इतिहासराजस्थान का इतिहास

राणा सांगा एवं बाबर का इतिहास

राणा सांगा एवं बाबर का इतिहास

राणा सांगा एवं बाबर राणा सांगा ने भारत के शक्तिशाली सुल्तानों को पराजित कर संपूर्ण भारत में ख्याति अर्जित कर ली थी, परंतु उसे अब उसके समान ही साहसी एवं पराक्रमी से मुकाबला करना था, और वह पराक्रमी था – जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर

भारत में मुगल साम्राज्य के संस्थापक बाबर की गणना एशिया के श्रेष्ठ एवं सम्मानित शासकों में की जाती है। बाबर ने भी राणा साँगा की भाँति जीवन में कई उतार-चढाव देखे थे। मध्य एशिया में फरगना और समरकंद के अपने पैतृक राज्य खोने के बाद वह काबुल का नया राज्य प्राप्त करने में सफल रहा। किन्तु बाबर जैसा महत्वाकांक्षी शासक छोटे से काबुल के राज्य से संतुष्ट नहीं हो सका।

अतः जब मध्य एशिया में वह अपना साम्राज्य स्थापित करने में असफल रहा तब उसने हिन्दुस्तान को जीतने का निश्चय किया। संयोगवश सिकंदर लोदी की मृत्यु के बाद दिल्ली सल्तनत की केन्द्रीय सत्ता लङखङाने लग गयी थी। इब्राहीम लोदी के व्यवहार से अनेक लोदी सरदार असंतुष्ट होकर उसके विरोधी बन गये थे। उनमें से कुछ लोदी सरदारों ने इब्राह्मीम लोदी के विरुद्ध बाबर से सहायता माँगी । बाबर तो ऐसे अवसर का इन्तजार ही कर रहा था।

अतः लोदी सरदारों का निमंत्रण मिलने पर उसने हिन्दुस्तान को जीतने और वहाँ अपना साम्राज्य स्थापित करने का संकल्प कर लिया। 1526 ई. में पानीपत के प्रथम युद्ध में उससे सुल्तान इब्राहीम लोदी परास्त होकर मारा गया। इस निर्णायक विजय के फलस्वरूप बाबर, दिल्ली व आगरा का स्वामी बन गया। किन्तु भारत में साम्राज्य स्थापित करने के लिये यह विजय पर्याप्त नहीं थी।

पानीपत की विजय के बाद भी बाबर अपने शत्रुओं से घिरा हुआ था। बिहार और उत्तर प्रदेश में अफगान अपनी शक्ति संगठित कर रहे थे और जो पानीपत में पराजित हो चुके थे, वे कालपी, कन्नौज, इटावा, धौलपुर, ग्वालियर आदि स्थानों पर जाकर वहाँ के शासक बन गये थे। इब्राहीम लोदी का भाई महमूद लोदी अफगानों की शक्ति को संगठित कर रहा था। राजस्थान में राणा साँगा के नेतृत्व में राजपूत की शक्तिशाली बन चुके थे।

अतः भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने तथा सर्वोच्च सत्ता ग्रहण करने के लिये इन सभी शक्तियों को परास्त करना अनिवार्य था। किन्तु प्रश्न यह था कि पहले आफगानों से निपटा जाय अथवा राजपूतों से। बाबर के विचार में अफगानों से भी अधिक खतरा राणा साँगा से था। क्योंकि बाबर के समान राणा साँगा भी भारत में अपनी सर्वोच्च सत्ता स्थापित करने की आकांक्षा रखता था।

अतः पहले किस शत्रु से निपटा जाय, इस प्रश्न पर विचार करने के लिये बाबर ने अपनी सैन्य समिति की बैठक बुलायी। सैन्य समिति ने बाबर को पहले अफगानों से निबटने का परामर्श दिया। किन्तु बाबर ने साँगा की शक्ति और महत्वाकांक्षा को ध्यान में रखते हुये, समिति के परामर्श को ठुकरा दिया तथा पहले सांगा से निपटने का निश्चय किया। तदनुसार बाबर ने अपनी सैनिक तैयारियाँ आरंभ कर दी।

