इतिहासप्राचीन भारत

प्राचीन काल में प्रौद्योगिकी का प्रारंभ

प्राचीन भारतीयों ने विज्ञान के साथ-साथ प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण प्रगति की। इसका प्रारंभ हमें प्रागैतिहासिक काल से ही दिखाई देता है। इससे तात्पर्य पाषाणकाल से है, जिसका विभाजन पूर्व, मध्य, तथा उत्तर अथवा नव पाषाणकाल में किया जाता है।

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इस काल में पाषाण प्रौद्योगिकी का खूब विकास हुआ। आदि मानव ने पाषाण से विविध प्रकार के उपकरणों का निर्माण किया। पाषाण काल के प्रमुख उपकरण कोर, फ्लेक, तथा ब्लेड हैं। उपकरण बनाने के लिये कोई उपयुक्त पत्थर चुना जाता था, फिर उस पर किसी गोल-मटोल पत्थर से हथौङे के समान चोट की जाती थी, जिससे उसका एक छोटा खंड निकल जाता था। इस विधि से कई छोटे-छोटे टुकङे निकल जाते थे। तथा बचे हुये आंतरिक भाग को बार-बार चोट करके अभीष्ट आकार का तैयार कर लिया जाता था। इसे ही कोर कहते थे, जबकि अलग हुये टुकङों को फ्लेक कहा जाता था। इनके किनारों पर बारीक घिसाई करके उन्हें धारदार बना दिया जाता था, जो ब्लेड कहलाते थे। कुछ के निर्माण में अत्यन्त उन्नत प्रौद्योगिकी के दर्शन होते हैं। पाषाण निर्मित प्रमुख उपकरण हैं – गङासा, तथा खंडक उपकरण, हैन्ड एक्स तथा क्लीवर, खुरचनी, बेधनी, तक्षणी, बेधक आदि। पूर्व पाषाणकालीन मानव ने पत्थरों की कटाई, घिसाई आदि के द्वारा अभीष्ट उपकरण बनाने में दक्षता प्राप्त कर ली थी। मध्य पाषाण काल में अपेक्षाकृत छोटे उपकरण तैयार किये गये, जिन्हें लघु पाषाणोपकरण कहा जाता है। इस काल के मानव ने प्रक्षेपास्त्र तकनीक के विकास का प्रयत्न किया। यह एक महान प्रौद्योगिक क्रांति थी। इनकी धार अत्यन्त तेज बनायी जाती थी। मध्य-पाषाणकालीन उपकरण अर्धचान्द्रिक, छिद्रक, बेधनी, ब्लेड तथा ब्यूरीन आदि हैं, जो चर्ट, चाल्सडनी और एगेट पत्थरों से बने हैं। नवपाषाण काल तक आते-आते मनुष्य का तकनीकी ज्ञान और विकसित हो गया। अब मनुष्य ने पाषाण फलकों से गढायी, घिसाई तथा उन पर पॉलिश करके अभीष्ट उपकरण तैयार कर लिये। पाषाण के साथ-साथ अस्थियों एवं सींगों से भी उपकरण तैयार किये जाते थे। इनमें अभीष्ट उपकरण तैयार कर लिये। पाषाण के साथ-साथ अस्थियों एवं सींगों से भी उपकरण तैयार किये जाते थे। इनमें सबसे प्रमुख पॉलिशदार पत्थर की कुल्हाङियां हैं, जो देश के विभिन्न भागों से बङी मात्रा में पायी गयी हैं। ये विविध आकार-प्रकार की हैं। कुछ में तिकोना दस्ता लगा रहता था तथा बङी-बङी स्कन्धित भी होती थी, जबकि कुछ के किनारे अण्डाकार तथा हत्थे नुकीले होते थे।

इस प्रकार प्रौद्योगिकी का विकास पाषाणकाल में हो चुका था। पत्थर से वस्तुयें बनाने का उद्योग कालांतर में आत्यन्त विकसित हो गया।

