इतिहासराजस्थान का इतिहास

कुम्भा और मालवा का इतिहास

कुम्भा और मालवा – तुगलक वंश के साथ ही दिल्ली सल्तनत की केन्द्रीय सत्ता काफी कमजोर पङ गयी जिसके फलस्वरूप सल्तनत के कई प्रांतीय अधिकारियों को दिल्ली के प्रभुत्व से मुक्त होकर अपने स्वतंत्र राज्यों की स्थापना का सुअवसर मिल गया। ऐसे राज्यों में मेवाङ के पङौसी राज्य – मालवा, गुजरात और नागौर मुख्य थे। इन तीनों मुस्लिम राज्यों के शासकों की मुख्य आकांक्षा थी – मेवाङ की विजय, क्योंकि मेवाङ की बढती हुई शक्ति से उन्हें अपनी स्वतंत्रता को हर समय खतरा प्रतीत होता था।

संघर्ष के कारण

मेवाङ के महाराणा कुम्भा और मालवा के सुल्तान महमूद खलजी के मध्य संघर्ष के आधारभूत कारण निम्नलिखित थे-

पहला कारण दोनों शासकों की राज्य विस्तारवादी नीति थी। दिल्ली सल्तनत की केन्द्रीय सत्ता के निर्बल हो जाने से सभी क्षेत्रीय शासक केन्द्रीय शक्ति के भय से मुक्त हो चुके थे। अब सभी महत्त्वाकांक्षी शासक अपने-अपने राज्य की सीमा का विस्तार करने को लालायित थे। इसके लिये उपयुक्त क्षेत्र पङौसी राज्य ही हो सकते थे। कुम्भा और महमूद खिलजी दोनों एक दूसरे के पङौसी थे। दोनों महत्वाकांक्षी थे और दोनों का ध्येय अपने राज्य को सुविस्तृत एवं सुदृढ राज्य में परिवर्तित करना था। अपने ध्येय की प्राप्ति के लिये दोनों शासक हरसंभव उपाय का उपयोग करने में पारंगत थे। माण्डलगढ, जहाजपुर, बिजोलिया, डूँगरपुर, बदनौर औदि कुछ ऐसे क्षेत्र थे जिन्हें दोनों ही अपने अधिकार में रखना चाहते थे। ऐसी स्थिति में दोनों में निरंतर संघर्ष चलता ही रहा। कभी कोई क्षेत्र किसी के अधिकार में चला जाता था तो कुछ दिनों बाद दूसरा उस क्षेत्र को पुनः अधिकृत कर लेता था। महमूद खिलजी तो सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण चित्तौङ दुर्ग को भी जीतने की अभिलाषा संजोये था।

कुम्भा और मालवा

संघर्ष का दूसरा मुख्य कारण कुम्भा द्वारा मालवा की आंतरिक राजनीति में हस्तक्षेप करना था। 1435 ई. में मालवा के सुल्तान होशंगशाह की मृत्यु हो गयी उसकी मृत्यु के साथ ही मालवा राज्य में अव्यवस्था फैल गयी। इस स्थिति का लाभ उठाते हुए होशंगशाह के एक मंत्री महमूद खलजी ने मालवा का सिंहासन हथिया लिया।

परंतु उसे अपनी स्थिति को मजबूत बनाने तथा गुजरात के सुल्तान के आक्रमण से मालवा को बचाने में कुछ समय लग गया।इस बीच होशंगशाह का एक पुत्र उमर खाँ मालवा से भागकर पहले गुजरात और फिर वहाँ से कुम्भा के दरबार में पहुँच गया। जहाँ न केवल उसका स्वागत ही किया गया अपितु मालवा का सिंहासन प्राप्त सैनिक सहायता के सहारे उमर खाँ सारंगपुर जीतने में सफल रहा।

इस अभियान के बाद मेवाङ की सेना वापिस लौट गई। उसके लौटते ही महमूद खाँ ने सारंगपुर पर आक्रमण करके उसे पुनः जीत लिया। उमर खाँ युद्ध में लङते हुये वीरगति को प्राप्त हुआ। महमूद खाँ महाराणा कुम्भा की इस कार्यवाही को कभी नहीं भुला पाया और वह कुम्भा का शत्रु बन गया।

संघर्ष का तीसरा मुख्य कारण मालवा के सुल्तान द्वारा कुम्भा के विरोधी तथा असंतुष्ट संबंधियों एवं सरदारों को अपने दरबार में आश्रय देना था। राजकुमार चूण्डा और उसके भाइयों ने राणा मोकल का दरबार त्यागकर मालवा में आश्रय लिया था और सुल्तान ने उनके गुजारे के लिये जागीरों की व्यवस्था भी की थी।

बाद में मोकल के हत्यारों – महपा और अक्का ने भी मालवा में शरण ली। कुम्भा ने जब सुल्तान से अपने पिता के हत्यारों को सौंपने की माँग की तो उसकी माँग को ठुकरा दिया गया। इस घटना के कुछ दिनों बाद कुम्भा के छोटे भाई खेमकरण ने विद्रोह कर दिया।