संघर्ष के कारण – राणा सांगा और बाबर के मध्य संघर्ष के अनेक कारण थे, उनमें से मुख्य कारण निम्नलिखित थे –

बाबर की अपनी आत्मकथा बाबरनामा में युद्ध का कारण राणा साँगा द्वारा संधि – भंग करने और विश्वासघात करना बताया है। बाबर ने लिखा है कि, जब हम लोग काबुल में थे तो राणा सांगा के दूत ने उपस्थित होकर उसकी ओर से निष्ठा प्रदर्शित की और यह निश्चय हुआ था कि सम्मानित पादशाह उस ओर से दिल्ली के समीप पहुँच जाय तो साँगा इस ओर से आगरा पर आक्रमण कर देगा।

मैंने इब्राहीम को पराजित भी कर दिया, दिल्ली तथा आगरा पर अधिकार भी जमा लिया, किन्तु इस काफिर के किसी ओर हिलने के चिह्न भी दृष्टिगत नहीं हुए। इस कथन को आधार बनाकर रशब्रुक विलियम सहित कुछ इतिहासकार राणा सांगा पर विश्वासघात का आरोप लगाते हैं और दोनों के मध्य संघर्ष का मूल कारण भी मानते हैं।

लेकिन बाबर ने साँगा पर जो आरोप लगाया है वह मूल तथ्यों से परे प्रतीत होता है। वस्तुतः राणा सांगा ने अपना कोई दूत बाबर के पास काबुल नहीं भेजा था। इस कथन के समर्थन में निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते हैं-

यदि साँगा ने अपना दूत बाबर के पास भेजा होता तो बाबर के अलावा अन्य समकालीन मुगल या अफगान लेखकों ने अवश्य इसका उल्लेख किया होता। चूँकि बाबर के अलावा किसी भी समकालीन इतिहासकार ने इसका उल्लेख नहीं किया है, अतः साँगा द्वारा दूत भेजने की बात मान्य नहीं हो सकती। बाबर को राणा साँगा के सहयोग की आवश्यकता थी न कि सांगा को बाबर के सहयोग की। राणा सांगा, जिसने इब्राहीम लोदी को पहले ही परास्त कर दिया था, उसके प्रभुत्व की तूती उत्तर भारत, मध्य भारत, गुजरात और मालवा में बोल रही थी।, उसे बाबर को आमंत्रित करने की क्या आवश्यकता थी?यह आवश्यकता बाबर को हो सकती है, क्योंकि वह एक अनजान देश में आ रहा था।

इसलिये बाबर ने ही साँगा के पास अपना दूत भेजा था। राणा को हिन्दुस्तान में अपनी प्रतिष्ठा स्थापित करने या अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये बाह्य शक्ति की कदापि आवश्यकता नहीं थी और यह राजपूतों की परंपरा के प्रतिकूल बात थी। बाबर ने अपनी आत्मकथा में आलमखाँ लोदी तथा दौलतखाँ लोदी से की गयी संधियों का विस्तृत ब्यौरा दिया है, फिर उसने राणा सांगा के साथ की गयी संधि या समझौते का विवरण क्यों नहीं दिया? क्योंकि ऐसी कोई बात हुई ही नहीं।

यदि साँगा, बाबर के साथ कोई समझौता करता तो पानीपत के युद्ध में इब्राहीम के विरुद्ध बाबर की सहायता अवश्य करता, क्योंकि राजपूत वचन के पक्के होते थे। यदि राणा ने बाबर को आमंत्रित किया होता तो इब्राहीम का छोटा भाई महमूद लोदी खानवा के युद्ध में राणा साँगा के साथ न होता।

डॉ. कुमारी वंदना पारासर ने अपने शोध ग्रन्थ में लिखा है कि बाबर और राणा साँगा के बीच कोई निश्चित संधि या समझौते की बात निराधार है। खानवा के युद्ध में महमूद लोदी का राणा साँगा के साथ भाग लेना यह प्रमाणित करता है कि राणा दिल्ली के तख्त पर बैठने की आकांक्षा नहीं रखता था, बल्कि महमूद लोदी को दिल्ली के तख्त पर बैठाकर राजनीति की शतरंज पर, अपने मोहरे के रूप में प्रयोग करना चाहता था।