पाषाण प्रौद्योगिकी के बाद हम धातु प्रौद्योगिकी का विकास पाते हैं। धातुओं में मनुष्य ने सर्वप्रथम ताँबे का प्रयोग किया। उसके बाद कांसा तथा अंत में लोहे का प्रयोग किया। बहुत समय तक मनुष्य ने ताँबे तथा पत्थर के उपकरणों का साथ-साथ प्रयोग किया। इसी कारण इस अवस्था को ताम्रपाषाणिक कहा जाता है। यह संस्कृति प्राक् हङप्पा, हङप्पा तथा उत्तर हङप्पा काल तक फैली हुई है। प्राक् हङप्पाई संस्कृति के लोग ताँबे के उपकरणों में कुल्हाङियों, चाकू, चूङियों, मुद्रिकायें, कंकण आदि का प्रयोग करते थे। इनका निर्माण अत्यन्त सूक्ष्मता एवं सफाई के साथ किया गया है। लोग ताँबे को पिघलाने की कला जानते थे। हङप्पा संस्कृति में हम अत्यन्त उन्नत तकनीक धातुकर्म का विकास पाते हैं। यहां के विभिन्न स्थालों से ताँबे तथा कांसे की बनी हुई वस्तुयें प्राप्त होती हैं। ऐसा प्रतीत होता है, कि समाज में कांस्य शिल्पियों का कोई महत्त्वपूर्ण संगठन कार्यरत था। वे प्रतिमाओं और बर्तनों के अलावा कई प्रकार के औजार और हथियार भी बनाते थे। मूर्तियों का भी निर्माण किया जाता था। मोहनजोदङो से प्राप्त कांस्य नर्तकी की मूर्ति धातु शिल्प का सर्वश्रेष्ठ नमूना है। इसके अलावा इस सभ्यता में हमें बङे पैमाने पर पाषाण फलकों का उत्पादन, मनका उद्योग, सेलखङी की आयताकार मुहरें बनाने का उद्योग, इष्टिका उद्योग, आदि के भी सुविकसित होने का प्रमाण मिलता है। सैन्धव सभ्यता के बाद भारत के विभिन्न क्षेत्रों में हमें विकसित ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों के दर्शन होते हैं। इनमें ताम्र धातु का व्यापक प्रयोग हुआ। ताँबे को घरों में पिघलाकर वस्तुयें बनाने के साक्ष्य मिलते हैं। राजस्थान का क्षेत्र ताम्र धातु उद्योग का सर्वप्रमुख केन्द्र था। यहां के एक पुरास्थल अहाङ का अपर नाम ताम्बवती अर्थात् ताँबे वाली जगह भी मिलता है। इसी के समीप गणेश्वर नामक स्थान से बङी मात्रा में ताँबे के उपकरण मिलते हैं। इनमें अंगूठियाँ, चूङियां, कुल्हाङियों, सुरमा लगाने की सलाइयाँ, चाकू के फल, कंगन आदि हैं। इसके अलावा पूर्व में बंगाल से पश्चिम में गुजरात तथा दक्षिण में आन्ध्र प्रदेश से उत्तर में उत्तर प्रदेश तक के विशाल भूभाग से चालीस से भी अधिक ताम्र निधियां प्राप्त होती हैं। इनमें अंगूठी, सब्बर तथा खन्ती, टेकदार कुल्हाङी, मूठवाली तलवार, हार्पून, बसूली, श्रृंगिका तलवारें, मानव आकृतियां आदि हैं। इन सबसे पता चलता है, कि अब देश के विभिन्न भागों में धातु प्रौद्योगिकी काफी विकसित एवं लोकप्रिय हो गयी थी। लगभग 1200 ई.