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मंगलौर की संधि कब हुई थी?

मंगलौर की संधि

मंगलौर की संधि (mangalaur kee sandhi) – मंगलौर की संधि 7 मार्च, 1784 ई. को हुई थी।

हैदरअली कहाँ का शासक था?

वारेन हेस्टिंग्ज ने कूटनीति का सहारा लेकर मराठों के साथ सालबाई की संधि कर ली और निजाम को गुण्टूर का प्रदेश दे दिया, जिससे दोनों ने हैदरअली को सहायता देना बंद कर दिया। दोनों पक्षों में (अंग्रेजों एवं हैदरअली) संघर्ष चलता रहा, लेकिन इसी बीच दिसंबर, 1782 में हैदरअली की मृत्यु हो गयी। उसके पुत्र टीपू ने संघर्ष जारी रखा। युद्ध, 1784 के प्रारंभिक महीनों तक चलता रहा, किन्तु हार-जीत का कोई निर्णय नहीं हो सका। अंत में 7 मार्च, 1784 ई. को टीपू और अंग्रेजों के मध्य मंगलौर की संधि हुई।

मंगलौर की संधि

टीपू सुल्तान कौन था?

दोनों ही पक्ष (अंग्रेज और टीपू)युद्ध से उकता गये थे। इसी बीच 1783 में यूरोप में इंग्लैण्ड और फ्रांस के बीच संधि हो चुकी थी। इसलिए टीपू को फ्रांसीसी सहायता मिलनी बंद हो गयी। अंत में 7 मार्च, 1784 में अंग्रेजों और टीपू में संधि हो गयी।

मंगलौर की संधि की शर्तें

1.) दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के जीते हुए प्रदेश वापिस कर दिये तथा युद्ध बंदियों को मुक्त कर दिया।
2.) अंग्रेजों ने यह आश्वासन दिया कि वे मैसूर के साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार रखेंगे और संकटकाल में मैसूर की सहायता करेंगे।
3.) टीपू ने अंग्रेजों को कोई व्यापारिक अधिकार अपने राज्य में प्रदान नहीं किए।

मंगलौर की संधि का महत्त्व

यह संधि अंग्रेजों के लिए बहुत अपमानजनक थी। लोगों में यह भावना फैल गयी कि अंग्रेजों को पराजित होकर टीपू के समक्ष संधि की भीख माँगनी पङी। यदि टीपू की अन्य भारतीय राज्य सहायता करते, तो अंग्रेजों की दशा बहुत शौचनीय हो जाती और संभवतः उनको भारत से भाग जाना पङता। किन्तु अंग्रेजी कूटनीति ने इस संकटकाल में अपार सफलता प्राप्त कर स्थिति को संभाल लिया। प्रतिष्ठा खोने के साथ-साथ अंग्रेजों को कर्नाटक से भी हाथ धोना पङा। यह संधि टीपू की कूटनीतिक सफलता थी।

यह संधि कोई स्थायी समझौता नहीं थी। यह स्पष्ट दिखाई देता था कि अंग्रेजी कंपनी और मैसूर राज्य एक बार फिर अपनी-अपनी शक्ति को दूसरे के विरुद्ध तौलेंगे। स्वयं वारेन हस्टिंग्ज इस संधि से संतुष्ट न था, परंतु मद्रास सरकार के जोर देने पर उसे यह संधि स्वीकार करनी पङी।

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