इतिहासकल्याणी का चालुक्य वंशदक्षिण भारतप्राचीन भारत

कल्याणी के चालुक्य वंश का शासक विक्रमादित्य षष्ठ (1076-1126 ई.)

कल्याणी के चालुक्य शासक विक्रमादित्य सोमेश्वर प्रथम का कनिष्ठ पुत्र तथा सोमेश्वर द्वितीय का छोटा भाई था। बिल्हण के विवरण से पता चलता है, कि वह सोमेश्वर के पुत्रों में सबसे योग्य था, जिसके कारण सोमेश्वर इसे ही युवराज बनाना चाहता था। किन्तु सोमेश्वर द्वितीय के रहते हुये यह संभव नहीं हो पाया।

विक्रमादित्य प्रारंभ में गंगवाडी तथा बनवासी पर सामंत की हैसियत से शासन करता था। वह प्रारंभ से ही महत्वाकांक्षी था। अनुकूल अवसर पाकर अन्ततः उसने कल्याणी के राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया। हैदराबाद संग्रहालय में सुरक्षित दो दानपत्रों से भी इसका समर्थन होता है। जिनके विवरण के अनुसार विक्रमादित्य ने अपने बाहुबल से सोमेश्वर से राजलक्ष्मी को ग्रहण कर लिया था।1076 ई. में अपने राज्यारोहण के समय उसने एक सम्वत् का प्रवर्तन किया, जिसे चालुक्य-विक्रम संवत् कहा जाता है। इतिहास में वह विक्रमादित्य षष्ठ के नाम से प्रसिद्ध है। विक्रमादित्य के 51 वर्षों के शासनकाल में सर्वत्र इसी संवत् का प्रयोग मिलता है। इसके बाद भी करीब पचास वर्षों तक यदा-कदा इस संवत् का प्रयोग होता रहा। शास्त्री के अनुसार इस संवत् की निश्चित तिथि 11 फरवरी 1076 ई. को पङती है।

जयसिंह का विद्रोह तथा उसकी पराजय

विक्रमादित्य षष्ठ के राज्यारोहण के बाद चोल-चालुक्य संघर्ष कुछ समय तक टला रहा।उसका शासन काल सामान्यतः शांतिपूर्ण रहा। 1083ई. में उसके छोटे भाई जयसिंह तृतीय ने विद्रोह किया। प्रारंभ में दोनों के संबंध अच्छे थे तथा सोमेश्वर द्वितीय के साथ युद्धों में जयसिंह ने विक्रमादित्य का ही साथ दिया था। सिंहासन प्राप्त करने के बाद विक्रमादित्य ने जयसिंह को बनवासी का उपराजा बना दिया था। उसके अधिकार में बेल्वोन, पुलगिरे तथा कंदूर के भी प्रांत थे। ऐसा लगता है, कि जयसिंह इतने से ही संतुष्ट नहीं हुआ तथा उसने सम्राट बनने की योजना बनानी प्रारंभ कर दी। बिल्हण ने घटनाक्रम का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है। विक्रमादित्य के एक विश्वासपात्र सलाहकार ने उससे मिलकर जयसिंह की गतिविधियों के विषय में बताते हुये कहा है कि वह धर्म का मार्ग त्याग कर प्रजा के ऊपर अत्याचार कर रहा है, अपनी सैनिक शक्ति बढा रहा है, अटवी (जंगली) जातियों के साथ मैत्री संबंध स्थापित कर रहा है, उसने द्रविङ राजा के पास उपहारों सहित अपना दूत भेजकर उसे अपनी ओर मिलाने का प्रयास किया है, तथा वह शीघ्र ही विक्रमादित्य के ऊपर आक्रमण करना चाहता है। विक्रमादित्य ने अपने गुप्तचरों को भेज कर भी जयसिंह की विद्रोही कार्यवाहियों की पुष्टि की। ज्ञात होता है, कि जयसिंह के विद्रोह का समाचार सुनकर विक्रमादित्य को हार्दिक क्लेश पहुँचा तथा उसने अंत तक अपने भाई को मनाने का प्रयत्न किया। किन्तु जयसिंह ने इसे उसकी कमजोरी समझा। वह एक सेना लेकर युद्ध के उद्देश्य से कृष्णा नदी के तट तक आ पहुँचा। वहाँ अनेक मांडलिक (सामंत) भी उसके साथ मिल गये। उसकी सेना ने जनता को आतंकित करना, लूटना तथा बंदी बनाना प्रारंभ कर दिया। विक्रमादित्य के पास प्रतिरक्षा में हथियार उठाने के अलावा अन्य कोई चारा नहीं था। अतः वह भी सेना के साथ युद्ध के लिये प्रस्तुत हुआ। दोनों की सेनाओं में युद्ध छिङ गया। प्रारंभ में जयसिंह की गजसेना को कुछ सफलता मिली, किन्तु अंत में विक्रमादित्य ने स्थिति संभाल ली। युद्ध में जयसिंह पराजित हुआ तथा भाग गया। बाद में वह बंदी बनाकर विक्रमादित्य के समक्ष लाया गया। बिल्हण के विवरण से पता चलता है, कि विक्रमादित्य ने उसके प्रति उदारता का व्यवहार किया तथा स्वतंत्र कर दिया।

