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दक्षिण भारत में व्यापार तथा वाणिज्य

कृषि तथा शिल्प उद्योगों के साथ-साथ दक्षिण भारत में व्यापार-वाणिज्य की भी प्रगति हुई। इस काल की व्यापारिक गतिविधियों के विषय में हम अभिलेखों तथा ग्रंथों के अलावा विदेशी लेखकों के विवरण से भी महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

विभिन्न स्त्रोतों से विदित होता है, कि दक्षिण में आंतरिक तथा बाह्य दोनों ही व्यापार प्रगति पर था। देश के भीतर एक स्थान से दूसरे स्थान को माल ले जाया जाता था। उस समय यातायात के साधनों की कमी थी। सङकों की हालत अच्छी नहीं थी। अतः भार ढोंने के लिये बैलगाङियों, टट्टुओं तथा मनुष्यों का उपयोग किया जाता था। तमिल देश में दकन की अपेक्षा सङकों की दशा अच्छी थी। नदियों के किनारे स्थित स्थानों में नावों में भरकर माल ले जाया जाता था। नगरों में व्यापारियों के निगम होते थे। व्यापारियों के स्थानीय संगठनों की संज्ञा नगरम् थी। इस प्रकार के संगठन कांची तथा मामल्लपुरम् में विद्यमान थे। व्यापारिक संगठन, राजनीतिक गतिविधियों से उदासीन होकर अपना सारा समय व्यापार में ही लगाते थे। लेखों से हमें मणिग्रामम्,नानादेशिस, बलंडियर, वलैङ्ग, इदंगै, तेलिन् आदि व्यापारी संघों के विषय में सूचनायें प्राप्त होती हैं। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण नानादेशिस् नामक संगठन था, जिसे अय्यवोलेपुर (एहोल)के पांच सौ स्वामियों के नाम से जाना जाता था।ये अपने उद्यम के लिये पूरे विश्व में विख्यात थे। ये स्थल तथा जल मार्गों से यात्रायें करते थे तथा चोल, चेर, पाण्ड्य, मूलेय, मगध, कोशल, सौराष्ट्र, धानुष्ट, कुरुम्ब, कंबोज, गोल्ल, लाल, बर्व्वर, फारस, नेपाल, एकपाब, लंबकर्ण, स्त्रीराज्य तथा गोलामुख की यात्रायें करते थे। यह विवरण हमें शिकारपुर तालुक (शिमोगा जिसे में स्थित) की एक प्रशस्ति, जो 1045 ई. की है, में प्राप्त होता है।

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प्रशस्ति में यह भी बताया गया है, कि इसके व्यापारी छहों महाद्वीपों के देशों में जाते थे। वे सुन्दर हाथियों, घोङों, नीलम, चंद्रमणि, मोतियों, रुबियों, हारों, वैदुर्य, पुष्पराग, मरकत जैसी बहुमूल्य वस्तुओं के साथ-साथ इलायची, लवंग, गुभ्गुल, चंदन, केसर, कपूर, कस्तूरी तथा अन्य मसालों एवं इत्रों का व्यापार करते थे। इन व्यापारियों के पास अपनी सेना होती थी, जिसकी सहायता से वे स्वयं अपनी रक्षा कर सकने में समर्थ थे। सिंहल तथा बर्मा से प्राप्त कुछ प्रस्तर लेखों में इन व्यापारियों द्वारा दिये गये दान का उल्लेख मिलता है। बर्मा के पगान स्थित वैष्णव मंदिर का निर्माण नानादेशियों द्वारा ही करवाया गया था। बहुत से व्यापारिक केन्द्र दक्षिण के अय्योले कहे जाते थे। ऐसा प्रतीत होता है, कि सेट्टियों (व्यापारियों) की सभा के लिये 500 की संख्या निश्चित हो गयी थी। पाँच सौ स्वामियों में कई तरह के व्यापारी तथा सैनिक शामिल थे। सैनिकों को बीर या बीर वणिज् कहा जाता था। तमिल लेखों में इन्हें नाना देशिस् तथा तिशैयायिरत्तु एन्नूर्रवर (सहस्त्र दिशाओं के 500) कहा गया है, जो वीर वणज्ज धर्म (उत्तम वणिकों के धर्म) के संरक्षक थे। हीरहडगल्ली लेख (1057ई.)में अय्योलेपुर के 500स्वामियों को पाँच सौ वीरवलेजिय कहा गया है। कहीं-कहीं बणञ्ज शब्द भी मिलता है। इनके आज्ञापत्रों को 500 वीर शासन तथा निवास स्थान को वीरपट्टन या वीरपत्तन कहा जाता था। इस प्रकार के गाँव समस्त साम्प्रदायिक दोनों से मुक्त होते थे तथा यहाँ के निवासियों को कुछ विशेष अधिकार और सुविधायें प्राप्त थी। इस प्रकार विभिन्न वर्गों के व्यापारियों का यह एक व्यापक संगठन था, जो अत्यन्त प्राचीन काल से तमिल देश में सक्रिय था। वलंगै तथा इदंगै संगठनों के विषय में कुछ सूचना हमें लेखों में मलिती है। त्रिचनापल्ली से प्राप्त एक लेख में कहा गया है, कि वलंगै तथा इदंगै के 98-98 वर्गों ने आपस में मिलकर राजकीय अधिकारियों, ब्राह्मणों तथा सामंतों के अत्याचारों के विरुद्ध लङने के लिये एक समझौता किया था। संभवतः ये दोनों पहले छोटी-छोटी शाखाओं में गठित थे तथा अब इन्होंने एक बङा सामूहिक संगठन बनाने के विषय में निर्णय कर लिया था, जिसमें सभी एक माता-पिता के पुत्रों जैसा आचारण करने को बचनबद्ध हो गये। कुछ लेखों में अञ्जुवण्णाम् तथा मणिग्रामम् जैसे अर्ध-स्वतंत्र व्यापारिक निगमों का उल्लेख मिलता है। इन्हें कर – मुक्त भूमि प्राप्त थी। निगम के साथ-साथ हम सार्थ तथा सार्थवाह का भी उल्लेख पाते हैं। सार्थ व्यापारियों का चलता-फिरता संगठन था। जब एक स्थान के व्यापारी दूसरे स्थान में सामान बेचने के लिये जाते थे,तो वे समूह बनाकर चलते थे। इस समूह को सार्थ तथा इसके नेता को सार्थवाह कहा गया है। सार्थ का गठन व्यापार के निमित्त जाने वाले व्यापारी सामूहिक सुरक्षा के लिये करते थे। अमरकोश में यात्रा करने वाले पान्थों के समूह को सार्थ कहा गया है। टीकाकार क्षीरस्वामी ने पूँजी द्वारा व्यापार करने वाले पान्थों के नेता को सार्थवाह की संज्ञा दी है। इस प्रकार स्पष्टि है, कि प्राचीन काल में दक्षिण भारत के विभिन्न भागों में व्यापारिक निगम एवं संस्थायें सक्रिय थी।