पू. के आस-पास मध्य और पश्चिमी भारत से ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों का विलोप हो गया। इसके बाद लौह धातु का प्रचलना हुआ। ई.पू.छठीं शता. अथवा बुद्ध काल में गंगा-घाटी में नगरों का तेजी से उत्थान हुआ। इसे द्वितीय नगरीकरण कहा जाता है। इसके पीछे लौह तकनीक का विकास भी उत्तरदायी था। पहले केवल युद्ध के उपकरण ही लोहे से तैयार किये जाते थे। मगध क्षेत्र में कच्चा लोहा आसानी से प्राप्त हो जाता था। यहां के लुहार लोहे के अच्छे-अच्छे हथियार बना लेते थे, जो मगध के शासकों को सहज में सुलभ थे। जैन ग्रंथों से पता चलता है, कि अजातशत्रु ने प्रथम बार वज्जिसंघ के साथ युद्ध में रथमूसल तथा महाशिलाकंटक जैसे विध्वसंकर अस्त्रों का प्रयोग किया था। ये अवश्य ही लोहे के बने रहे होंगे। मगध साम्राज्यवाद को विकसित एवं सुदृढ करने में लौह तकनीक का भी हाथ रहा है। युद्ध संबंधी अस्त्र-शस्त्रों के साथ-साथ अब गंगाघाटी में बङे पैमाने पर लोहे से कृषि में काम आने वाले उपकरण भी तैयार किये जाने लगे। इनकी सहायता से वनों की कटायी कर अधिकाधिक भूमि कृषि योग्य बनाई गयी तथा प्रभूत उत्पादन होने लगा। उत्पादन अधिशेष ने नगरीकरण को पुष्ट किया। मालवा, पूर्वी भारत तथा दक्षिण भारत के विभिन्न भागों में लौह तकनीक का तेजी से विस्तार एवं विकास हो गया। तकनीकी ज्ञान नगरीय एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था की उन्नति का मुख्य आधार सिद्ध हुआ। लुहारों ने कङे से कङे औजार बनाना प्रारंभ कर दिया। देश के विभिन्न भागों में समृद्ध लोहे की खानें थी।इस्पात का निर्माण भी होने लगा। बरार में माहुरझारी के एक बृहत्पाषाणिक स्थल से लोहे की एक ऐसी कुल्हाङी मिलती है, जिसमें 6% कार्बन की मात्रा है। इसे इस्पात ही कहना पङेगा। इस्पात बनाने की कला सर्वप्रथम भारत में ही विकसित हुई। इस्पात निर्मित तलवारें पूरे विश्व में बेजोङ थी। भारत ईसा-पूर्व चौथी शती तक इनका निर्यात विश्व के अन्य देशों को करने लगा।

