चालुक्य वंश का शासक सोमेश्वर प्रथम
कल्याणी के चालुक्य शासक जयसिंह द्वितीय के बाद उसका पुत्र सोमेश्वर प्रथम 1043 ई. में राजा हुआ। उसने अपनी राजधानी मान्यखेत से कल्याणी में स्थानांतरित की तथा वहाँ अनेक सुन्दर भवन बनवाये। विल्हण के अनुसार उसने कल्याण नगर को इतना सजाया कि, वह संसार के सभी नगरों में श्रेष्ठ बन गया। वह एक विजेता था। उसकी विजयों का एक विवरण नान्देर (हैदराबाद) के लेख में मिलता है, जिसके अनुसार सोमेश्वर ने मगध, कलिंग और अंग के शत्रु राजाओं की हत्या कर दी, कोंकण पर आक्रमण कर वहाँ के राजाओं को अपने पैरों पर गिरने के लिये विवश किया, मालवा के राजा ने अपनी राजधानी धारा में हाथ जोङकर उससे याचना की, उसने चोल शासक को युद्ध में पराजित किया तथा वेंगी और कलिंग के राजाओं को अपनी ओर मिला लिया।इसी लेख में उसके सेनापति नागवर्मा का उल्लेख है। बताया गया है, कि वह राजा का दाहिना हाथ था। इसे विन्ध्याधिपतिमल्ल, धारावर्षादर्पोत्पाटन, मारसिंहमर्दन, शिरच्छेदन, चक्रकूट-कालकूट जैसी उपाधियाँ प्रदान की गयी हैं। यद्यपि यह विवरण अतिरंजित है, तथापि इसके कुछ अंशों को प्रमाणिक माना जा सकता है। सोमेश्वर की विजयों का कालक्रम निर्धारित करना कठिन है।
चोलों से युद्ध
नान्देर लेख के आधार पर यह कहा जा सकता है, कि सुदूर दक्षिण के चोलों के साथ सोमेश्वर का दीर्घकालीन संघर्ष हुआ। वेंगी में उत्तराधिकार को लेकर चालुक्यों तथा चोलों में शत्रुता बनी हुयी थी।राजराज नरेन्द्र के राज्यारोहण (1022ई.)के बाद से ही वेंगी की स्थिति ठीक नहीं थी।उसका सौतेला भाई विजयादित्य उसका प्रबल प्रतिद्वन्द्वी था।चालुक्य विजयादित्य तथा चोल राजराज का समर्थन कर रहे थे। सोमेश्वर ने भी विजयादित्य का साथ दिया। उसने एक सेना उसकी सहायता के लिये वेंगी भेजी। इसकी सहायता से विजयादित्य ने चोल समर्थित राजराज को गद्दी से हटाकर वेंगी के सिंहासन पर अपना अधिकार कर लिया।राजराज ने चोलों के राज्य में शरण ली। राजेन्द्र चोल ने तीन सेनानायकों के नेतृत्व में अपनी तीन सेनाओं को चालुक्यों के विरुद्ध भेजा। चोल तथा चालुक्य सेनाओं में पहला संघर्ष कालिदिन्डि (कृष्णा जिले में स्थित)में हुआ। यह युद्ध अनिर्णीत रहा तथा किसी पक्ष को सफलता नहीं मिली। इसी समय राजेन्द्र की मृत्यु हो गयी तथा उसका पुत्र राजाधिराज चोलवंश की गद्दी पर बैठा।
वेंगी में चोल सत्ता पुनः कायम करने के उद्देश्य से उसने स्वयं सेना का नेतृत्व करते हुये चालुक्यों के विरुद्ध अभियान किया। कृष्णा नदी के तट पर धान्यकटक में उसका पश्चिमी चालुक्य सेनाओं से युद्ध हुआ। इस बार चोल विजयी रहे। विजयादित्य तथा सोमेश्वर का पुत्र विक्रमादित्य द्वितीय युद्धक्षेत्र से भाग गये और वेंगी पर चोलों ने अधिकार कर लिया। ऐसा लगता है, कि चोल बहुत समय तक वेंगी में नहीं रुक सके तथा बाद में उनके समर्थित राजा राजराज ने सोमेश्वर की अधीनता स्वीकार कर ली। धान्यकटक के युद्ध में विजयी होने के बाद राजाधिराज चालुक्य राज्य में कोल्लिपाकै तक जा पहुँचा। किन्तु यहाँ चालुक्यों ने उसका कङा प्रतिरोध किया, जिससे वह और आगे नहीं बढ पाया। चोल-चालुक्यों के बीच अगला युद्ध पुण्डर (कृष्णा नदी के बायें तट पर स्थित) में हुआ। इस युद्ध में चालुक्यों की ओर से तेलगू राजा विच्चय ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। किन्तु उसके माता-पिता तथा अन्य संबंधियों को चोल सैनिकों ने पकङ लिया। जब आहवमल्ल ने दया की भीख मांगने के लिये अपने दूत चोल नरेश के स्कंधावार में भेजा तो उन्हें अपमानित किया गया तथा उनके शरीर पर आहवमल्ल घृणित कायर है अंकित कर वापस भेज दिया गया।