होयसलों के साथ युद्ध

जयसिंह से निपटने के बाद विक्रमादितय् को होयसलों के संकट का सामना करना पङा। होयसल पहले चालुक्यों के अधीन थे, तथा उनका राज्य चालुक्यों तथा चोलों के राज्यों के बाच एक अन्तस्थ राज्य के रूप में स्थित था। उनकी राजधानी सोसेबूर (द्वारसमुद्र) थी। विक्रमादित्य के समकालीन होयसल वंश के शासक – विनयादित्य, उसका पुत्र एरेयंग तथा एरियंग के पुत्र बल्लाल प्रथम और विष्णुवर्धन थे। विनयादित्य तथा उसके पुत्र एरेयंग ने चोलों के विरुद्ध युद्ध में विक्रमादित्य की सहयता की थी। किन्तु शांतिपूर्वक तथा धीरे-धीरे वे अपनी शक्ति का विस्तार भी करते रहे। बल्लाल प्रथम के समय तक उनका राज्य काफी बढ गया था, किन्तु अब भी होयसल चालुक्यों की अधीनता स्वीकार करते रहे। बल्लाल की उपाधि त्रिभुवनमल्ल की मिलती है। इससे पता चलता है, कि वह विक्रमादित्य का सामंत था। किन्तु उसके छोटे भाई बिट्टिग, जो बाद में विष्णुवर्धन के नाम से प्रसिद्ध हुआ, के समय में स्थिति बदल गयी तथा होयसलों ने चालुक्यों की दासता का जुआ उतार फेंका तथा विष्णुवर्धन ने इस वंश को स्वतंत्र कर लिया। वह महत्वाकांक्षी व्यक्ति था, जिसने अपने राज्य का विस्तार करना प्रारंभ किया। 1116 ई. में उसने गंगवाडि के चोल प्रांत पर अपना अधिकार कर लिया। उसने पांड्यों तथा कदंबों का सहयोग प्राप्त किया और उत्तर में कृष्णा नदी तक के चालुक्य प्रांत पर अपना अधिकार कर लिया। विक्रमादित्य ने जब विष्णुवर्धन की धृष्टता के विषय में सुना तो वह अत्यंत क्रुद्ध हुआ तथा उसने अपने सेनापति जगद्देव (जो मालव नरेश उदयादित्य का पुत्र था) के नेतृत्व में एक सेना उसका सामना करने के लिये भेजी। होयसल लेखों से पता चलता है, कि विष्णुवर्धन तथा जगद्देव की सेनाओं के बीच एख भयंकर युद्ध हुआ। यह दावा किया गया है, कि विष्णुवर्धन ने जगद्देव की सेना में ऐसा कुहराम मचाया कि संपूर्ण संसार अचंभित रह गया तथा वह अपने सप्तांग (राज्य) को खो बैठा। किन्तु यह विवरण काफी अतिरंजित है। वास्तविकता यह लगती है, कि पहले युद्ध में विष्णुवर्धन को सफलता मिली, जिससे उसका उत्साह और बढ गया। अब विक्रमादित्य स्वयं उससे युद्ध के लिये प्रस्तुत हुआ। सर्वप्रथम उसने पाण्ड्यों तथा कदंबों को अपनी ओर मिलाया। उसके बाद उसे विष्णुवर्धन के सेनापति के साथ कई युद्ध करने पङे। श्रवणबेलगोला के लेख (1118ई.) से पता चलता है, कि विष्णुवर्धन के सेनापति ने विक्रमादित्य की सेनाओं पर, जिसका नेतृत्व बारह सामंत कर रहे थे, कण्णेगल में रात्रि के समय जोरदार आक्रमण कर उसकी सेना तथा सामग्रियों को भारी हानि पहुँचायी। किन्तु बाद में चालुक्यों को सफलता मिली। विक्रमादित्य ने विष्णुवर्धन को परास्त कर अपने राज्य से बाहर निकाल दिया। इसके बाद उसने विष्णुवर्धन के सहायकों को भी दंडित किया। गोवा पर आक्रमण कर उसे लूटा गया। और वहाँ आग लगा दी गयी। होयसलों के विरुद्ध युद्ध में उसे अपने सामंत शासकों- जगद्देव तथा अचुगि द्वितीय से बहुत अधिक सहायता मिली। सिन्द लेखों में विक्रमादित्य की इस सफलता का विवरण मिलता है, जिसके अनुसार सार्वभौम सम्राट विक्रम के आदेश से रणसिंह, प्रखर किरणों वाले तप्त सूर्य के समान अचुगि ने होयसलों को बाहर निकाल दिया, गोवा पर अधिकार कर लिया, लक्ष्मण की युद्ध में हत्या कर दी, पाण्ड्यों का वीरता के साथ पीछा किया, मेलपों को तितर-बितर कर दिया तथा कोंकण को घेर लिया। आचुगि के पुत्र पेर्मादिदेव के विषय में वर्णित है, कि उसने पृथ्वी के सबसे भयंकर होयसल राजा को शक्तिविहीन कर दिया और सदा अपराजेय रहने का यश प्राप्त किया। वह उपद्रवी बिट्टिग (विष्णुवर्धन) के पहाङी दर्रों तक जा पहुँचा तथा उसे लूटा, दोरसमुद्र को घेर लिया तथा बेलुपुर तक लगातार उसका पीछा किया। बेलुपुर पर उसने अधिकार कर लिया। पेर्मराजा अपनी तलवार से उसे खदेङते हुये बाहडि के दर्रे तक पहुँच गया तथा सभी शत्रुओं को पार कर संसार में यश अर्जित किया। 1122 ई. में हसलूर नामक स्थान पर भी चालुक्य-होयसल सेनाओं में युद्ध हुआ, जिसमें गंगनरेश चालुक्यों की ओर से लङता हुआ मारा गया। इसी प्रकार होसवीडु नामक स्थान पर हुए एक अन्य युद्ध में विजयश्री चालुक्यों को मिली। होयसलों की पराजय हुई। इस प्रकार विष्णुवर्धन की साम्राज्यवादी आकांक्षाओं पर पानी फिर गया तथा विक्रमादित्य के जीवन काल तक वह उसकी अधीनता में रहने को विवश हुआ। होयसलों के ऊपर अपनी विजय के उपलक्ष्य में विक्रमादित्य ने विष्णुवर्धन की उपाधि धारण की।

