वास्तविक शक्ति भी न निकले। इसलिए भारतीयों का असंतुष्ट होना स्वाभाविक ही था।

दूसरा प्रांतीय सरकार को दो भागों में बाँटना, जिसमें एक भाग विधान मंडल के प्रति उत्तरदायी था और दूसरा अनुत्तरदायी था, सर्वथा त्रुटिपूर्ण था। इससे शासन की एकता और कार्यक्षमता नष्ट हो गई। लार्ड लिटन ने ठीक ही कहा था कि सरकार के रक्षित भाग को यद्यपि कोई पसंद नहीं करता था, लेकिन उसे आदर सभी देते थे जबकि हस्तांतरित भाग को न केवल नापसंद किया जाता था अपितु तुच्छ भी समझा जाता था।

विषयों का अवैज्ञानिक विभाजन

प्रांतीय विषयों का रक्षित और हस्तांतरित विषयों का बँटवारा सरकार की न केवल एकता को नष्ट करने वाला था बल्कि यह कृत्रिम तथा अव्यावहारिक भी था, जिसके फलस्वरूप नित्य नई समस्याएँ उठ खङी होती थी। विषयों का बँटवारा ऐसे अवैज्ञानिक ढंग से किया गया कि मंत्रियों के पास किसी भी समूचे विभाग का पूर्ण नियंत्रण नहीं था।

उदाहरणार्थ – कृषि और सिंचाई का अभिन्न संबंध है, किन्तु कृषि हस्तांतरित विषय रखा गया और सिंचाई को रक्षित। शिक्षा हस्तांतरित विषय था, किन्तु यूरोपीयनों एवं एंग्लो-इंडियन्स की शिक्षा रक्षित विषय था। मद्रास सरकार के व्यवसाय मंत्री सर के.वी.रेड्डी ने मुडीमैन कमेटी के समक्ष गवाही देते हुए कहा था, मैं कृषि मंत्री था, पर सिंचाई से मेरा कोई संबंध नहीं था। कृषि मंत्री होते हुए भी मेरा मद्रास कृषक ऋण अधिनियम और भूमि विकास ऋण अधिनियम से कोई सरोकार नहीं था। सिंचाई, कृषि, ऋण, भूमि विकास ऋण और अकाल रक्षा के बिना कृषि मंत्री की कार्यक्षमता और प्रभाव की केवल कल्पना ही की जा सकती है। मैं मंत्री था उद्योग का, पर कारखाने, भाप यंत्र, जल विद्युत तथा श्रम विभाग मेरे पास नहीं थे, क्योंकि ये सब रक्षित विषय थे।

गवर्नर की विशेष शक्तियाँ

दोहरे शासन की सफलता इस बात पर निर्भर थी कि गवर्नर हस्तांतरित तथा रक्षित भागों को किस प्रकार निर्देशित करते हैं। यदि गवर्नर मंंत्रियों के कार्यों में अनुचित हस्तक्षेप करे और उनको वांछनीय सहयोग न दे अथवा अपनी विशेष शक्तियों का बार-बार प्रयोग करे, तब दोहरा शासन कभी सफल नहीं हो सकता था। मोण्ट-फोर्ट रिपोर्ट के रचयिता गवर्नर को मात्र संवैधानिक अध्यक्ष नहीं बनाना चाहते थे। उनका उद्देश्य था कि जब तक मंत्रियों की सलाह से कोई भयानक परिणाम न निकले, उनकी सलाह मान ली जाय। प्रारंभ के दो वर्षों तक गवर्नरों ने मंत्रियों के मामलों में अनुचित हस्तक्षेप नहीं किया, किन्तु बाद में उन्होंने अनुचित हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया।

गवर्नरों ने तीन प्रकार से सारी शक्तियाँ अपने हाथ में ले ली। प्रथम, उन्हें सरकार को अच्छी तरह संचालित करने के लिए नियम बनाने व आदेश जारी करने का अधिकार था। उन्होंने नियम बना दिया कि सप्ताह में एक बार सचिव अपने विभागीय कार्य के लिए गवर्नर से मिला करें और जहाँ उनके मंत्रियों से मतभेद हों, वे सभी मामले गवर्नरों के निर्णय के लिए प्रस्तुत करें। इससे मंत्री बिल्कुल शक्तिहीन हो गये और सचिव उनके विरुद्ध गवर्नर के कान भरने लगे।

