इतिहासमध्यकालीन भारतसूफीमत

प्राचीनकाल में विज्ञान का विकास

प्राचीन कालीन भारत में विज्ञान का विकास

सभ्यता के आदि काल-पाषाणकाल से ही हमें भारत के निवासियों में वैज्ञानिक बुद्धि होने का स्पष्ट प्रमाण मिलता है। विज्ञान के कुछ क्षेत्रों जैसे गणित, ज्योतिष, धातु विज्ञान आदि के क्षेत्र में भारत के लोगों ने जो आविष्कार किये तथा सफलता प्राप्त की वह संपूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है।

भारतीयों की वैज्ञानिक बुद्धि का परिचय हमें प्रागैतिहासिक काल से ही मिलने लगता है। वस्तुतः पाषाणकालीन मानव ही विज्ञान की कुछ शाखाओं – वनस्पति शास्त्र, प्राणी शास्त्र, ऋतु शास्त्र आदि का जन्मदाता है। पशुओं का चित्र तैयार करने के लिये उसने शरीर संरचना की अच्छी जानकारी प्राप्त की थी।
खाद्य-अखाद्य पदार्थों का भी उसे ज्ञान था।खाद्य पदार्थ कहाँ और किस ऋतु में पाये जाते हैं, कौन पशु कहाँ तथा कब पाया जाता है – ये सब बातें उसे ज्ञात थी।
मनुष्य ने अग्नि पर नियंत्रण स्थापित किया तथा सुन्दर एवं सुडौल औजार-हथियार, उपकरण आदि बनाना प्रारंभ कर दिया। इसी ज्ञान ने कालांतर में भौतिकी तथा रसायन को जन्म दिया। गार्डन चाइल्ड ने उचित ही सुझाया है – वन परंपरा में वनस्पति विज्ञान, ज्योतिर्विज्ञान तथा जलवायु विज्ञान का मूल अन्तर्निहित है। अग्नि पर नियंत्रण तथा उपकरणों का आविष्कार उन परंपराओं का प्रारंभ करते हैं, जिनसे कालांतर में भौतिकी एवं रसायन शास्त्र का उदय हुआ।

वैज्ञानिक प्रगति का स्पष्ट ज्ञान हमें सैन्धव सभ्यता में दिखाई देता है। सैन्धव नगरों का निर्माण एक सुनिश्चित योजना के आधार पर किया गया है। यहां के निवासियों के भार-माप के पैमाने भी सुनिश्चित लगते हैं। इनका मानकीकरण दृष्टव्य है। संभवतः फुट तथा क्यूबिट का ज्ञान उन्हें रहा होगा। वे दशमलव पद्धति से भी परिचित लगते हैं।
मोहनजोदङो की खुदाई में एक स्केल मिली है, जिसमें नौ समानान्तर रेखायें हैं तथा एक रेखा टूटी हुई है। इस आधार पर इसका निर्माण दाशमिक पद्धति पर माना गया है। पात्रों के ऊपर ज्यामितीय अलंकरणों से यह स्पष्ट होता है, कि रेखागणित के सिद्धांतों से उनका अवश्य परिचय रहा होगा।
तौल की इकाई 16 की संख्या तथा उसके आवर्त्तक थे। यह महत्त्वपूर्ण बात है, कि सोलह के अनुपात की यह परंपरा आधुनिक काल तक भारत में चलती रही, क्योंकि पुराना रुपया सोलह आने का ही होता था। सैन्धव लोगों का प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में ज्ञान भी काफी उन्नत था। पाषाण एवं धातु उद्योग दोनों अत्यन्त विकसित अवस्था में थे।
विशाल पाषाण फलकों, मनकों,सेलखङी की आयताकार मुहरों, सोने, चांदी, तांबा, सीसा, कांसा आदि के आभूषण, मूर्तियाँ, उपकरण आदि का उत्पादन एवं निर्माण विकसित तकनीकी ज्ञान के परिचायक हैं। कालीबंगन तथा लोथल से प्राप्त बालक के दो कपालों के आधार पर ऐसा निष्कर्ष निकाला गया है, कि इस काल के लोग खोपङी की शल्य चिकित्सा करना जानते थे।

कालीबंगन से प्राप्त खोपङी पर छः छेद हैं, जो कुछ भर गये हैं। लोथल से भी प्राप्त एक बालक की खोपङी में छेद पाया गया है। एस.आर.राव के अनुसार यह खोपङी पर शल्य चिकित्सा किये जाने का प्राचीनतम उदाहरण है। के.के.थपल्याल के अनुसार यह चिकित्सा सिर-दर्द और चोट आदि के कारण असह्य पीङा को ठीक करने के लिये की गयी होगी।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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