आधुनिक भारतइतिहास

संघवाद किसे कहते हैं

संघवाद किसे कहते हैं

संघवाद 1935 का अधिनियम शासन की संघीय प्रणाली को दर्शाता था। इसके अंतर्गत सर्वप्रथम ब्रिटिश भारत को स्वायत्त प्रांतों में विभाजित किया गया और इसके बाद उसे संघीय ढांचे में ढाल लिया गया जिसमें भारतीय रजवाङे भी शामिल थे।

राज्यों को संगठित करने के लिये विलय पत्र भी तैयार किए गए। सैद्धांतिक रूप से यह अलग-अलग राज्यों में अलग हो सकता था और इसी के चलते भारतीय राज्यों में कई छोटे-छोटे संघ तैयार हो गए।

केन्द्रीय कार्यकारिणी

महारानी विक्टोरिया द्वारा पांच वर्ष के लिये नियुक्त गवर्नर को दोहरी भूमिका निभानी होती थी। वह ब्रिटिश भारत के लिये गवर्नर जनरल था, तो दूसरी ओर भारतीय हजवाङों के साथ बातचीत के समय वह महारानी का प्रतिनिधित्व करता था।

गवर्नर जनरल के रूप में वह संघीय कार्यकारिणी का अध्यक्ष था, लेकिन दूसरी भूमिकाओं में सरकारी सर्वोच्च अधिकारी था। रक्षा, विदेश, धर्म संबंधी मामले, सरकार का बहिष्कार करने जैसे मामलों में वह स्वेच्छा से निर्णय ले सकता था।

तीन पार्षद उसकी सहायता के लिये थे, जो कि सिर्फ गवर्नर जनरल के प्रति ही उत्तरदायी थे। हालांकि इनका काम सिर्फ सलाह ही देना था।

स्वेच्छा से कार्य करने के बावजूद, गवर्नर जनरल, भारत सचिव के प्रति उत्तरदायी था और इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश संसद के प्रति थी।

केन्द्र सरकार की कार्यकारिणी का स्वरूप द्वैध शासन पर आधारित होने के कारण स्थानांतरित विषयों पर गवर्नर जनरल, मंत्रीमंडल की सहायता भी ले सकता था। इस मंत्रीमंडल की जवाबदेही संघीय विधानमंडल के प्रति थी। तकनीकी रूप से गवर्नर जनरल स्थानांतरित विषयों के मामलों में संवैधानिक अध्यक्ष के रूप में कार्य करता था।

लेकिन मंत्रिमंडल द्वारा किए जाने वाले कार्यों की कुछ सीमाएं भी थी –

  • भारतीय रिजर्व बैंक और संघीय रेल अधिकरण की स्वायत्त शक्तियां व विशेष अधिकार प्रशासन पर भारी पङे।
  • अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिये गवर्नर जनरल को दिए गए विशेष अधिकार।
  • व्यावसायिक भेदभाव के संदर्भ में।

द्विसदनीय संघीय विधायिका

देशी राजाओं का प्रतिनिधित्व – राज्य परिषद (उच्च सदम) की सीटों पर भारतीय राज्यों की संख्या 2\5 थी, जबकि निचले सदन में यह एक – तिहाई थी।

संघवाद

परिषद में सीटों का आवंटन राज्य की महत्ता तथा उसके दर्जे पर निर्भर था, जबकि विधानसभा में राज्य की जनसंख्या को आधार माना गया।

सिर्फ कुछ ही राज्य ऐसे थे, जो व्यक्तिगत प्रतिनिधि की हैसियत रखते थे। बाकी राज्यों को दो समूहों में बांट दिया गया।अधिनियम के अनुसार या तो एक साथ मिलकर आते थे, या फिर एक समय में एक।

राज्यों के लिये निर्धारित पदों पर सदस्यों के चुनाव की प्रक्रिया राजाओं की सहमति पर निर्भर थी। हालांकि उम्मीद की जा रही थी कि जल्द ही लोकप्रिय चुनाव प्रणाली पर विचार किया जाएगा।

ब्रिटिश भारत का प्रतिनिधित्व – ब्रिटिश भारत में दोनों ही सदनों में सीटों का आवंटन जनसंख्या के आधार पर था।

मुस्लिमों के ब्रिटिश भारत में एक-तिहाई सीटों के दावे के दद्देनजर उन्हें सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व दिया गया।

माना जा रहा था कि सभी राज्यों के प्रतिनिधियों के साथ सभी समुदायों को संतुष्ट करने पर आम सहमति बन सकेगी।

ब्रिटिश भारत के उच्च सदन के सदस्य अपने-अपने निर्वाचन सदन में वापसी के लिये सदस्यों का चुनाव प्रांतीय विधानमंडल के सदस्यों द्वारा निर्मित निर्वाचक मंडल द्वारा होना था.

दूसरे शब्दों में, सामान्यतः, मुस्लिम और सिक्ख समुदायों के सदस्य जो प्रांतीय विधान सभाओं के सदस्य थे, एकल संक्रमणीय मत प्रणाली द्वारा उन्हें चुन सकते थे।

निचले सदन की सदस्य संख्या

निचले सदन के सदस्यों की कुल संख्या 375 थी, जिसमें 250 ब्रिटिश भारत से और 125 भारतीय राज्यों से थे। ब्रिटिश भारत के सदस्यों में से 3 व्यावसायिक और उद्योगों का प्रतिनिधित्व करते थे, जबकि एक सदस्य मजदूरों का। इस सदन का कार्यकाल 5 वर्ष था।