उसने बङी सादङी पर बलपूर्वक अपना अधिकार जमा लिया और जब मेवाङ की सेना ने उसे वहाँ से खदेङ दिया तो वह भी भागकर मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी के दरबार में पहुँच गया। इस प्रकार, मालवा और मेवाङ दोनों ही एक दूसरे के विरोधी सरदारों के आश्रयदाता बने हुये थे, जिससे दोनों राज्यों के शासकों में एक दूसरे के प्रति शत्रुता उत्पन्न होना स्वाभाविक ही था। फिर भी संघर्ष का मूल कारण एक दूसरे के क्षेत्रों को हस्तगत करने की आकांक्षा ही थी।

संघर्ष की शुरूआत

राजस्थानी चारण साहित्य के आधार पर हरविलास शारदा, एर्सकाइन आदि इतिहासकारों का मानना है कि 1440 ई. के पूर्व राणा कुम्भा और महमूद खिलजी के मध्य पाँच बार युद्ध लङे गये और पाँचों बार महमूद खिलजी पराजित हुआ। नैणसी और श्यामलदास का तो मानना है कि सारंगपुर के युद्ध में महमूद खिलजी को बंदी बना लिया गया और उसे 6 महीने तक चित्तौङ में बंदी बनाकर रखा गया और बाद में उसे रिहा कर दिया गया।

कर्नल टॉड, डॉ.ओझा और हरविलास शारदा जैसे विद्वानों ने कुम्भा की इस उदार नीति को एक बहुत बङी भूल बताया है। इसी प्रसंग में डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने भी लिखा है कि जिन विद्वानों ने कुम्भा की इस उदार नीति को भूल माना है, उन्होंने इस समस्या के दूसरे पक्ष को नहीं देखा है। प्रश्न यह उठता है कि क्या राणा में यह क्षमता थी कि वह मालवा जैसे दूरस्थ राज्य को लंबे समय तक अपने अधिकार में रख सके।

क्या ऐसा करने से अन्य समस्याएँ उपस्थित नहीं हो जाती। यदि गुजरात का सुल्तान और मालवा की जनता मेवाङ के विरुद्ध संघर्ष छेङ देते तो क्या महाराणा अपने पैतृक राज्य की सुरक्षा कर पाता। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुये कुम्भा ने महमूद खिलजी को रिहा कर दिया था। ऐसी स्थिति में कुम्भा की यह नीति उसकी उदारता और स्वाभिमान तथा दूरदर्शिता की परिचायिका है।

आधुनिक शोधकार्यों से यह स्पष्ट हो गया कि 1437 ई. में लङे गये सारंगपुर के युद्ध का विवरण सही नहीं है और महमूद खिलजी कभी भी बंदी अवस्था में चित्तौङ में नहीं रहा। डॉ. गोपीनाथ शर्मा का यह तर्क कि यह हमेशा आवश्यक नहीं कि मुस्लिम इतिहासकार जब किसी घटना को दें तभी उसकी मान्यता हो।

अबुल फजल ने इस संपूर्ण घटना का उल्लेख अपनी पुस्तक में किया है जिसकी पुष्टि नैणसी की ख्यात से होती है। नैणसी की ख्यात का वर्णन भी किसी न किसी परंपरागत मान्यता पर आधारित है वास्तव में कोई वजन नहीं रखता क्योंकि स्वयं डॉ.शर्मा नैणसी की अनेक बातों के गलत प्रमाणित कर चुके हैं। प्राप्त ऐतिहासिक साधनों से यह प्रमाणित किया जा चुका है कि 1437 से 1440 के मध्य महमूद खिलजी मालवा में ही रहा।

इसी प्रकार, यह भी सत्य है कि सारंगपुर के युद्ध में महमूद खिलजी पर प्राप्त विजय की स्मृति में कुम्भा ने कीर्ति स्तंभ का निर्माण करवाया था। इस संबंध में डॉ.उपेन्द्रनाथ डे का मानना है कि कीर्ति स्तंभ के निर्माण और सारंगपुर के युद्ध में किसी प्रकार का कोई संबंध नहीं है क्योंकि इस प्रकार का युद्ध लङा ही नहीं गया।

1440 ई. तक न तो राणा कुम्भा ने मालवा के महमूद खलजी पर आक्रमण किया था और न ही महमूद खिलजी द्वितीय को महमूद खिलजी प्रथम समझ लिया गया है और श्यामलदास तथा शारदा ने भी भ्रमवश उनके वृतांत्तों को सही मान लिया। कुम्भा 1433ई. में शासक बने थे और दोनों को प्रारंभ में आंतरिक विद्रोहों एवं समस्याओं का सामना करना पङा था। अतः दोनों के पास एक दूसरे पर आक्रमण करने का समय नहीं था।