दूसरा, गवर्नरों ने मंत्रियों से इकट्ठा मिलने की बजाय अलग-अलग मिलना शुरू कर दिया, इससे मंत्रियों की बातों की उपेक्षा करना बहुत आसान हो गया।

तीसरा, गवर्नरों ने एक नया सिद्धांत अपना लिया कि मंत्री केवल उनके परामर्शदाता हैं और यह उनकी इच्छा पर निर्भर है कि वे मंत्रियों की किसी बात को मानें या न मानें। इसका परिणाम यह हुआ कि गवर्नर मंत्रियों की उचित सलाह की भी उपेक्षा करने लगा।

संयुक्त विचार-विमर्श का अभाव

इस अधिनियम के रचियताओं ने प्रांतीय सरकार को दो भागों (रक्षित तथा हस्तांतरित) में संयुक्त विचार-विमर्श की सिफारिश की थी, ताकि मंत्रियों द्वारा गवर्नर की कार्यकारिणी जन इच्छाओं का पता लगा सके तथा कार्यकारिणी के सदस्यों के अनुभवों से मंत्री कुछ सीख सकें। गवर्नरों को इस प्रकार के निर्देश भी दिये गये थे। किन्तु मद्रास के गवर्नर को छोङकर किसी भी गवर्नर ने इन निर्देशों का पालन नहीं किया। बजट पर विचार करने के अलावा कार्यकारिणी के सदस्य तथा मंत्रीगण शासन संबंधी मामलों पर विचार-विमर्श के लिए कभी सम्मिलित नहीं होते थे।

फलस्वरूप उनमें निरंतर अविश्वास और तनातनी रहती थी और वे सार्वजनिक रूप से एक-दूसरे की निन्दा करते थे। मंत्रियों से यह आशा की जाती थी कि वे अपने साथियों की प्रत्येक बात का विधान परिषद में समर्थन करें, जबकि रक्षित विभागों के बारे में उनसे कोई सलाह नहीं ली जाती थी।

संयुक्त उत्तरदायित्व का अभाव

मंत्री किसी भी संगठित राजनैतिक दल के प्रतिनिधि नहीं थे, अतः वे किसी निश्चित कार्यक्रम से बंधे हुए नहीं थे। गवर्नर ने उनमें संयुक्त उत्तरदायित्व की भावना उत्पन्न करने का प्रयास ही नहीं किया और न कभी उनमें सामूहिक विचार-विमर्श ही होता था। इसलिए विभिन्न समस्याओं पर उनके भिन्न-भिन्न विचार होते थे। कई बार एक मंत्री दूसरे मंत्री की योजना की विधान परिषद में आलोचना कर देता था।

मंत्रियों का कार्यकारिणी के साथ भी कोई सहयोग नहीं था। मंत्री विधान परिषद के प्रति उत्तरदायी थे, अतः वे विधान परिषद के सदस्यों को प्रसन्न रखने का प्रयत्न करते थे। इसके विपरीत कार्यकारिणी के सदस्य विधान परिषद के प्रति उत्तरदायी नहीं थे। इसलिए उन्हें इस बात की कोई चिन्ता नहीं थी कि विधान परिषद उनसे प्रसन्न है अथवा नाराज। अतः वे मंत्रियों को सहयोग देने की चिन्ता ही नहीं करते थे। इस आपसी सहयोग के अभाव में प्रशासन में अनेक कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती थी।

मंत्रियों की दुर्बल स्थिति

मंत्रियों की स्थिति वास्तव में बङी दुर्बल थी। उनके पास कोई वास्तविक अधिकार नहीं थे। वे राष्ट्र निर्माण संबंधी विभागों का संचालन करते थे, किन्तु उनके पास फंड नहीं थे। प्रांतों में वित्त विभाग रक्षित विषय था। अतः यह हर मामले में रक्षित विभागों का पक्ष लेता था और हस्तांतरित विभागों के मार्ग में अनेक प्रकार के रोङे अटकाता था, ताकि यह सिद्ध हो जाय कि भारतीय मंत्री अयोग्य हैं।

