आधुनिक भारतइतिहास

नाना फङनवीस का मराठों के सुदृढीकरण में योगदान

नाना फङनवीस

नाना फङनवीस – (Contribution of Nana Phadnavis in the strengthening of Marathas)

नाना फङनवीस का आरंभिक जीवन और उन्नति

नाना फङनवीस का जन्म 1742 ई. में हुआ था और 58 वर्ष की अवस्था में अर्थात् 1800 ई. में उसका देहांत हो गया। नाना फङनवीस हमेशा गंभीर रहते थे, शायद ही किसी ने उसे हँसते हुए देखा था। वह बहुत अध्यवसायी थे और नियमित जीवन व्यतीत करते थे। वह अपने प्रशासन की प्रत्येक बात को स्वयं देखते थे। वह किसी काम को खुले रूप में करना पसंद नहीं करते थे जैसा कि महादजी सिन्धिया किया करते थे। वह हमेशा अपने क्रियाकलापों को गुप्त रखते थे। वह अपने व्यवहार में सदैव औचित्यपूर्ण व न्यायपूर्ण रहते थे। किसी गलत काम को करने से या धोखेबाजी करने से उन्हें डर लगता था। उनमें महादजी सिन्धिया के जैसी आत्म-निर्भरता नहीं थी। वह सबसे अलग-अलग सलाह लेते थे, परंतु कार्य अपने निर्णय के अनुसार ही करते थे। वह अपने अधीनस्थ कर्मचारियों से कङा काम लेते थे जिससे वह किसी के भी प्रिय नहीं थे और उनके जीवन को सदैव खतरा बना रहता था।

नाना फङनवीस

नाना फङनवीस में सैनिक नेतृत्व की योग्यता नहीं थी। वे समझौतावादी भी नहीं थे। उन्होंने धीमे-धीमे शासन की सारी शक्ति अपने हाथों में केन्द्रित कर ली थी, लेकिन यदि नाना फङनवीस इसके विपरीत इस शक्ति को बाँट कर चलते तो संभवतया मराठों का भविष्य अधिक अच्छा होता, परंतु नाना फङनवीस को शक्ति प्राप्त करने की बहुत चाह थी।

नाना फङनवीस के कार्य तथा उपलब्धियाँ

नाना फङनवीस और रघुनाथ राव

नाना फङनवीस भी उन अल्प व्यक्तियों में से थे जो पानीपत के तृतीय युद्ध में बच निकले थे। सन 1772 ई. में पेशवा माधवराव की मृत्यु हो गयी थी और मराठा साम्राज्य में अराजकता की सी स्थिति आ गयी थी। माधवराव की मृत्यु के बाद उसका भाई नारायणराव पेशवा हुआ, परंतु उसके चाचा रघुनाथराव (राघोबा) जो स्वयं पेशवा बनना चाहता था, ने षङयंत्र रचकर 30 अगस्त, 1773 ई. को नारायणराव पेशवा का वध करवा दिया और स्वयं पेशवा बन गया। अपनी स्थिति को दृढ करने के लिए उसने बंबई के गवर्नर से सूरत की संधि कर ली तथा सालसेट और बेसिन के द्वीप देने का वचन देकर अंग्रेजों से सहायता प्राप्त कर ली। नाना फङनवीस पेशवा परिवार के स्वामिभक्त थे। अतः उन्होंने नारायणराव के पुत्र माधवराव द्वितीय को पेशवा बना दिया और अंग्रेज गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्ज से पुरंदर की संधि कर ली, परंतु कंपनी के डायरेक्टरों ने सूरत की संधि को ही मान्यता प्रदान की। इसी कारण वारेन हेस्टिंग्ज को भी रघुनाथराव की सहायता करनी पङी। रघुनाथराव की सहायता के लिए अंग्रेजी सेना का एक दस्ता बम्बई से पूना की ओर गया। परंतु नाना फङनवीस ने होल्कर तथा सिन्धिया की सम्मिलित सेनाओं की मदद से उसे मार्ग में ही पराजित कर दिया। अंग्रेजों को हारकर मराठों से बङगाँव में एक अपमानजनक संधि करनी पङी। वारेन हेस्टिंग्ज ने इस संधि को रद्द कर दिया और मराठों के विरुद्ध दो सेनायें भेजी और बाद में मराठों व अंग्रेजों के बीच सालबाई की संधि हुई जिसने एक बार फिर भारतीय राजनीति में अंग्रेजों की प्रतिष्ठा स्थापित कर दी। कुछ भी हो, महादजी सिन्धिया और नाना फङनवीस मराठा साम्राज्य के महान एवं अंतिम सैनिक व राजनीतिज्ञ थे जो मराठा शक्ति को 18 वीं शताब्दी में अपने चरमोत्कर्ष पर ले गये।

