दक्षिण भारत में शिल्प तथा उद्योग धंधे
दक्षिण भारत में कृषि कर्म के साथ-साथ संगम काल के बाद विविध प्रकार के शिल्पों तथा उद्योग धंधों का प्रचलन हुआ था। दक्षिण की आर्थिक समृद्धि में इनका भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। सबसे प्रमुख वस्त्रोद्योग था।
देश के विभिन्न भागों में उत्तम प्रकार के सूती तथा रेशमी वस्त्रों का निर्माण किया जाता था। गुजरात, बरार, तेलंगाना, नागपट्टम, मूलस्थान, कलिंग,मालाबार तट, वारंगल आदि में बढिया किस्म के सूती और रेशमी वस्त्रों का निर्माण किया जाता था। वारंगल में अच्छी-अच्छी दरियां बनाई जाती थी।
वस्त्रों के अलावा विभिन्न प्रकार की धातुओं – सोना, चाँदी, ताँबा, लोहा, शीशा, पीतल, टिन आदि की सहायता से अस्त्र-शस्त्र,बर्तन, आभूषण आदि तैयार किये जाते थे। प्रमुखतःलोहे के बनते थे। पालनाड इनके निर्माण का मुख्य केन्द्र था।
चोलों के समय में कांसे की सुन्दर मूर्तियों का निर्माण किया जाता था। सोने-चाँदी के सुन्दर आभूषण बनाये जाते थे।मणियों के हार तथा आभूषम बनते थे। गोलकुण्डा तथा कीडेड(बेल्लरी,अनंतपुर तथा कडप्पा) में हीरे की खानें थी।
मार्कोपोलो के विवरण से पता चलता है, कि वारंगल में हीरा अधिक मात्रा में उपलब्ध था। चोलों के समय में हीरा, मणिक तथा मोतियों से विविध प्रकार के आभूषणों को बनाने का उद्योग अत्यन्त विकसित था। समुद्री इलाकों में नमक बनाने का उद्योग प्रचलित था।
इसके अलावा विभिन्न स्थानों में अन्य कई प्रकार के छोटे-मोटे उद्योग-धंधे, जैसे – बढईगीरी, टोकरी बनाना, तेल पेरना, पत्थर काटना, चमङे का काम, बर्तन बनाना आदि भी प्रचलित थे।
श्रेणी
विभिन्न शिल्पियों के संगठन को श्रेणी कहा जाता था। श्रेणी एक ही प्रकार के व्यवसाय अथवा उद्योग करने वाले व्यक्तियों की संस्था होती थी। प्राचीन भारत के आर्थिक जीवन में श्रेणियों की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती थी। व्यापार का नियंत्रण वस्तुतः इन्हीं के हाथों में था। ये उत्पादन वाले स्थानों से वस्तुओं को खरीदकर बङे पैमाने पर उनकी बिक्री की व्यवस्था करती थी। उनके द्वारा आंतरिक तथा बाह्य दोनों व्यापार किये जाते थे। दक्षिण भारत के कई लेखों में श्रेणियों का उल्लेख मिलता है।
चालुक्य विक्रमादित्य के लक्ष्मणेश्वर लेख (725ई.) में तांबे तथा कांसे का काम करने वाली एक श्रेणी का उल्लेख मिलता है। बताया गया है, कि कार्त्तिक महीने में सभी वर्गों के लोग इसमें कर जमा करते थे। राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय के मूलगुण्डि लेख में 360 नगरों की श्रेणियों का उल्लेख मिलता है।
चोल शासक राजाधिराज के एक लेख से ज्ञात होता है, कि कांची तथा उसके आस-पास के 24 नगरों के तेलीसंघ ने मंदिर में एकत्र होकर यह प्रस्ताव पारित किया कि कांची मंदिर में दीप तथा बलि का प्रबंध तिरुक्कयूर के के तेलीसंघ द्वारा किया जाना चाहिये।
चालुक्य विक्रमादित्य छठें के एक लेख से पता चलता है, कि विभिन्न श्रेणियों के द्वारा किया जाना चाहिये। चालुक्य विक्रमादित्य छठें के एक लेख से पता चलता है, कि विभिन्न श्रेणियों के 120 सदस्यों द्वारा एहूर के कम्पटेश्वर मंदिर को दान दिया गया था।
श्रेणिधर्म
बारहवीं-तेरहवीं शती. के कई लेख जुलाहों, कुम्हारों, तेलियों आदि की श्रेणियों तथा उनके कार्यों का उल्लेख करते हैं। इनसे सूचित होता है, कि दक्षिण में ये संगठन निर्विघ्न रूप से अपना कार्य कर रहे थे। श्रेणियों के अपने अलग नियम होते ते, जिन्हें श्रेणिधर्म कहा जाता था।राज्य की ओर से इन्हें मान्यता प्राप्त थी। राजा का यह कर्त्तव्य था, कि वह श्रेणीधर्म का सम्मान करे।