डॉ.पाराशर की तो मान्यता है कि खानवा के युद्ध में पहले, राणा सांगा के रणथंभौर पहुँचने पर बाबर ने रायसेन के शासक सलहदी तंवर के माध्यम से राणा से संधि करनी चाही थी, किन्तु राणा ने बाबर का यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। इससे क्रुद्ध होकर बाबर ने राणा पर विश्वासघात का आरोप लगाकर जिहाद (धर्मयुद्ध) घोषित कर दिया।

राणा साँगा और बाबर के मध्य संघर्ष का एक कारण महत्वाकांक्षाओं का संघर्ष था। बाबर द्वारा पानीपत का युद्ध जीतने के पलहे राणा साँगा का विचार था कि बाबर अपने पूर्वज तैमूर की भाँति दिल्ली सल्तनत तथा वहाँ से धन बटोर कर वापिस चला जायेगा। किन्तु पानीपत के युद्ध के बाद जब बाबर ने अपने सेनानायकों की राय के विरुद्ध भारत में ही रहने का निश्चय कर लिया तब साँगा ने सोचा कि बाबर उसके लिये भयंकर प्रतिद्वन्द्वी सिद्ध हो सकता है। अतः उसने बाबर को चुनौती देने का निश्चय कर लिया।

पानीपत के युद्ध के बाद साँगा की गतिविधियों ने बाबर को राणा सांगा से लङने के लिये विवश कर दिया था। पानीपत के युद्ध में सुल्तान इब्राहीम लोदी की पराजय की सूचना मिलते ही राणा सांगा ने राजस्थान के उन भू-भागों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया जो कभी दिल्ली सल्तनत के अधीन थे।

साँगा ने रणथंभौर से दस मील दूर स्थित खंडार के दुर्ग और इसके आस-पास के लगभग 200 गाँवों पर अधिकार कर लिया, जिससे इस क्षेत्र के अनेक मुस्लिम परिवारों को बेघरबार होना पङा। इससे बाबर का क्रोधित होना स्वाभाविक था।

राणा साँगा और बाबर के बीच वैमनस्य का एक अन्य कारण साँगा द्वारा बाबर के अफगान शत्रुओं को आश्रय एवं सहयोग देना था। इब्राहीम लोदी का छोटा भाई महमूद लोदी राणा साँगा की शरण में पहुँच चुका था तथा कुछ विद्वानों के अनुसार साँगा ने उसे दिल्ली का सुल्तान स्वीकार कर लिया था।

हसनखाँ मेवाती भी अपनी सेना सहित राणा साँगा के पास आ गया था। साँगा ने बाबर के इन शत्रुओं के साथ मिलकर बाबर को भारत से बाहर खदेङने की योजना पर विचार-विमर्श करना आरंभ कर दिया। यह अफगान राजपूत गठबंधन बाबर के लिये एक भयंकर चुनौती थी तथा बाबर के भयभीत होने का कारण था। बाबर चाहता था कि अन्य अफगान राणा से सहयोग करें उसके पहले ही साँगा की शक्ति नष्ट कर दी जाय।

डॉ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार दोनों के बीच संघर्ष का कारण दोनों ही धार्मिक एवं सांस्कृतिक विचारधारा थी। राणा अपने आपको हिन्दू धर्म एवं संस्कृति का रक्षक समझता था।उसका मानना था कि बाबर का सत्ता संपन्न होना हिन्दू धर्म एवं संस्कृति के लिये घातक है। इसके विपरीत बाबर अपने आपको इस्लाम धर्म का पोषक मानता था।

