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नाना फडणवीस कौन थे?

नाना फङनवीस

नाना फडणवीस कौन थे? (Who was Nana Fadnavis?)

नाना फडणवीस का जन्म 12 जनवरी, 1742 ई. को एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था तथा उसके जन्म का नाम बालाजी था। इनके पिता का नाम जनार्दन था, अतः महाराष्ट्र की परंपरा के अनुसार उसे बालाजी जनार्दन कहकर पुकारते थे। पेशवा माधवराव प्रथम ने नाना को फङनवीस (पेशवाई के आय-व्यय का हिसाब रखने वाला) पद पर नियुक्त किया।

वित्तीय प्रबंध के लिए उत्तरदायी होने के कारण नाना का महत्त्व बढता गया। नाना शरीर से दुर्बल था तथा सैन्य संचालन में अयोग्य था, अतः उसे सैनिक अभियानों में नहीं भेजा जाता था।

पेशवा नारायणराव की हत्या के बाद पूना में राधोबा के विरुद्ध क्रोध की अग्न प्रज्वलित हो गयी थी। अतः नाना फङनवीस (फडणवीस), सखाराम बापू, मोरोबा आदि नेताओं ने बाराभाई समिति का गठन किया। उसके बाद राधोबा को पेशवा पद से अलग करने की घोषणा की गयी।

नारायणराव की विधवा पत्नी गंगाबाई को, जो उस समय गर्भवती थी, राज्य की अधिकारिणी बनाया गया। सखाराम बापू को प्रमुख कार्यभारी तथा नाना को उसका सहायक बनाया गया। नाना समस्त सत्ता अपने हाथ में केन्द्रित करना चाहता था। अतः धीरे-धीरे उसने बाराभाई समिति के सभी सदस्यों को पदच्युत कर शासन की समस्त शक्ति अपने हाथ में केन्द्रित कर ली। नाना की यह प्रवृत्ति मराठा राज्य के लिए बङी घातक सिद्ध हुई, क्योंकि पेशवा धीरे-धीरे शक्तिहीन हो रहा था और नाना स्वयं सैन्य संचालन कर नहीं सकता था।

नाना फडणवीस के समक्ष प्रमुख समस्या मराठा संघ की एकता बनाये रखते हुए राघोबा पर नियंत्रण रखना तथा अंग्रेजों के बढते हुए प्रभाव को रोकना था। नारायणराव के मरणोपरांत उत्पन्न पुत्र माधवराव द्वितीय को पेशवा घोषित करने के बाद उसके पालन-पोषण तथा उसे शासन संचालन की शिक्षा देने का दायित्व भी नाना का ही था।

18 अप्रैल, 1774 ई. को गंगाबाई के पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम माधवराव द्वितीय रखा गया और उसे पेशवा घोषित कर दिया गया। इस अवसर पर राधोबा के पक्षपाती सरदारों ने कुछ समझौता करना चाहा, किन्तु नाना, राधोबा से कोई समझौता करना नहीं चाहता था, बल्कि उसने राधोबा के विरुद्ध एक सेना भेज दी।

दिसंबर, 1774 में थाना के निकट राधोबा पराजित हुआ और सूरत की ओर भाग गया। सूरत में राधोबा ने अंग्रेजों से संधि कर ली, जिसके फलस्वरूप आंग्ल-मराठा युद्धों का सूत्रपात हुआ। नाना ने भी कूटनीति से निजाम और हैदरअली को अपनी ओर मिलाकर अंग्रेज विरोधी गुट बना लिया।

किन्तु वारेन हेस्टिंग्ज ने निजाम को इस गुट से अलग कर दिया। अंग्रेजों के सात हुए इस पूरे संघर्षकाल में नाना, महादजी के सात सहयोग करता रहा। किन्तु साल्बाई की संधि के संबंध में नाना व महादजी में तीव्र मतभेद उत्पन्न हो गये। साल्बाई की संधि की शर्तों को तय करने में महादजी को श्रेय दिया जाता था और इससे महादजी को एक स्वतंत्र शासक की स्थिति प्राप्त होती थी। इससे नाना की अधिकार लालसा तथा महत्वकांक्षा को भारी धक्का लगा। अतः मृत्युपर्यंत नाना इसी प्रयत्न में लगा रहा कि महादजी का प्रभाव न बढने दिया जाय, यद्यपि उसकी यह नीति भी मराठा राज्य के लिए घातक सिद्ध हुई।

मैसूर के प्रति नाना फडणवीस की नीति

अंग्रेजों के साथ हुए संघर्ष के समय नाना ने मैसूर के शासक हैदरअली का सहयोग लिया था। हैदरअली की मृत्यु के बाद महादजी टीपू के प्रति भी मैत्रीपूर्ण नीति चाहता था, किन्तु नाना ने टीपू की शक्ति को कुचलने में अंग्रेजों को सहयोग देने की नीति अपनाई। अतः टीपू ने अंग्रेजों के साथ मंगलोर की संधि करने के बाद मराठों पर आक्रमण किया।