नाना फङनवीस द्वारा अंग्रेजों को पराजित करना

जब लार्ड वारेन हेस्टिंग्ज ने जनरल गोडार्ड को मराठों के दमन के लिए भेजा तो नाना फङनवीस ने अंग्रेजों के विरुद्ध एक शक्तिशाली संघ का निर्माण किया जिसमें हैदराबाद का निजाम, मैसूर का शासक हैदरअली तथा नागपुर के भौंसले शामिल थे। नाना फङनवीस की सेनाओं ने जनरल गोडार्ड को अप्रैल, 1781 ई. में पूना के निकट पराजित किया। अंत में 1782 ई. में दोनों पक्षों में एक संधि हो गयी जिसे साल्बाई की संधि कहते हैं।

टीपू सुल्तान को पराजित करना

1786 ई. में नाना फङनवीस और निजाम की सेनाओं ने टीपू सुल्तान पर आक्रमण किया और बादामी और गजेन्द्रगढ पर अधिकार कर लिया। अंत में 1788 ई. में दोनों पक्षों में एक संधि हो गयी जिसके अनुसार टीपू ने मराठों को 48 लाख रुपये की धनराशि देना स्वीकार कर लिया। 1790 में टीपू सुल्तान और अंग्रेजों के मध्य युद्ध छिङ गया। इस अवसर पर मराठों और निजाम ने भी अंग्रेजों का साथ दिया। टीपू को पराजित होकर एक संधि करनी पङी जिसके अनुसार मराठों को पश्चिमी कर्नाटक का प्रदेश प्राप्त हुआ।

निजाम को पराजित करना

1795 में मराठों ने खुर्दा नामक स्थान पर निजाम को पराजित किया। निजाम को एक संधि करनी पङी जिसके अनुसार उसने पूना और हैदराबाद के बीच के कई जिलों पर मराठों का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया।

अंग्रेजों के साथ संबंध

सालबाई की संधि के बाद नाना फङनवीस ने अंग्रेजों से मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करने की नीति अपनाई ताकि अंग्रेजों की सहायता से वह मराठा संघ पर अपना पूर्ण नियंत्रण स्थापित रख सके। नाना ने टीपू सुल्तान की शक्ति के दमन के लिए अंग्रेजों को सैनिक सहायता दी थी। परंतु इसका परिणाम मराठों के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ। 1792 ई. में जब महादजी सिन्धिया पूना आया तो नाना ने सिन्धिया के प्रभाव को क्षीण करने के लिए अंग्रेजों से सहायता मांगी थी। इससे पता चलता है कि नाना फङनवीस अंग्रेजों की सहायता से अपनी सत्ता सुरक्षित रखना चाहता था।

नाना फङनवीस का मूल्यांकन

नाना फङनवीस एक ब्राह्मण थे और यह कहा जाता है कि नाना की मृत्यु के साथ ही ब्राह्मण राज्य का भी अंत हो गया और पूना का भी पतन हो गया। नाना फङनवीस को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए सुप्रसिद्ध पामर ने कहा था, नाना के साथ ही मराठा सरकार की बुद्धिमानी और आधुनिकता समाप्त हो गयी। सर रिचर्ड टेम्पिल के अनुसार, इस महान व्यक्ति की मृत्यु के साथ ही मराठा प्रशासन के समस्त अवशेष ही समाप्त हो गये। ग्रान्ट डफ के शब्दों में नाना फङनवीस निश्चित रूप से एक महान राजनीतिज्ञ थे। उनमें व्यक्तिगत साहस की कमी तथा सिद्धांतहीन महत्वाकांक्षा होने के कारण कई दोष उत्पन्न हो गये थे। नाना फङनवीस के बारे में यह भी कहा जाता है कि उन्हें धन व संपत्ति की रक्षा के लिए ही उन्होंने प्रारंभ में रघुनाथ राव के पुत्र बाजीराव को पेशवा नियुक्त करने का विरोध किया था। प्रसिद्ध इतिहासकार सरदेसाई के अनुसार, नाना फङनवीस यदि शक्ति को अपने पास केन्द्रित नहीं करते और अपने आर्थिक हितों को देश की सेवा में लगा देते तो मराठा इतिहास में ही नहीं, बल्कि भारतीय इतिहास में उनको एक बहुत ऊंचा स्थान प्राप्त होता। डॉ. जगन्नाथ मिश्र का कथन है कि 58 वर्षीय नाना फङनवीस की मृत्यु से मराठा इतिहास का एक युग समाप्त हो गया। वह एक चतुर राजनीतिज्ञ था और लगभग 30 वर्षों तक पूना की राजनीति पर छाया रहा।

Related Articles

error: Content is protected !!