डॉ. शर्मा का यह कथन ठीक प्रतीत नहीं होता, क्योंकि साँगा यदि हिन्दू धर्म और संस्कृति की रक्षार्थ ही बाबर से युद्ध करता तो वह अफगानों का सहयोग कभी प्राप्त नहीं करता। दूसरी ओर बाबर भी इस्लाम के अनुयायी अफगानों का रक्त बहाकर साँगा का राज्य नहीं छीनता। वस्तुतः दोनों ही भारत में सर्वोच्च सत्ता प्राप्त करना चाहते थे और इस राजनीतिक उद्देश्य में धार्मिक भावना का कोई स्थान नहीं हो सकता। यदि दोनों के मन में इस प्रकार की भावना का कुछ अंश रहा भी होगा तो उसे नगण्य कहा जायेगा।

खानवा का युद्ध

राणा साँगा एवं बाबर

खानवा के युद्ध के पूर्व का घटना चक्र

जब राणा साँगा और बाबर ने एक दूसरे से लङने का निश्चय कर लिया तब दोनों अपनी-अपनी स्थिति मजबूत करने हेतु तत्पर हो गये। बाबर ने दक्षिणी-पश्चिमी सीमाओं पर स्थित बयाना, धौलपुर, ग्वालियर आदि को अधिकृत करने के लिये अपने सैनिक अधिकारियों को भेज दिया। बयाना पर अधिकार करने हेतु बाबर ने पहले दोस्त इश्कआका को भेजा, लेकिन उसके असफल होने पर मेहंदी ख्वाजा को भेजा।

बयाना के दुर्गपाल ने थोङी आनाकानी के बाद दुर्ग मुगलों को समर्पित कर दिया। इसी प्रकार धौलपुर और ग्वालियर पर भी मुगलों का अधिकार हो गया। इससे बाबर की स्थिति काफी मजबूत हो गयी।

इधर साँगा भी अपनी तैयारी में जुट गया। उसने बाबर के विरुद्ध संगठित होकर संघर्ष करने के लिये सभी राजपूत शासकों और सरदारों को नियंत्रण भेजा, जिसकी अनुकूल प्रतिक्रिया हुई। मारवाङ का शासक राव गांगा का पुत्र मालदेव, चंदेरी का मेदिनीराय, मेङता का रायमल राठौङ, सिरोही का अखयराज दूदा, डूँगरपुर का रावल उदयसिंह, सलूम्बर का रावत रतनसिंह, सादङी का झाला अज्जा, गोगुन्दा का झाला सज्जा आदि अपनी-अपनी सेनाएँ लेकर राणा साँगा के पास पहुँच गये।

राणा अपने दलबल सहित पहले रणथंभौर गया, जो इस समय साँगा के ही अधिकार में था। यहाँ पर उत्तर प्रदेश के चन्दावर क्षेत्र से चंद्रभान और मणिकचंद्र चौहान भी ससैन्य साँगा के पास आ पहुँचे। रणथंभौर से बयाना की ओर प्रयाण किया गया, जिस पर बाबर ने अधिकार कर लिया था। साँगा ने सर्वप्रथम बयाना के आस-पास के क्षेत्रों से मुस्लिम सरदारों को कदेङकर, उन क्षेत्रों को अपने राज्य में मिलाया और उसके बाद बयाना की ओर बढा।

बयाना में इस समय बाबर की ओर से मेंहदी ख्वाजा दुर्ग रक्षक नियुक्त था। मेंहदी ख्वाजा ने साँगा का मार्ग रोकने के लिये अपने सैनिक दस्ते भेजे तथा हसनखाँ मेवाती को अपनी तरफ मिलाने के लिये उसके पुत्र नाहरखाँ को, जिसे पानीपत के युद्ध में बंदी बना लिया गया था, मुक्त कर दिया। लेकिन हसनखाँ मेवाती इससे सर्वथा अप्रभावित होकर ससैन्य साँगा से जा मिला।

राणा साँगा ने बयाना पहुँच कर दुर्ग को घेर लिया, जिससे दुर्ग में तैनात मुगल सेना की स्थिति शोचनीय हो गयी। बाबर ने दुर्ग में घिरी मुगल सेना की सहायतार्थ मोहम्मद सुल्तान मिर्जा के नेतृत्व में एक सेना भेजी, लेकिन राजपूतों ने उसे परास्त कर खदेङ दिया। जब दुर्ग में तैनात मुगल सेना के कई अधिकारी और सैनिक मारे गये तो निराश होकर मुगलों ने आत्म समर्पण कर दिया। बयाना पर साँगा का अधिकार हो गया।