एक अन्य बात भी विचारणीय है। इस समय चुण्डा और उसके भाई तथा महपा एवं अक्का मालवा के सुल्तान की सेवा में थे। फिर सारंगपुर के युद्ध में किसी भी ख्यातकार ने उनकी भूमिका का उल्लेख क्यों नहीं किया है।

1442 ई. से मेवाङ को मालवा की सैन्य शक्ति का दबाव सहन करना पङा। इस समय तक कुम्भा का विद्रोही भाई खेमकरण महमूद खिलजी के आश्रय में पहुँच चुका था और उसकी उपस्थिति से मालवा की सेना को काफी सहायता मिलने की आशा थी। इसके अलावा, इस समय तक गुजरात के सुल्तान अहमदशाह की भी मृत्यु हो चुकी थी।

अतः महमूद खिलजी को गुजरात की ओर से मालवा पर आक्रमण का भय नहीं रहा। बाह्य संकट से मुक्ति का आभास मिलते ही महमूद खिलजी ने मेवाङ पर आक्रमण कर दिया। मालवा के वृत्तांतों के अनुसार 30 नवम्बर, 1442 ई. को उसने मालवा से प्रस्थान किया।

उसका मुख्य ध्येय मेवाङ के शक्तिशाली दुर्ग कुम्भलगढ (मधिन्दरपुर)को हस्तगत करना था। राणा कुम्भा ने कुछ समय पूर्व दुर्ग की मरम्मत वगरैह करवाई थी। महमूद खिलजी दुर्ग को हस्तगत करने में असफल रहा। वस्तुतः राजपूतों ने इस स्थान पर अपने प्रथम मोर्चे की व्यवस्था कर रखी थी, जिसका नेतृत्व दीपसिंह नामक सरदार कर रहा था। दीपसिंह ने अपने सैनिकों के साथ सात दिन तक शत्रु पक्ष से बाणमाता मंदिर की रक्षा की और अंत में लङता हुआ मारा गया।

उसकी मृत्यु के बाद ही मुस्लिम सेना मंदिर का अधिकृत कर पाई। क्रोधित सुल्तान ने मंंदिर को नष्ट भ्रष्ट कर दिया और मूर्ति को तोङ दिया। महाराणा कुम्भा दीपसिंह की सहायता के लिये तत्काल सैनिक सहायता नहीं भिजवा पाया क्योंकि इस समय वह स्वयं हाङौती क्षेत्र में उठे उपद्रवों को दबाने के लिये गया हुआ था। परंतु ज्यों ही उसे सुल्तान के आक्रमण की सूचना मिली वह तुरंत चित्तौङ के लिये चल पङा।

कुम्भलगढ को लेने में असफल रहने के बाद सुल्तान ने अपनी सेना को चित्तौङ की तरफ बढने का आदेश दिया। उसने सेना को दो भागों में विभाजित किया। एक भाग को महाराणा कुम्भा का मार्ग रोकने के लिये भेजा गया और दूसरे भाग को चित्तौङ का काम सौंपा गया।

इसी समय महमूद खिलजी को सूचना मिली कि उसका पिता आजम हुमायूँ मंदसौर के निकट मारा गया है। अतः महमूद को जल्दी से मंदसौर जाना पङा। कुछ दिनों मंदसौर रहकर वह वापस चित्तौङ के लिये रवाना हुआ और मार्ग के एक ऊँचे स्थान पर शिविर लगाकर विश्राम करने लगा।

कुछ वृत्तांतों के अनुसार कुम्भा ने रात्रि में सुल्तान के शिविर लगाकर विश्राम करने लगा। कुछ वृत्तांतों के अनुसार कुम्भा ने रात्रि में सुल्तान के शिविर पर अचानक जोरदार आक्रमण किया। परंतु यह हमला अनिर्णायक रहा। संभवतः जैसा कि डॉ.गोपीनाथ शर्मा ने लिखा है कि, वर्षा ऋतु के आ जाने से मेवाङ जैसी पहाङी भाग में आक्रमण करना कठिन समझ महमूद लौट गया, अधिक सही प्रतीत होता है।

लौटती हुई मुस्लिम सेना का कुम्भा ने मेवाङ की सीमा तक पीछा किया जिसमें दोनों ही पक्षों को हानि उठानी पङी। फिर भी, दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी विजयों का उल्लेख किया है, जो सही प्रतीत नहीं होता। हाँ, इसमें कोई संदेह नहीं कि कुम्भा का पलङा अवश्य भारी रहा होगा। अन्यथा सुल्तान महमूद को मेवाङ से वापिस नहीं लौटना पङता। सुल्तान को इस झङप से कुम्भा की शक्ति का आभास हो गया और उसने यह भी सोच लिया कि भविष्य में कुम्भा से लङने के पूर्व खींचीवाङा और हाङौती के छोटे-छोटे राजपूत राज्यों को जीतना अधिक लाभप्रद रहेगा।

कुम्भा को अपनी सीमान्त सुरक्षा व्यवस्था की कमजोरी का ज्ञान हो गया और उसने इस कमी को दूर करने की तरफ ध्यान दिया।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
wikipedia : कुम्भा

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