उच्च सदन की सदस्य संख्या

उच्च सदन में सदस्यों की संख्या 260 थी, जिसमें 156 ब्रिटिश भारत से और 104 भारतीय राज्यों से थे। भारतीय राज्यों का प्रतिनिधित्व करीब 40 प्रतिशत था। ब्रिटिश भारत के सदस्यों में 7 यूरोपियन, 1 एंग्लो-इंडियन, 2 भारतीय ईसाई तथा 6 गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत होने थे।

इसके अलावा सभी सदस्य विभिन्न प्रांतों से चुने गये थे। यह एक स्थाई सदन था, जिसके एक-तिहाई सदस्य हर दो वर्ष बाद अवकाश ग्रहण करते थे।

कार्यकारिणी की सर्वोच्चता

गर्वनर जनरल विधामंडल का एक अनिवार्य अंग था।

अपनी ऐच्छिक शक्तियों का प्रयोग करेत हुये वह किसी भी सदन को तलब या फिर स्थगित कर सकता था। विधानसभा को भंग करने की शक्ति भी उसके पास थी।

वह किसी खास विषय पर चल रही चर्चा को रोक सकता था। उसके पास यह अधिकार था कि वह दोनों सदनों को संबोधित करे या अपना संदेश उन तक पहुँचाए।

विधायिका द्वारा पारित किसी विधेयक पर वह अपना मत व्यक्त कर सकता था, इसे रोक सकता था, पुनर्विचार के लिये वापस भेज सकता था अथवा अपने पास सुरक्षित रख सकता था।

जब सत्र नहीं चल रहा हो वह उस समय अध्यादेश जारी कर सकता था और अपने अधिकार क्षेत्र के विषयों पर तो गर्वनर जनरल सत्र के दौरान भी अध्यादेश पारित कर सकता था।

अपनी विशेष जिम्मेदारियों को निभाने के लिये वह गर्वनर जनरल अधिनियम के रूप में स्थायी कानून भी तैयार कर सकता था।

गर्वनर जनरल के अधिकार क्षेत्र के विषय

गर्वनर जनरल के अधिकार क्षेत्र में बहुत से विषय आते थे, जिनमें प्रमुख हैं

  • भारत और उसके किसी भी भाग की शांति व्यवस्था पर मंडराने वाले किसी भी तरह के खतरे को रोकना।
  • संघीय सरकार के वित्तीय पक्ष को स्थायित्व प्रदान करना।
  • अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा।
  • सरकारी सेवा में कार्यरत सदस्यों के अधिकारों की सुरक्षा तथा समानाधिकार बनाए रखना।
  • ब्रिटिश वस्तुओं के संबंध में कार्यपालिका भेदभाव पर रोक लगाना या ब्रिटिश मूल के वे लोग, जो भारत में कार्यरत हैं या व्यावसायिक गतिविधियों में संलग्न हैं, के विरुद्ध भेदभाव का निषेध करना।
  • सभी भारतीय राज्यों और उसके शासकों के अधिकारों की सुरक्षा।
  • स्वेच्छा से किए गए किसी भी फैसले को सुरक्षित अथवा किसी विषय पर स्वयं निर्णय देना।

विधायिका की सीमाएं

वास्तव में संघीय विधायिका की भूमिका औपचारिक ही थी। विधानसभा और वित्तीय दोनों ही मामलों में इसके हाथ बंधे थे और शक्तियां सीमित थी। इसके पास राजस्व संबंधी मामलों में कोई पहल करने की शक्ति नहीं थी और राजस्व से जुङे मामलों में इसका नियंत्रण बहुत कम था।

संघीय न्यायालय

गठन एवं कार्यकाल

न्यायालय में कम से कम तीन न्यायाधीश रखे गए, जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश और दो सहायक न्यायाधीश थे। इसे दिल्ली में स्थापित किया गया।

महारानी इन न्यायाधीशों की नियुक्ति करती थी, जो 65 वर्ष की उम्र तक अपने पद पर रहते थे।

उनके वेतन के समय ही निर्धारित कर दिए जाते थे और बाद में उसमें कटौती नहीं होती थी।

इन न्यायाधीशों को केवल उनके गलत आचरण के सिद्ध होने पर ही हटाया जा सकता था।

न्यायाधीशों को कार्यकाल के आधार पर पदमुक्त होने पर पेंशन का अधिकार होता था।

इन न्यायाधीशों के आचरण पर विधायिका अथवा उसके बाहर कोई परिचर्चा नहीं की जा सकती थी।

न्यायालय के त्रिस्तरीय क्षेत्राधिकार – वास्तविक, अपीलीय, सलाहकारी

प्रथम क्षेत्राधिकार के अंतर्गत यह संघ की सभी इकाइयों के बीच के विवादों का निपटारा करती थी। इसके अलावा यह संघ एवं उसकी इकाइयों के बीच, एक या एक से अधिक इकाइयों के बीच भी उस स्थिति में अपना निर्णय देती थी, जहां संविधान की व्याख्या करने की आवश्यकता हो।

दूसरे क्षेत्राधिकार के अंतर्गत यह केवल उच्च न्यायालय द्वारा दिये गये उन निर्णयों को सुनती थी, जिसमें किसी संवैधानिक अधिनियम को परिभाषित करने की आवश्यकता होती थी।

संघीय न्यायालय द्वारा दिये गये किसी निर्णय के विरुद्ध प्रिवी काउंसिल की न्यायिक समिति में अपील की जा सकती थी।

न्यायालय के सलाहकारी अधिकार क्षेत्र में विधि से संबंधित वे मामले आते थे, जिन पर गवर्नर जनरल द्वारा परामर्श की अपेक्षा की जाती थी।

References :
1. पुस्तक- भारत का इतिहास, लेखक- के.कृष्ण रेड्डी

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