बयाना की विजय साँगा की अंतिम महान विजय थी। इस विजय से साँगा के मुकुट में प्रतिष्ठा की एक और पंखुङी लग गयी।

उधर बाबर भी साँगा का सामना करने की तैयारी में जुटा हुआ था। उसने शीघ्र ही आस-पास के क्षेत्रों में गयी हुई सेना को एकत्र करना आरंभ किया। शहजादे हुमायूँ को जौनपुर से बुला लिया। 16 फरवरी, 1527 को वह आगरा से कूच कर फतेहपुर सीकरी पहुँचा और यहीं अपना पङाव डाल दिया।

रसद और पानी जुटाने की व्यवस्था की गयी और फिर अपनी मोर्चाबंदी की तरफ ध्यान दिया। सीकरी की ऊँची पहाङी पर सेना की मोर्चाबंदी आरंभ कर दी गयी। जब बाबर के सैनिक इस काम में लगे हुए थे, उसी समय बयाना से बचकर भागे हुये मुगल सैनिक यहाँ पहुँचे और उन्होंने राजपूतों की शूरवीरता तथा साँगा की सैन्य शक्ति की श्रेष्ठता का हाल मुगल सैनिकों को सुनाया, जिसके फलस्वरूप बाबर की सेना भय और आतंक का वातावरण बन गया।

स्वयं बाबर ने अपनी आत्मकथा में हतोत्साहित सैनिकों की मनःस्थिति का वर्णन किया है। जिस समय शिविर में भय और आतंक का वातावरण था, तभी काबुल से आये एक ज्योतिषी मुहम्मद शरीफ ने भविष्यवाही की कि मंगल का तारा पश्चिम में है, इसलिए इधर (पूर्व) से लङने वाले मुगल पराजित होंगे। इस भविष्यवाणी ने भयभीत मुगल सैनिकों को और भी अधिक भयभीत कर दिया। ऐसी प्रकिकूल परिस्थितियों में अपने सैनिकों का मनोबल ऊँचा करने हेतु बाबर ने युक्ति से काम लिया।

उसने अपने तमाम सैनिकों, अमीरों एवं साथियों को एकत्र करके एक ओजपूर्ण भाषण दिया, जिसमें जीवन मरण को एक साधारण घटना बताया। अब तक धर्म विरुद्ध किये गये आचरण के लिये प्रायश्चित करने का आह्वान किया। स्वयं बाबर ने शराब न पीने की कदम खाई और मुसलमानों से लिये जाने वाले धार्मिक कर (तमगा)को भविष्य में न लेने की घोषणा की।

उसने राणा के विरुद्ध युद्ध को जिहाद (धर्म-युद्ध) घोषित करके प्रत्येक मुसलमान के लिए राणा के विरुद्ध लङना धर्मोचित ठहराया। मुगल सैनिकों पर इसका अनुकूल प्रभाव पङा। मुगल सैनिकों में पुनः जोश और साहस का नव-संचार हुआ और उन्होंने अंतिम समय क लङने की खसम खायी। उसके बाद बाबर अपने दलबल सहित मार्च 1527 ई. के प्रारंभ में, फतेहपुर सीकरी से लगभग 10 मील दक्षिण-पश्चिम में खानवा के मैदान में जा पहुँचा।

बयाना की विजय के बाद साँगा ने सीकरी जाने का सीधा मार्ग छोङकर भुसावर होकर सीकरी जाने का मार्ग पकङा उसका उद्देश्य संभवतः दिल्ली और काबूल से बाबर को मलने वाली सहायता एवं रसद के मार्ग को काटना था। लेकिन सांगा का यह कदम परिस्थियों के विपरीत था। यदि साँगा सीकरी का सीधा मार्ग तय करके भयभीत और आतंकित मुगल सैनिकों पर तत्काल धावा बोल देता तो शायद परिणाम दूसरा ही होता।