इस अवसर पर नाना ने अंग्रेजों से सैनिक सहायता माँगी, किन्तु कार्नवालिस ने नाना को सैनिक सहायता देने से इंकार कर दिया। लेकिन जब कार्नवालिस ने टीपू के विरुद्ध सैनिक अभियान करने से पूर्व मराठों की सहायता माँगी, तब महादजी के मना करने के बावजूद नाना अंग्रेजों को सैनिक सहायता देने को तैयार हो गया।

टीपू को पराजित करने के बाद अंग्रेजों ने टीपू से जो संधि की, उसके अनुसार मराठों को कुछ क्षेत्र उपलब्ध हुए। किन्तु इसके परिणाम मराठों के लिए बङे हानिकारक सिद्ध हुए। क्योंकि दक्षिण में अब शक्ति संतुलन बिगङ चुका था और मराठों को भविष्य में अंग्रेजों से अकेले ही सामना करना पङा।

मराठा संघ और नाना फङनवीस

माधवराव द्वितीय का पालन पोषण नाना की देखरेख में हुआ था, किन्तु नाना ने कभी भी इस बात का प्रयत्न नहीं किया कि पेशवा को सैनिक एवं प्रशासनिक शिक्षा दी जाय जिससे पेशवा अपने पद का उत्तरदायित्व ही नहीं संभाल सका। नाना को इस बात का भय रहता था कि यदि पेशवा अपने पद के उत्तरदायित्व को संभालने के योग्य बन गया तो शासन की बागडोर उसके हाथों से छिन जाएगी। पेशवा जब पाँच वर्ष का था, तब महादजी उत्तर भारत के अभियान पर चला गया था।

1792 में जब महादजी वापिस आया, उस समय पेशवा 18 वर्ष का हो चुका था। जब महादजी पेशवा से मिला तो नाना के कठोर नियंत्रण में, ताकि पेशवा पर महादजी का प्रभाव स्थापित न हो जाय। पेशवा की समस्त दिनचर्या ही नाना द्वारा नियंत्रित थी। ऐसी परिस्थितियों में पेशवा में मराठा संघ के नेतृत्व की योग्यता का विकास संभव ही न था। 1795 में मराठों ने निजाम को खरदा के युद्ध में पराजित किया था।

इस अवसर पर पेशवा युद्ध-स्थल में मौजूद था तथा उसने बाजीराव द्वितीय से संपर्क स्थापित करने का प्रयत्न किया। जब नाना को अपने गुप्तचरों द्वारा इसकी सूचना दी गयी तो नाना ने पेशवा को बुरी तरह फटकारा और उसे अपमानित किया। इसके बाद नाना ने पेशवा के चारों ओर गुप्तचरों का जाल बिछा दिया। अपना अपमान देखकर पेशवा को इतनी आत्मग्लानी हुई कि अक्टूबर, 1795 ई. में उसने छत से कूदकर आत्महत्या कर ली।

पेशवा के उत्तराधिकार का प्रश्न

1795 में पेशवा माधवराव द्वितीय की निःसंतान मृत्यु हो गयी थी किन्तु अपनी मृत्यु से पूर्व उसने बाबूराम फङके के सामने बाजीराव द्वितीय को अपना उत्तराधिकारी बनाने की इच्छा व्यक्त की थी। किन्तु नाना तो राधोबा के किसी पुत्र को पेशवा बनाने को तैयार नहीं था। नाना चाहता था कि बाजीराव के छोटे भाई चिमाजी को माधवराव की पत्नी के गोद दे दिया जाय और उसे पेशवा बना दिया जाय। किन्तु महादजी के उत्तराधिकारी दौलतराव सिन्धिया ने बाजीराव का पक्ष लिया।

चिमाजी इस समय अल्पव्यस्क था और उसे पेशवा बनाने से शासन सत्ता नाना के हाथ में ही रहती। नाना ने अपनी स्वार्थसिद्धी के लिए धर्मशास्त्र के विपरीत था। थोङे दिनों बाद बाजीराव ने नाना को आश्वासन दिया कि वह नाना को अपना मुख्यमंत्री बना देगा तो नाना ने बाजीराव का पक्ष ग्रहण कर लिया। सिन्धिया इस कार्यवाही से क्रुद्ध हो उठा और उसने चिमाजी का पक्ष ग्रहण कर लिया।
वस्तुतः नाना ने अपने पद पर कार्य करते हुए नौ करोङ रुपये की संपत्ति एकत्रित करली थी, जिसकी वह किसी तरह रक्षा करना चाहता था। पेशवा बनने के बाद बाजीराव ने अपने वचन को भंग करते हुए 1797 के अंत में नाना को बंदी बना लिया, किन्तु 1798 में उसे छोङ दिया। इस समय नाना का स्वास्थ्य ठीक नहीं था और धीरे-धीरे उसका चलना-फिरना भी बंद हो गया। अंत में 13 मार्च, 1800 को नाना की मृत्यु हो गयी।