युद्ध में चोलों की विजय हुई तथा पुण्डर नगर को लूट-पाट करने के बाद ध्वस्त कर दिया गया। उसके खंडहरों पर गधों का हल चलवाया गया। चोल सैनिकों ने मणन्दिपै नगर को जला दिया। बताया गया है, कि चोलों ने चालुक्यों के अनेक सेनापतियों के सिर काट लिये तथा येत्तगिरि में अपना विजयस्तंभ स्थापित किया। सोमेश्वर ने संधि का प्रस्ताव भेजा, किन्तु चोल नरेश ने अत्यन्त अपमानजनक ढंग से उसे अस्वीकार कर दिया। चोल सेना ने आगे बढते हुए राजधानी कल्याणी को जीत लिया तथा उसे जला दिया।इस विजय के उपलक्ष्य में राजाधिराज ने विजयेन्द्र की उपाधि ग्रहण की। कल्याणी को जलाने के बाद चोल नरेश अपने साथ द्वारापालक की एक सुन्दर मूर्ति उठाले गया तथा उसे दारासुरम् मंदिर (तंजोर जिला) के प्रवेश द्वार पर स्थापित किया गया। इसके ऊपर तमिल भाषा में यह लेख खुदा हुआ है- उदैयार श्रीविजयराजेन्द्रदेव द्वारा कल्याणपुरम् को जला देने के बाद लाया गया द्वारपालक।
चोल नरेश राजाधिराज ने अपने छोटे भाई राजेन्द्र द्वितीय, जो अभी युवराज था, की सहायता से पुनः सोमेश्वर के ऊपर आक्रमण किया। दोनों सेनाओं में कोप्पम नामक स्थान पर पुनः संघर्ष हुआ। परवर्ती चोल लेखों से पता चलता है, कि इसमें भी चोल सैनिकों ने कई चालुक्य सेनापतियों को धराशायी कर दिया। सोमेश्वर पराजित होकर भाग गया। चालुक्यों की बहुत सारी संपत्ति, वाहनों तथा स्त्रियों पर चोलों ने अधिकार कर दिया। सोमेश्वर पराजित होकर भाग गया। चालुक्यों की बहुत सारी संपत्ति, वाहनों तथा स्त्रियों पर चोलों का अधिकार हो गया । विजयी राजेन्द्र ने युद्ध क्षेत्र में भी अपने को सम्राट घोषित किया तथा कोल्लापुर तक बढते हुये वहाँ अपना विजय स्तंभ स्थापित कर दिया। इसके बाद वह अपनी राजधानी गंगैकोंडचोलपुरम् वापस लौट आया।
सोमेश्वर अधिक समय तक इस पराभव को सहन नहीं कर सका तथा अपने अपमान का बदला लेने के लिये उसने चोलों के विरुद्ध पुनः कमर कसी। वेंगी में राजराज की मृत्यु के बाद उसने विजयादित्य सप्तम् के पुत्र शक्तिवर्मा द्वितीय को राजा बनाया तथा उसकी रक्षा के लिये अपने सेनापति चामुण्डराज के नेतृत्व में एक बङी सेना रखी। उसके बाद सोमेश्वर ने अपने पुत्र विक्रमादित्य तथा मालवा के राज्य जयसिंह के नेतृत्व में एक सेना गंगवाङी पर आक्रमण करने को भेजी। राजेन्द्र द्वितीय ने अपने पुत्रों राजमहेन्द्र तथा वीर राजेन्द्र को दोनों ही मोर्चों पर चालुक्यों का मुकाबला करने के लिये भेजा। वेंगी के युद्ध में चामुण्डराज तथा शक्तिवर्मा मारे गये। गंगवाडि में भी वीर राजेन्द्र ने चालुक्य आक्रमणकारियों को खदेङ दिया तथा तुंग और भद्रा नदियों के संगम पर स्थित कुङेलसंगमम् के युद्ध में उन्हें बुरी तरह पराजित किया गया। इस प्रकार सोमेश्वर ने कोप्पम युद्ध में हुए अपने अपमान का बदला लेने के लिये जो अभियान प्रारंभ किया, उसमें उसे सफलता नहीं मिली।