मालवा के विरुद्ध अभियान

विक्रमादित्य ने मालवा के परमारों के विरुद्ध भी अभियान किया। उसके राज्यारोहण के पहले ही मालवा में उत्तराधिकार के युद्ध तथा गुजरात के चालुक्यों और मध्य भारत के चेदियों के आक्रमण के कारण मालवा में अराजकता फैली हुई थी। भोज की मृत्यु के बाद विक्रमादित्य ने अपने पिता के कहने पर मालवा की राजनीति में हस्तक्षेप किया तथा वहाँ उसके पुत्र जयसिंह को राजा बनाया। जयसिंह का पुत्र और उत्तराधिकारी उदयादित्य हुआ, जो विक्रमादित्य का समकालीन शासक ता। पहले विक्रमादित्य से उसके संबंध अच्छे थे, जो बाद में बिगङ गये। जिसके परिणामस्वरूप विक्रमादित्य ने उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया। विक्रमादित्य ने उदयादित्य की शक्ति का विनाश कर डाला तथा धारा नगरी को भस्म कर दिया। उदयादित्य युद्ध में ही मारा गया। उसके तीन पुत्र थे- लक्ष्मणसेन, नरवर्मा तथा जगद्देव। उदयादित्य के बाद उसके पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध छिङा। इसमें विक्रमादित्य ने जगद्देव का समर्थन किया। उसने एख सेना मालवा में पुनः भेजकर उसे राजा बनवा दिया। बाद में दोनों के संबंध अत्यंत सौहार्दपूर्ण हो गये, जसके फलस्वरूप विक्रमादित्य ने जगद्देव को अपने पास बुलवा लिया।