अंग्रेजों के प्रति नीति

साल्बाई की संधि के पूर्व नाना फङनवीस का रुख स्पष्टतः अंग्रेज विरोधी था। किन्तु साल्बाई की संधि के बाद मराठा संघ में अपने प्रभाव को सर्वोपरि बनाये रखने के लिए अंग्रेजों से मैत्री चाहता था। महादजी मराठों के प्रभाव को उत्तर भारत में फैलाना चाहता था, जबकि नाना का कार्यक्षेत्र दक्षिण भारत तक सीमित था। नाना ने अंग्रेजों को टीपू के विरुद्ध सैनिक सहायता दी थी, जिसका परिणाम मराठों के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ और जब महादजी 12 वर्ष के बाद पूना लौटकर आया, तब महादजी की सैन्य शक्ति से आतंकित होकर कार्नवालिस से भी सहायता माँगी।

इसका स्पष्ट अभिप्राय यह है कि वह अंग्रेजों की सहायता से अपनी सत्ता सुरक्षित रखना चाहता था। 1798 में वह जब पुनः फङनवीस पद पर नियुक्त हुआ, तब भी उसने इस बात का प्रयत्न किया कि अंग्रेज और निजाम उसके पद की सुरक्षा की गारंटी दें। इस प्रकार साल्बाई की संधि के बाद उसका यही प्रयत्न रहा कि वह अंग्रेजों का सहयोग व समर्थन प्राप्त करता रहे। 1798 में नाना की फङनवीस पद पर नियुक्ति वह स्वयं वेलेजली से प्रसन्नता व्यक्त की थी। अतः यह निर्विवाद सत्य है कि नाना, महादजी की इच्छा के विरुद्ध अंग्रेजों से मैत्रीपूर्ण संबंध बनाये रखना चाहता था तथा अपनी सत्ता सुरक्षित रखने के लिए उसने मराठा संघ के हितों को भी तिलांजली दे दी थी।

नाना का मूल्यांकन

18 वीं शताब्दी में मराठों को अंग्रेजों व मैसूर राज्य से निरंतर संघर्ष करना पङा था। इसलिए मराठों का नेतृत्व ऐसे किसी व्यक्ति के पास होना चाहिए था, जो सैन्य संचालन में दक्ष हो। दुर्भाग्यवश नाना को सैनिक ज्ञान बिल्कुल नहीं था। फिर भी उसने कभी भी किसी कुशल सैन्य संचालक पर विश्वास नहीं किया। पेशवा नारायणराव की मृत्यु से उत्पन्न संकट में नाना की महत्त्वपूर्ण भूमिका उभर कर सामने आयी थी, किन्तु 1782 के बाद तो नाना में वैसी योग्यता के चिह्न मात्र भी दिखाई नहीं दिये। वस्तुतः मराठा संघ के पतन के लिए नाना की नीतियाँ काफी अंशों तक उत्तरदायी थी।

वह बढते हुए अंग्रेजों के खतरे को समझ ही नहीं सका। उसने पेशवा माधवराव द्वितीय पर कठोर नियंत्रण रखकर मराठा संघ को अत्यंत दुर्बल अवस्था में लाकर छोङ दिया। उसने महादजी को कभी महत्त्व नहीं दिया जबकि महादजी मराठा संघ का सर्वाधिक योग्य सरदार था। वस्तुतः उसने मराठा राज्य में किसी नेता को उभरने ही नहीं दिया।

फिर भी अपने व्यक्तित्व और नीति निपुणता के कारण वह अर्द्ध शताब्दी तक मराठा राज्य में छाया रहा। नाना के जीवनी लेखक श्री हर्डीकर ने उसकी तुलना एक वट वृक्ष से की है, जिसकी विशाल और सघन छाया में लोग विश्रांति, शांति और सुख प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु जो अपने आसपास किसी भी अन्य वृक्ष को पनपने नहीं देता।

दुर्भाग्य से नाना का काल मराठा राज्य के पतन का काल था तथा पतन के लिए सभी आवश्यक परिस्थितियों का निर्माण हो चुका था। मराठा सरदार आदर्शहीन व सिद्धांतहीन हो चुके थे तथा राज्यहित की भावना नष्ट हो चुकी थी। फलस्वरूप मराठा संघ की एकता नष्ट हो गयी। पारस्परिक संघर्ष इतना तीव्र हो गया कि राज्य की नींवें बिल्कुल खोखली हो गयी।

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