मौर्य काल में पाषाण एवं लौह प्रौद्योगिकी का खूब विकास हुआ। अशोक के एकाश्मक स्तंभ पाषाण तराशने की कला की उत्कृष्टता के साक्षी हैं। लगभग पचास टन वजन तथा तीस फीट से अधिक ही ऊंचाई वाले स्तंभों को पांच-छह सौ मील की दूरी तक ले जाकर स्थापित करना तत्कालीन अभियान्त्रिकी कुशलता को सूचित करता है तथा आजे के वैज्ञानिक युग में भी आश्चर्य की वस्तु है। इसी प्रकार का एक अन्य उदाहरण सुदर्शन झील का निर्माण है। इस काल के पुरास्थलों से लोहे के औजार, हथियार भारी संख्या में मिलते हैं। चित्रित धूसर मृदभाण्ड के प्रयोक्ता लौह उपकरणों से भलीभाँति परिचित थे। यह संस्कृति लौह तकनीक के विकास को सूचित करती है।

मौर्योत्तर काल प्रौद्योगिक प्रगति की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है। महावस्तु में राजगृह नगर में निवास करने वाले 36 प्रकार के शिल्पियों अथवा कामगारों का उल्लेख मिलता है तथा मिलिन्दपन्ह में 75 व्यवसायों का उल्लेख है, जिनमें लगभग 60 विभिन्न प्रकार के शिल्पों से संबद्ध थे। आठ शिल्प सोना, चाँदी, सीसा, टिन, ताँबा, पीतल, लोहा तथा हीरे-जवाहररात जैसे उत्पादों से संबंधित थे। इससे सूचित होता है, कि धातुकर्म के क्षेत्र में पर्याप्त निपुणता हासिल कर ली गयी थी,- विशेष रूप से लोहा ढलायी का तकनीकी ज्ञान काफी विकसित हो गया था। पेरीप्लस के अज्ञात नामा लेखक ने अबीसीनिया के बंदरगाहों में भारत से आयात की जाने वाली वस्तुओं की जो सूची दी है, उनमें लोहा तथा इस्पात का प्रमुखता से उल्लेख किया गया है। प्रौद्योगिकी प्रगति के परिणामस्वरूप ईसा की प्रथम तीन शताब्दियों में नगरीकरण अपने उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुंच गया। इसके बाद लौह धातु आम उपयोग की सबसे महत्त्वपूर्ण वस्तु बन गयी।

गुप्तकाल भी प्रौद्योगिक प्रगति की दृष्टि से नगण्य नहीं रहा। अमरकोश में लोहे के लिये सात नाम दिये गये हैं। पाँच नाम हल के फाल से संबंधित हैं। मेहरौली लौह स्तंभ से सूचित होता है, कि लौह कर्म का तकनीकी ज्ञान अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया। इस पर मात्र मैग्नीज आक्साइड (MgO)की पतली परत चढाकर इसे जंगरहित बना दिया गया है। दुर्भाग्यवश इसके बाद इस तकनीकी विकास को समझने के लिये हमारे पास कोई स्त्रोत नहीं हैं। इसमें लगी पॉलिश आज भी धातु वैज्ञानिकों के लिये आश्चर्य की वस्तु बनी हुई है। इस प्रकार का स्तम्भ एक शती पूर्व विश्व के किसी भी ढलाई घर में बन पाना संभव नहीं था। इस समय बहुसंख्यक कांस्य कृतियों का भी निर्माण हुआ। सुल्तानगंज (बिहार) से प्राप्त महात्मा बुद्ध की लगभग साढे सात फुट ऊँची एक टन भार वाली कांस्य प्रतिमा उल्लेखनीय है। धातु प्रौद्योगिकी के सुविकसित होने का प्रमाण सिक्कों तथा मुहरों की बहुलता में देखा जा सकता है। धातु विद्या को चौंसठ कलाओं में सम्मिलित कर लिया गया। अनेक स्थानों पर निपुण धातुकर्मी निवास करते थे। बहुमूल्य धातुओं एवं पत्थरों से आभूषण तैयार करने का उद्योग भी प्रगति पर था। जहाजरानी उद्योग की भी उन्नति हुई। सुप्रसिद्ध कलाविद आनंद कुमार स्वामी के अनुसार यह पोत निर्माण का महानतम युग था।