इस समय दक्षिण का व्यापार अधिकांशतः विनिमय के माध्यम से होता था तथा सिक्कों का बङा अभाव था। यह आश्चर्य की बात है, कि राष्ट्रकूट शासकों ने अपने विशाल साम्राज्य के लिये कोई सिक्का प्रचलित नहीं करवाया था। यह इस बात का प्रमाण है, कि कर्मचारियों का वेतन नकद नहीं दिया जाता था तथा करों की वसूलों भी अनाज के रूप में ही होती थी। अतः व्यापार या तो विनिमय के माध्यम से होता था अथवा सोने या चांदी के माध्यम से ।

कुछ लेखों में सोने के सिक्कों का द्रम्म नाम से उल्लेख किया गया है, जो शासकों द्वारा दान में दिये जाते थे। द्रम्म के अलावा सुवर्ण, धरण, बेल, दीनार, कलंजु, काणि, काशु, पोन, कार्षापण आदि सिक्कों अथवा भार-माप की ईकाइयों का उल्लेख भी लेखों में मिलता है । पल्लव तथा चोल शासकों ने भी अपने साम्राज्य के लिये सिक्कों का प्रचलन किया था। दसवीं शता. से दक्षिण में हमें विभिन्न सिक्के मिलने लगते हैं। इससे इस बात की सूचना मिलती है, कि इस समय व्यापार-वाणिज्य की प्रगति प्रारंभ हो गयी थी।

आंतरिक व्यापार के साथ-साथ दक्षिण भारत का बाह्य व्यापार भी काफी विकसित हुआ। इस समय दक्षिण में कई प्रसिद्ध बंदरगाह थे, जिनसे होकर व्यापारी विदेशों को जाते थे। तमिल देश के पश्चिमी तट पर किलों नामक प्रसिद्ध बंदरगाह था, जहाँ से व्यापारी पश्चिमी देशों को जाते थे। पूर्वी तट पर पुरी, कलिंगपट्टम्, कावेरीपट्टनम्, रामेश्वरम् प्रसिद्ध बंदरगाह स्थित थे। यहाँ से जहाज चीन तथा दक्षिणी-पूर्वी एशिया के अन्य द्वीपों को आते-जाते थे।

दक्षिम के प्रसिद्ध राजवंशों राष्ट्रकूट , चालुक्य, पल्लव तथा चोल के समय में भारत का व्यापार चीन, दक्षिणी-पूर्वी एशिया तथा फारस के साथ विकसित हुआ। राष्ट्रकूट शासकों ने अरब व्यापारियों के साथ मधुर संबंध बनाये रखा, क्योंकि उनसे माल खरीदने में उन्हें लाभ होता था।

पल्लव काल में महाबलीपुरम् प्रसिद्ध बंदरगाह के रूप में विकसित हुआ, जहाँ से श्रीलंका तथा सुदूर-पूर्व के देशों को व्यापारिक जहाज आते-जाते थे।