राजेन्द्र द्वितीय का उत्तराधिकारी वीर राजेन्द्र हुआ। उसके समय में भी चालुक्यों से संघर्ष चलता रहा। पता चलता है, कि सोमेश्वर ने चोलों के विरुद्ध पूर्व तथा पश्चिम दोनों ही दिशाओं में मोर्चाबंदी की। पूर्व में उसने अपने सामंत धारा के परमारवंशी जननाथ के नेतृत्व में एक सेना तैनात की तथा पश्चिम की ओर युद्ध करने के लिये विजयादित्य को भेजा। किन्तु वीर राजेन्द्र ने दोनों ही मोर्चो पर सफलता पाई। वेंगी में चालुक्य सेनायें पराजित हुई तथा पश्चिम में तुंगभद्रा नदी के तट पर हुए युद्ध में भी चोलों ने सोमेश्वर की सेना को पराजित कर उसे भारी हानी पहुंचाई। किन्तु सोमेश्वर निराश नहीं हुआ तथा पुनः शक्ति जुटाकर वीर राजेन्द्र के पास अपना संदशवाहक भिजवाकर कुङलसंगमम् में ही पुनः युद्ध करने की चुनौती दी। चोल सम्राट अत्यन्त प्रसन्न हुआ तथा वह निश्चित स्थान एवं समय पर चालुक्यों से मुठभेङ के लिये उपस्थित हुआ। किन्तु सोमेश्वर इस युद्ध में नहीं आया यद्यपि उसकी सेनायें पहुँच गयी थी। वीर राजेन्द्र ने एक माह तक उसकी प्रतीक्षा करने के बाद चालुक्य सेनाओं पर धावा बोल दिया। विजयश्री उसे ही मिली तथा चालुक्य सेनाओं को पराजय का मुख देखना पङा।
इस विजय के उपलक्ष्य में वीर राजेन्द्र ने तुंगभद्रा के तट पर अपना विजय स्तंभ स्थापित किया। इसके बाद उसने अपनी सेना को लेकर वेंगी की ओर प्रस्थान किया। यहाँ चालुक्यों की ओर से युद्ध करने के लिये विजयादित्य तथा राजराज उपस्थित थे तथा चोलों की ओर से युवराज राजेन्द्र (जो बाद में कुलात्तुंग प्रथम के नाम से राजा बना) ने युद्ध किया। कृष्णा नदी के किनारे बैजवाङा में (1067-68ई.) चोलों तथा चालुक्यों के बीच अंतिम संघर्ष हुआ। इसमें भी चालुक्यों की पराजय हुई तथा उनके कई सेनापति मारे गये। बताया गया है, कि चालुक्य सेनापतियों के सिर काटकर गंगैकोंडचोलपुरम् की दीवारों पर टांग दिया गया। इस विजय के बाद वीर राजेन्द्र ने अपने हाथियों को गोदावरी नदी का जल पिलाया तथा उसके बाद कलिंगम् को पार करते हुये अपनी सेना को चक्रकूट तक भेजा। वेंगी पर उसका पूर्ण अधिकार हो गया, जिसे विजयादित्य को सौंपने के बाद वह अपनी राजधानी वापस लौट आया। इस प्रकार प्रत्येक बार सोमेश्वर को चोलों से पराजित होना पङा। किन्तु चालुक्य राज्य पर अधिकार करने का स्वप्न चोल पूरा नहीं कर पाये। इसके विपरीत सोमेश्वर कम से कम कुछ समय के लिये वेंगी के ऊपर अपना अधिकार रख सकने में सफल हो पाया।
सोमेश्वर ने अपने उत्तरी अभियान में गुजरात के चालुक्य शासक भीम तथा त्रिपुरी के कलचुरि शासक कर्ण को पराजित किया था। सोमेश्वर ने अपनी शक्ति का विस्तार विदर्भ, कोशल तथा कलिंग तक किया था। कलिंग का इस समय गंगवंशी वज्रहस्त पंचम का शासन था, जो सोमेश्वर द्वारा पराजित किया गया था।
इस प्रकार हम कह सकते हैं, कि सोमेश्वर प्रथम कल्याणी के चालुक्य वंश के महान शासकों में से एक महान शासक था। विजेता होने के साथ-साथ वह उच्चकोटि का निर्माता भी था। कल्याणी में अपनी राजधानी स्थापित करने के बाद उसने उसे भव्य भवनों से अलंकृत कर संसार का सुरम्य नगर बना दिया था।
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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