वित्त विभाग का यह पूर्ण प्रयत्न रहता था कि हस्तांतरित विभागों की माँगों पर विचार करने से पूर्व रक्षित विभागों की सारी माँगें पूरी कर दी जायँ। अतः हस्तांतरित विभागों के लिए धन का अभाव सदा बना रहता था। इसके अलावा गवर्नर हस्तांतरित विषयों में हस्तक्षेप कर सकता था तथा बिना कारण बताये किसी मंत्री को पदच्युत कर सकता था। इसलिए अनेक मंत्री गवर्नर की चापलूसी करने लगे थे। ऐसी स्थिति में दोहरे शासन की असफलता स्वाभाविक थी और इसकी काफी जिम्मेदारी गवर्नर की थी।

विधान परिषद का दोषपूर्ण संगठन

प्रांतों की विधान परिषदों का संगठन भी दोषपूर्ण था। इसके लगभग 30 प्रतिशत सदस्य सरकारी अधिकारी अथवा सरकार द्वारा मनोनीत गैर-सरकारी अधिकारी थे। जो सदस्य निर्वाचित थे, वे विभिन्न संप्रदायों तथा विशेषाधिकार प्राप्त तत्वों का प्रतिनिधित्व करते थे।

मतदान का अधिकार भी संपत्ति, आयकर तथा राजस्व संबंधी योग्यता पर आधारित था। अतः विधान परिषद के अधिकांश सदस्य प्रतिक्रियावादी थे। सभी सदस्य सरकार को हर प्रकार से प्रसन्न रखना चाहते थे, ताकि वे अपने-अपने संप्रदायों के लिए अधिक सुविधाएं प्राप्त कर सकें।

बाहरी परिस्थितियों का उत्तरदायित्व

जिस समय 1919 का अधिनियम लागू किया गया, उस समय भारत में इसके अनुकूल परिस्थितियाँ नहीं थी। प्रथम विश्वयुद्धके बाद अनेक राष्ट्रीय राज्यों की स्थापना हो गयी थी। ब्रिटेन ने अपने अधिराज्यों के साथ समानता का व्यवहार करना शुरू कर दिया था और एशिया में नई राष्ट्रीय जागृति उत्पन्न हो चुकी थी। ऐसी परिस्थिति में भारतीयों को ब्रिटिश सरकार के ये सुधार अपर्याप्त और निराशाजनक प्रतीत हुए।

द्वैध शासन की सफलताएँ

द्वैध शासन चाहे असफल रहा हो और 1935 में इसको समाप्त भी कर दिया गया (1935 का अधिनियम पारित होने के बाद), परंतु यह सर्वथा लाभहीन नहीं रहा। इसके अन्तर्गत भारतीय मंत्रियों को स्वशासन का प्रशिक्षण मिल गया। उन्हें पता चल गया कि स्वशासन के मार्ग में कौन सी कठिनाइयाँ आ सकती हैं और उनका हल कैसे निकाला जा सकता है।

भारतीय मंत्रियों को तथा जनता को स्वशासन के प्रति ब्रिटिश सरकार के रवैये का भी पता चल गया। हस्तांतरित विषयों में नौकरशाही के ऊपर मंत्रियों का जो नियंत्रण स्थापित किया गया, इससे नौकरशाही को महसूस हुआ कि बदलती हुई परिस्थितियों में जनता की माँगों और हितों की ओर थोङा बहुत ध्यान अवश्य देना पङेगा।

धीरे-धीरे आंशिक उत्तरदायी शासन के साथ-साथ सार्वजनिक सेवाओं का भारतीयकरण होने लगा। इस अधिनियम द्वारा प्रथम बार लोगों को मतदान का अधिकार मिला और प्रथम बार बङे पैमाने पर चुनाव हुए। परिषदों में प्रथम बार संसदीय वातावरण बना। सरकारी नौकरशाही ने पहली बार जनता द्वारा निर्वाचित मंत्रियों के आदेशों का पालन किया। मंत्रियों को उन सरकारी रहस्यों का पहली बार ज्ञान हुआ, जिन्हें अब तक पूर्णतया गुप्त रखा जाता था।

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