आधुनिक भारतइतिहास

1935 का अधिनियम क्या था

1935 का अधिनियम की पृष्ठभूमि

मांटफोर्ड सुधार से मोह भंग

मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार शीघ्र ही जनता के असंतोष का कारण बन गये। दूसरे शब्दों में, देश के राजनीतिक दलों को संतुष्ट करने की उसकी असफलता ने सभी दलों को संतुष्ट करने की उसकी सफलता ने सभी दलों को एकजुट होकर भविष्य के संवैधानिक सुधारों हेतु प्रदर्शन करने को प्रेरित किया।

1935 का अधिनियम

1935 के अधिनियम की विशेषताएँ

यहां तक कि पुनर्गठित प्रांतीय परिषदों के शुरूआती वर्षों में केन्द्रीय विधानमंडल में एक प्रस्ताव भी लाया गया, जिसमें प्रांतों में पूर्ण उत्तरदायी सरकार में एक प्रस्ताव भी लाया गया, जिसमें प्रांतों में पूर्ण उत्तरदायी सरकार के गठन की बात कही गई। इसके अलावा सेना तथा प्रांतों को विदेश मामलों को छोङकर सभी केन्द्रीय विभागों को हस्तांतरित करने की बात कही गयी।

विधानमंडल में आम जनता के दबाव के चलते तत्कालीन गृह सदस्य के नेतृत्व में मुड्डीमैन समिति का गठन किया गया। हालांकि इसकी सिफारिशें बहुत ही सीमित थी। यहाँ तक कि बहुमत की राय थी कि नई प्रणाली से कुछ खास हासिल नहीं हो सका, जबकि कुछ लोगों ने इस बात पर बल दिया कि द्वैध शासन प्रणाली असफल हो गई है, इसलिए किसी दूसरे तंत्र का गठन न किया जाए।

इसके अतिरिक्त एक ऐसे संविधान के गठन की आवश्यकता थी, जो सरकार को स्थायित्व प्रदान कर सके और आम जनता का समर्थन हासिल कर सके।

जैसा कि उम्मीद थी, ब्रिटिश सरकार ने बहुमत की रिपोर्ट के विरुद्ध जाने से इंकार कर दिया और 1927 में तो लार्ड इरविन ने यह चेतावनी भी दे डाली कि कांग्रेस की बलपूर्वक नीतियों को संसद पर थोपा नहीं जा सकता।

सरकार के व्यवहार में परिवर्तन

लेकिन साइमन कमीशन की नियुक्ति सरकार की सोच में आए बदलाव का एक अर्थपूर्ण प्रमाण थी। इस कमीशन को बहिष्कार और असहयोग आंदोलन के वातावरण में अपना कार्य करना पङा। हालांकि इसकी आवाज सर्वदलीय सम्मेलन तथा नेहरू रिपोर्ट के बीच दबकर रह गई।

इस बीच लॉर्ड इरविन द्वारा भारत में डोमिनियन स्टेट्स की घोषणा और गोलमेज सम्मेलन के फैसले ने साइमन कमीशन को अप्रसांगिक बना दिया।

गोलमेज सम्मेलन के अंतिम सत्र के समाप्त होने के बाद राज्य सचिव ने तीन बातों की पुष्टि की –

  1. नए संवैधानिक ढांचे को संघीय रूप तभी दिया जाएगा, जब भारतीय राज्यों की आधी से ज्यादा जनसंख्या इसको माने।
  2. केन्द्रीय विधान मंडल में ब्रिटिश भारत के कुल प्रतिनिधित्व का एक-तिहाई भाग मुस्लिमों को देना। तथा
  3. सिंध और उङीसा अलग राज्य होंगे।

बाद में 1993 ई. में इन प्रस्तावों पर श्वेत पत्र जारी किया गया। यह तीन मुख्य सिद्धांतों – संघ की स्थापना, प्रांतीय स्वायत्तता एवं कार्यपालिका में निहित विशेष उत्तरदायित्व और सुरक्षा केन्द्र और प्रांतों दोनों पर आधारित था।