चोल काल में चीन, दक्षिणी-पूर्वी एशिया तथा फारस के साथ व्यापार अत्यन्त विकसित हो गया। राजराज, राजेन्द्र प्रथम तथा कुलोत्तुंग प्रथम ने चीन में अपने व्यापारिक दूतमंडल भेजे थे। जिसके परिणामस्वरूप चोल साम्राज्य तथा चीन के बीच व्यापारिक संबंधों का विस्तार हुआ।

तंजोर में बहुत से चीनी सिक्के मिले हैं, जो दक्षिण भारत के साथ चीन व्यापारिक संबंधों की साक्षी देते हैं। चाऊ-जू-कूआ के विवरण से पता चलता है, कि ईसा की दसवीं-बारहवीं शता. में भारतीय गरम मसालों तथा विलासिता की सामग्रियों की चीन में माँग काफी बढ गयी। इन्हें आयात करने के बदले चीन का काफी सोना-चाँदी भारत आने लगा अतः रोम के समान चीन को भी बारहवी शती में मालाबार तथा क्विलोन के साथ अपने व्यापार पर प्रतिबंध लगाना पङा था।

राजराज प्रथम तथा उसके उत्तराधिकारी राजेन्द्र चोल ने श्रीविजय, कडारम् तथा मालदीव को जीतकर अपने साम्राज्य का अंग बना दिया। इन विजयों से दक्षिणी-पूर्वी एशिया के द्वीपों के साथ व्यापार-वाणिज्य अत्यन्त विकसित हो गया।

नीलकंठ शास्त्री की धारणा है, कि चोल नरेशों की इन विजयों का उद्देश्य चीन तथा भारत के व्यापारिक संबंधों को और अधिक पुष्ट करना था। इस समय भारत के व्यापारी इन्डोनेशिया, बर्मा तथा स्याम को जाते थे। सुमात्रा के लोबुतुआ नामक स्थान से प्राप्त ग्यारहवीं शती के एक लेख में तमिल देश के एक व्यापारी-संघ का नाम दिया गया है। पूर्वी चालुक्य नरेश शक्तिवर्मा के कुछ सिक्के बर्मा तथा स्याम से मिलते हैं। सिरफ जो फारस की खाङी के पूर्वी किनारे पर स्थित था, इस काल का प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था, जहाँ चीन, जावा, भारत, मलाया आदि देशों के व्यापारियों का जमघट लगा रहता था।यह समस्त एशिया की सबसे बङी व्यापारिक मंडी थी।यहाँ लायी जाने वाली वस्तुओं में दक्षिण भारतीय माल ही सबसे अधिक होते थे। आबूजैद के विवरण से पता चलता है, कि भारत के व्यापारी बङी संख्या में वहां जाते थे। तथा मुसलमान व्यापिरयों से मलिते थे। यहां से व्यापारी जहाज लाल सागर होकर चीन जान के बजाय जेद्दा से भारत लौट आते थे, क्योंकि यहाँ मोती, अंबर, रत्न तथा सोने की प्राप्ति होती थी। अरब, लेखकों के विवरण से पता चलता है, कि भारत से चंदन, कपूर, चीनी, नारियल, कपास, हाथीदाँत की वस्तुयें, मोती, बिल्लौर, गोलमिर्च, शीशा आदि वस्तुयें अरब देसों को व्यापारियों द्वारा ले जाई जाती थी। मार्कोपोलो दक्षिण भारत के उन व्यापारियों का उल्लेख करता है, जो अरब व्यापारियों के साथ मिलकर घोङों के आयात पर एकाधिकार जमा रखे थे। उसके अनुसार भारत के लोग घोङे पालना नहीं जानते थे, तथा उन्होंने इसका आयात सदा विदेशों से किया। ग्यारहवीं शती के मध्य से सिरफ का महत्व घट गया तथा इसका स्थान किश ने ले लिया।

इस प्रकार हम कह सकते हैं, कि ईसा की छठी से बारहवीं शता. के बीच दक्षिण भारत में कृषि तथा व्यापार-वाणिज्य की प्रगति हुी। तमिल राज्यों की समृद्धि का एक बहुत बङा कारण उनका विदेशी व्यापार था। भारत से निर्यात की जाने वाली वस्तुओं में गरम मसालों की अधिकता थी। इनमें भी गोल मिर्च की यूनान, रोम आदि पश्चिमी देशों में काफी खपत थी।

इसी कारण संस्कृत साहित्य में गोल मिर्च को यवनप्रिय कहा गया है।

गोल मिर्च के अलावा चंदन, कपूर, मोती, जायफल, कस्तूरी, मलमल, हाथीदाँत आदि भी बाहर जाते थे। इनके बदले में भारत को घोङे, ताँबा, शीशा, लोहा, सोना, चाँदी, रेखम, चीनी मिट्टी के बर्तन वस्तुयें प्राप्त होती हैं। विदेशी व्यापार अधिकतर भारत के लिये ही लाभकारी होता था। कहा जा सकता है, कि देश को आर्थिक दृष्टि से समृद्ध बनाने में विदेशी व्यापार का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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