बृहस्पति का कथन है, कि श्रेणी के प्रधान, धर्म के अनुसार अपने सदस्यों के साथ कङा या मृदु जैसा भी व्यवहार करे, उसे राजा को अनुमोदित करना चाहिये।
मनु ने कहा है, कि राजा को जाति, धर्म, कुल धर्म, जनपद धर्म, श्रेणी धर्म की भली-भाँति छान-बीन करने के बाद ही उनके अनुकूल अपने राजकीय नियमों की स्थापना करनी चाहिये। अर्थशास्त्र में पता चलता है, कि राजा को श्रेणी धर्म का आदर करना चाहिये।नारद, विष्णु, याज्ञवल्क्य आदि स्मृतिकारों ने राजा को उपदेश दिया है, कि वह संघों में प्रचलित रीति-रिवाजों का पालन करवाये।
बृहस्पति ने चेतावनी दी है, कि यदि देशाचार, जात्याचार और कुलाचार का पालन नहीं होता तो प्रजा में असंतोष फैलेगा और उससे संपत्ति कम होगी।
इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है, कि श्रेणियाँ अपनी इच्छानुसार कार्य करने के लिये स्वतंत्र थी और राजा को उनका निर्णय स्वीकार करना पङता था। केवल कुछ विशेष पारस्परिक विवाद होने अथवा किसी सदस्य द्वारा संघ को हानि पहुँचाने का प्रयास करने पर उत्पन्न होती थी। ऐसा लगता है, कि श्रेणी के प्रधान द्वारा दंडित कोई भी राजा के पास अपील कर सकता था तथा यह प्रमाणित हो जाने पर कि अध्यक्ष का व्यवहार नियम विरुद्ध है, राजा उसे रोकता अथवा आवश्यकता पङने पर दंड तक दे सकता था। किन्तु इस प्रकार की परिस्थिति बहुत कम उत्पन्न होती थी। सामान्य परिस्थिति में श्रेणियाँ पर्याप्त स्वायत्तता का उपभोग करती थी। श्रेणियों के पास अपने न्यायालय तथा अपनी सेना होती थी। वे बैंकों का भी कार्य करती थी।
दक्षिण भारत के व्यापारी अपने सामूहिक संगठनों के लिये भी विख्यात थे। विक्रमादित्य षष्ठ तथा तैल द्वितीय कालीन निदुगण्डि लेख में 505 व्यापारियों के एक संघठन द्वारा धार्मिक उद्देश्य से विभिन्न वस्तुयें दान में दिये जाने का उल्लेख मिलता है।
जटावर्मन् वीर पाण्ड्य के एक लेख से पता चलता है, कि 79 मंडलों के उपविभागों के व्यापारियों ने एक सभा में एकत्र होकर पण्य से होने वाली आय का एक भाग मंदिर जीर्णोद्धार के लिये अलग लखने का फैसला किया था।
येवुर लेख (1077ई.) से पता चलता है, कि शिवपुर के व्यापारियों के संगठन में पचीस प्रतिशत ब्याज पर धन जमा किया गया था। विक्रमचोल कालीन तिरुमुरुगनपुण्डि के एक मंदिर में खुदे हुये लेख में एक व्यापारी संघ का स्पष्ट उल्लेख मिलता है, जो समस्त दक्षिण भारत में फैला हुआ था और उसमें पाँच सौ सदस्य थे। पश्चिमी चालुक्य नरेश जगदेकमल्ल द्वितीय कालीन एक लेख (1178 ई.) से पता चलता है, कि दक्षिणी अय्यवोले अथवा वर्तमान ऐहोल में पांच सौ वणिज् निवास करते थे। बहुत से व्यापारिक केन्द्र दक्षिम के अय्यवोले कहे जाते थे। इनसे मुख्य श्रेणी की शाखाओं का बोध होता था। दक्षिण भारत के विभिन्न लेखों में व्यापारियों के इस सामूहिक संगठन का उल्लेख मिलता है। इसके अलावा हम बणञ्ज समाज का उल्लेख पाते हैं, जो व्यापारियों के एक व्यापक संगठन का सूचक है। इस संगठन को वलञ्जियम्, वलञ्जियर, बणञ्जि आदि नाम से जाना जाता था। राजेन्द्र चोल कालीन एक लेख में इस संगठन की प्रशंसा की गयी है।
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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