सर्वाधिक जटिल एवं विशालतम विधान

श्वेत पत्र प्रस्ताव पर आधारित नई विधायिका के विवादों में घिर जाने के बाद, इसे लॉर्ड लिनलिथगो की अध्यक्षता वाली संसद की संयुक्त समिति को सौंप दिया गया। इस समिति में ब्रिटिश भारत व भारतीय रजवाङों से 21 प्रतिनिधियों को इसमें शामिल किया गया। समिति ने अपनी रिपोर्ट नवम्बर 1934 में प्रस्तुत की।

इसकी सिफारिशों पर आधारित, भारत शासन अधिनियम संसद द्वारा पारित होने के बाद 2 अगस्त, 1935 को शाही स्वीकृति के लिये भेज दिया गया।

नए अधिनियम 15 अनुसूचियों सहित 451 धाराएं थी। इससे पहले ब्रिटिश संसद ने इतने बङे तथा जटिल संविधान को नहीं अपनाया था।

इसमें दो मुख्य विशेषतायें थी – इसमें प्रस्तावना नहीं थी, मताधिकार के प्रस्ताव पर विचार करने का अधिकार संसद को था।

अधिनियम का कार्यान्वयन

वैसे इस अधिनियम की संघीय व्यवस्था दोषपूर्ण थी। अधिनियम में जिस संघ के निर्माण की कल्पना की गयी थी, उसके प्रति न तो सरकार गंभीर थी और न ही इसके लिये कोई निश्चित प्रावधान किये गये थे। संघ में शामिल होने या न होने का निर्णय देशी रियासतों की इच्छा पर छोङ दिया गया था। इसीलिये संघ निर्माण की अवधारणा कभी पूर्णनहीं हो सकी। केन्द्र से संबंधित अन्य प्रावधान वैसे 1919 के अधिनियम के अनुरूप ही चलते रहे।

1937 से 1939 के मध्य अर्थात 1935 के अधिनियम के कार्यान्वयन की अवधि में भारतीय राजनेताओं ने प्रथम बार यह अवसर प्राप्त किया कि वे संयुक्त उत्तरदायित्व के सिद्धांत के आधार पर सरकार का गठन करें।

इस अधिनियम के द्वारा ही भारत में प्रथम बार प्रधानमंत्री एवं मंत्रीपरिषद जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया।

बहुमत से गवर्नर या कैबिनेट के कार्य में कोई बाधा नहीं आयी।

कोई भी ऐसा अवसर नहीं आया जब गवर्नर ने किसी राज्य सरकार को बर्खास्त किया हो या सरकार एवं उनके मध्य कोई तनाव की स्थिति उत्पन्न हुयी हो।

कार्यों का वितरण एवं विभागों का आवंटन मुख्यतया मंत्रियों की इच्छा पर ही किया गया तथा इसमें गवर्नर की कोई विशेष भूमिका नहीं रही।

सरकार में राजनीतिक नेतृत्व के संबंध में प्रशिक्षण देने हेतु संसदीय सचिवों की नियुक्ति की गयी।

किसी नये प्रस्तुत विधान के संबंध में गवर्नर की ओर से बहुत कम प्रतिरोध किया गया।

गवर्नरों ने मुख्यतया संवैधानिक प्रमुख के रूप में ही कार्य किया तथा प्रांतीय सरकारें अन्य विषयों में अपने स्वविवेक से कार्य करती रही।

व्यवहार्य में, विधायिका के प्रतिनिधिक चरित्र एवं कार्यपालिका उत्तरदायित्व ने शांतिपूर्वक अपनी भूमिका निभाई।

References :
1. पुस्तक- भारत का इतिहास, लेखक- के.कृष्ण रेड्डी

Online References
wikipedia : भारत सरकार अधिनियम

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