इतिहासराजस्थान का इतिहास

मंडौर के प्रतिहार

मंडौर के प्रतिहार शासक

प्रतिहारों की 26 शाखाओं में मंडौर के प्रतिहार सबसे प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण शाखा थी। इनके बारे में हमें जोधपुर एवं घटियाले के शिलालेखों से जानकारी मिलती है। जोधपुर का शिलालेख 836 ई. का है, घटियालें से दो शिलालेख मिले हैं – एक 837 ई. का और दूसरा 861 ई. का। इनसे पता चलता है कि प्रतिहारों के गुरु हरिश्चंद्र नामक ब्राह्मण के दो पत्नियाँ थी।

एक ब्राह्मणई और दूसरी क्षत्राणी। ब्राह्मण पत्नी से उत्पन्न संतान ब्राह्मण-प्रतिहार कहलायी और क्षत्राणी पत्नी भद्रा की संतान क्षत्रिय-प्रतिहार हुए। भद्रा से चार पुत्र उत्पन्न हुए – भोगभट्ट, कदक, रज्जिल और दह। इन चारों भाइयों ने मिलकर मंडौर (माण्डव्यपुर) को जीत लिया और उसकी सुरक्षा के लिये प्राचीरों का निर्माण करवाया।

ओझा के अनुसार हरिश्चंद्र का समय 6 शताब्दी के आस-पास होना चाहिए। उसके वंशजों में नागभट्ट प्रथम पराक्रमी शासक हुआ। वह रज्जित का पोता था। उसने अपने राज्य का काफी विस्तार किया और मंडौर से 60 मील की दूरी पर स्थित मेङता नगर को अपने राज्य की राजधानी बनाया। इससे नागभट्ट के राज्य के विस्तार की जानकारी मिलती है।

मंडौर के प्रतिहार

उसकी दसवीं पीढी में शीलुक नाम का राजा हुआ। उसके बारे में कहा जाता है, कि उसने वल्ल मंडल के भाटी राजा देवराज को पराजित कर अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार किया। शीलुक विविध भाषाओं का ज्ञाता था और एक अच्छा कवि भी था। उसके दो रानियाँ थी।

भाटी रानी से बाउक और दूसरी रानी कक्कुक नाम के पुत्र हुए। बाउक ने अपने शत्रु राजा मयूर को पराजित किया। इसी बाउक ने 837 ई. की प्रशस्ति को उत्कीर्ण करवाया जिसमें उसने अपने वंश का विवरण दिया है। बाउक के बाद उसका भाई कक्कुक प्रतिहारों का राजा बना। उसने घटियाले के शिलालेखों को उत्कीर्ण करवाया।

इन लेखों से पता चलता है कि मारवाङ, जैसलमेर(माङ) मल्ल, तमणो (मलानी)अज्ज (मध्यप्रदेश) एवं गुर्जरत्रा में वह काफी लोकप्रिय था। संभव है कि कुछ क्षेत्रों में उसका राजनीतिक प्रभाव भी रहा हो। उसने व्यापार, वाणिज्य को प्रोत्साहन दिया। शिल्पकारों, विद्वानों तथा गुणीजनों को आश्रय दिया शिलालेख उसको एक न्यायप्रिय एवं प्रजापालक शासक बतलाते हैं।

प्राप्त साक्ष्यों से पता चलता है कि 12वीं सदी के मध्य में मंडौर के आस-पास के क्षेत्रों पर चौहानों का प्रभुत्व स्थापित हो गया था। परंतु मंडौर दुर्ग प्रतिहारों की इन्दा नामक शाखा के अधिकार में बना रहा।

अन्य प्रतिहार वंशियों ने शायद चौहानों के सामन्तों के रूप में शासन करना शुरू कर दिया था। 1395 ई. में इन्दा प्रतिहार सामन्तों ने अपने राजा हम्मीर से परेशान होकर राठौङ वीरम के पुत्र राव चूंडा को मंडौर का दुर्ग दहेज में दे दिया।

संभव है, चूंडा ने बलात् अधिकृत किया हो। जो भी हो, इस घटना के साथ ही प्रतिहारों का प्रभाव समाप्त हो जाता है और धीरे-धीरे समूचा मारवाङ राठौङों के अधिकार में चला जाता है।

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मंडौर के गुर्जर-प्रतिहारों के राज्य-विस्तार के संबंध में डॉ.गोपीनाथ शर्मा का अनुमान है कि वह जोधपुर से 40 मील उत्तर-पश्चिम और 60 मील के लगभग उत्तर-पूर्व में चारों ओर फैला हुआ था। डॉ. बैजनाथपुरी ने लिखा है – ऐसा प्रतीत होता है कि मंडौर के गुर्जर-प्रतिहारों का राज्य विस्तार काठियावाङ तक विस्तृत था और राजस्थान के शेष भू-भाग पर कन्नौज के या मालवा तथा गुजरात के प्रतिहारों का शासन था।

मंडौर के शासकों, उनकी रानियों तथा पुत्रों के विरुदों (महाराज्ञि, राज्ञि, भूधर आदि) से अनुमान लगाया जा सकता है कि वे दीर्घकाल तक स्वतंत्र शासकों के रूप में शासन करते रहे होंगे।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
wikipedia : गुर्जर-प्रतिहार

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