वेंगी का अधिग्रहण-

होयसलों के विरुद्ध अपने संघर्ष के साथ ही साथ विक्रमादित्य वेंगी के प्रश्न पर चोल नरेश कुलोत्तुंगके विरुद्ध करने की बात सोचता रहा। विजयादित्य की मृत्यु के कई वर्षों बाद तक कुलोत्तुंग के पुत्रों ने वेंगी पर उपराजाओं के रूप में शासन किया। 1092-93 ई. में विक्रमचोल ने वेंगी की गद्दी सँभाली। इसके बाद दक्षिण कलिंग का शासक, जो वेंगी के अधीन था, ने विद्रोह कर दिया तथा उसकी सहायता कोलनु (कोलोर झील) के सामंत ने की। यद्यपि विक्रमचोल ने इस विद्रोह को कुचल दिया तथापि उसके राज्य में अशांति फैल गयी। संभव है, इसे भङकाने में विक्रमादित्य का ही हाथ रहा हो। इन दोनों के बीच युद्ध की जानकारी प्राप्त नहीं होती। परंतु 1118 ई. में कुलोत्तुंग ने वेंगी से अपने शासक विक्रम चोल को वापस बुला लिया। इसके साथ ही वेंगी में अराजकता फैल गयी। विक्रमादित्य ने इस स्थिति का लाभ उठाया। उसके सेनापति अनन्तपाल ने वहाँ का शासन संभाल लिया। ऐसा लगता है, कि वेंगी पर अधिकार करने के पूर्व अनन्तपाल को वहाँ के चोल उपराजा तथा उसके सामंतों के साथ कङा संघर्ष करना पङा था। 1115 ई. से द्राक्षाराम तथा अन्य तेलुगु प्रदेशों में चालुक्य संवत् की तिथि वाले लेख मिलने लगते हैं। इसी समय हम वेंगी के चालुक्य राज्य के कुछ अन्य भागों में भी विक्रमादित्य के सेनापतियों को शासन करते हुये पाते हैं। 1127 ई. में कोंडपल्लि में अनन्तपाल का भतीजा गोविन्ददंडनायक शासन कर रहा था। पता चलता है, कि वहाँ अधिकार करे के पूर्व उसे चोलराज तथा उसके सहायकों के साथ घोर युद्ध करना पङा था। द्राक्षाराम के लेखों में चालुक्य -विक्रम संवत् 57 अर्थात् 1132 ई. तक की तिथियाँ अंकित हैं। एख लेख में कोल्लिपाके के शासक मल्ल का पुत्र नम्बिराज अपने को षडसहस्त्रदेव का सामंत कहता है। स्पष्टतः यहाँ चालुक्यों से ही तात्पर्य है। पीठारपुरम् से प्राप्त 1202 ई. के लेखों में बताया गया है, कि कुलोत्तुंग ने पचास वर्षों तक पंचद्रविङों तथा आंध्र पर शासन किया। उसके बाद विक्रमचोल दक्षिण में चोल राज्य में शासन करने के निमित्त चला गया और वेंगी में अराजकता फैल गयी। अतः यह स्पष्ट है, कि विक्रमादित्य के काल में वेंगी सेचोल-शक्ति का अंत हो गया और उसका वहाँ अधिकार स्थापित हो गया।

विक्रमादित्य षष्ठ के दरबार में विक्रमांकदेवचरित के रचयिता बिल्हण तथा मिताक्षरा के लेखक विज्ञानेश्वर निवास करते थे। बिल्हण उसके राजकवि थे। बिल्हण कश्मीर का निवासी था। विक्रमादित्य ने बिल्हण को सभापंडित बनाया और विद्यापति की उपाधि से अलंकृत किया।

विज्ञानेश्वर विक्रमादित्य के मंत्री थे।

विक्रमादित्य षष्ठ ने लंका के शासक विजयबाहु के दरबार में उपहारों के साथ 1076-77 ई. में अपना एक दूत भेजकर उससे मैत्री-संबंध स्थापित किया था। उसकी मृत्यु 1126 ई. में हुई।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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