प्रौद्योगिकी का विकास गुप्तोत्तर काल में भी हुआ, यद्यपि विज्ञान तथा शिल्पकारिता में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं हुआ। कृषि की उन्नति तथा व्यापक आधार प्राप्त कर लने के फलस्वरूप सिंचाई तकनीक उन्नत हो गयी। राजतरंगिणी में खूया नामक इंजीनियर का उल्लेख है, जिसने झेलम तट पर बांध बनवाया तथा नहरें निकलवायी थी। चंदेल तथा परमार शासकों के काल में बङी-बङी झीलों तथा तालाबों का निर्माण किया गया। अधिकतर सिंचाई रहत (अरघट्ट) से की जाती थी। विविध प्रकार के उद्योग-धंधे विकसित अवस्था में थे। शिल्पकारों तथा व्यापारियों की अनेक श्रेणियां थी। खानों से धातुयें निकाली जाती तथा उनसे उपकरण एवं बर्तन, आभूषण, अस्त्र-शस्त्र आदि तैयार किये जाते थे। साहित्यिक तथा पुरातात्विक, दोनों ही प्रमाण लौह तकनीक के सुविकसित होने के प्रमाण देते हैं। तेरहवीं शती के संग्रह रसरत्न समुच्चय में लोहे की कई किस्मों का उल्लख किया गया है – मुण्ड, तीक्षा, कान्त आदि। प्रत्येक के कई उपभेद भी मिलते हैं। इनसे सूचित होता है, कि लौह तकनीक के क्षेत्र में उच्च कोटि की निपुणता प्राप्त कर ली गयी थी। बङी-बङी शहतीरों का निर्माण किया जाने लगा। जैसा कि इस काल के मंदिरों को देखने से पता चलता है। युद्ध संबंधी अस्त्र-शस्त्र भी बहुतायत में निर्मित किये जाते थे। कुछ क्षेत्रों में सफेद चमचमाती तलवारें बनायी जाती थी। बनारस, मगध, नेपाल, सौराष्ट्र तथा कलिंग के कारीगरों ने तलवार बनाने में दक्षता प्राप्त कर रखी थी। अन्य धातुओं में सोना, कांसा,तांबा आदि से आभूषण, उपकरण एवं बर्तन बनाने का उद्योग भी काफी विकसित था। कांसे की ढलाई कर सुन्दर-सुन्दर मूर्तियां तैयार की जाती थी। मूर्ति बनाने वाले को रूपकार तथा पीतल का काम करने वाले कर्मकार को पीतलहार कहा जाता था। चर्म-उद्योग भी प्रगति पर था। मार्को पोलो नामक यात्री गुजरात के अद्भुत एवं सुविकसित चर्म उद्योग का उल्लेख करता है। वहां के शिल्पी लाल तथा नीले चमङे से सुन्दर-सुन्दर चटाइयां बनाते थे, जिन पर पशु-पक्षियों के चित्र बने होते थे। पाषाण एवं काष्ठ प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी उन्नति हुई। वास्तु शास्त्र के ग्रंथ अपराजितपृच्छा से पता चलता है, कि प्रत्येक नगर में पाषाण पर काम करने वाले दक्ष शिल्पी निवास करते थे। बढई लकङी पर नक्काशी करके सुन्दर-सुन्दर वस्तुयें तैयार करते थे।

उत्तर भारत के समान दक्षिण भारत भी प्रौद्योगिकी के विकास की दृष्टि से अत्यधिक समृद्ध रहा। सिंचाई के लिये जो बहुसंख्यक तालाबों एवं बांधों का निर्माण करवाया गया, उनमें उच्चकोटि की अभियान्त्रिक कुशलता दिखाई देती है। इसका उत्कृष्ट उदाहरण कावेरी नदी तट पर चोल राजाओं द्वारा श्रीरंगम टापू के नीचे बनवाया गया बांध है, जो 1240 मीटर लंबा और 12 से 18 मीटर चौङा था। संपूर्ण दक्षिण में विविध प्रकार के शिल्प एवं उद्योग धंधे प्रचलित थे। वस्त्र उद्योग, नमक उद्योग, मोती, सीप आदि के व्यवसाय सभी प्रगति पर थे। दक्षिण के विभिन्न भागों से बहुसंख्यक पाषाण मंदिर तथा मूर्तियां मिलती हैं, जिनमें नाना प्रकार की नक्काशी की गयी है। इससे पाषाण तकनीक के समुन्नत होने का प्रमाण मिलता है। पल्लव तथा चोलकालीन कलाकृतियां उच्चतम तकनीकी प्रगति की सूचक हैं।

इस प्रकार प्राचीन भारत के विभिन्न कालों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई। कुछ क्षेत्रों में भारतीय ज्ञान-विज्ञान को विदेशियों ने भी ग्रहण किया तथा उसकी प्रशंसा की।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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