लेकिन उसने टेढे-मेढे मार्ग को अपनाकर लगभग एक महीना व्यर्थ में ही नष्ट कर दिया। इससे बाबर को खानवा के मैदान में उपयुक्त स्थान पर पङाव डालने और सेना का उचित ढंग से जमाव करने का पर्याप्त अवसर मिल गया। इसके विपरीत जब सांगा अपनी विशाल सेना के साथ खानवा के मैदान में पहुँचा तब उसे अपनी सेना को उचित ढंग से जमाने का बहुत ही कम समय मिला तथा उसे ऐसे स्थान पर अपनी सेना का जमाव करना पङा, जो युद्ध के समय शत्रु के मुकाबले अधिक उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकता था।

खानवा युद्ध का वर्णन

खानवा का युद्ध – मार्च, 1527 के आरंभ में राणा साँगा और बाबर की सेनाएँ खानवा के मैदान में आमने-सामने आ डटी। यद्यपि फारसी इतिहासकारों ने तथा स्वयं बाबर ने राणा साँगा के सैनिकों की संख्या बहुत अधिक बढा चढाकर बतलायी है। फिर भी इसमें कोई संदेह नहीं कि बाबर की तुलना में साँगा के पास अधिक सैनिक थे। परंतु बाबर के पास एशिया का सर्वश्रष्ठ तोपखाना था, जबकि साँगा के पास इसका अभाव था।

बाबर ने अपनी सेना की व्यवस्था पानीपत के युद्ध के ढंग से की तथा राणा की सेना प्रचलित राजपूती ढंग से व्यवस्थित थी। कर्नल टॉड के अनुसार युद्ध से पूर्व बाबर ने राणा साँगा से संधि करने का प्रयास किया था तथा रायसेन के शासक सलहदी तंवर ने इस संधि के लिये मध्यस्थता की थी। यद्यपि सभी मुगल अफगान लेखक इस संधि प्रस्ताव का उल्लेख नहीं करते चूँकि यह तथ्य मुगल पक्ष की दुर्बलता का प्रमाण था, अतः संभव है कि फारसी वृत्तांतकारों ने इस संबंध में मौन रहना ही उचित समझा हो। बाबर की तत्कालीन कमजोर स्थिति तथा राणा की विशाल सैन्य शक्ति को देखते हुये इस प्रकार के प्रस्ताव की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।

17 मार्च 1527 को प्रातः नौ बजे के लगभग रणभेरी बज उठी तथा राणा ने अपने सेना के बाँयें सैनिक दल को मुगल सेना के दाहिने दल पर धावा बोलने का आदेश दे दिया। यह आक्रमण इतना तीव्र था कि मुगल सेना इस प्रारंभिक आक्रमण को सहन न कर सकी और बाबर को अपने दाहिने दल की सहायतार्थ तुरंत चिन तैमूर सुल्तान को ससैन्य उधर भेजना पङा। इसी समय मुस्तफारूमी की तोपों की मार से राजपूतों में भगदङ मच गयी।

इस अवसर पर मुगल सेना ने भी तत्परता दिखाई तथा शत्रु दल को बिखेरने में तोपखाने और अश्वारोही दल ने अपना कमाल दिखाया। आग उगलती तथा भीषण गर्जना करती हुयी मुगल तोपों ने राजपूतों में आतंक उत्पन्न कर दिया। इसी समय राजपूतों की सहायतार्थ भी कुछ सेना आयी और मुगल सेना के दाहिने भाग पर पुनः दबाव डाला, लेकिन बाबर ने अपनी सेना के मध्य भाग को दाहिने भाग की सहायतार्थ भेजा, जिसने राजपूतों के आक्रमण को विफल कर डाला। अब साँगा ने मुगल सेना के बाँये भाग पर ध्यान दिया, किन्तु मुगलों ने राजपूतों के प्रत्येक आक्रमण को विफल कर दिया।

इसी समय बाबर ने अपनी तुलुगमा पद्धति का प्रयोग किया। रुस्तमखान तुर्कमान तथा मुनीम अक्ता ने अपनी सैनिक टुकङियों के साथ चक्कर काटते हुये राजपूत सेना के पार्श्व भाग पर आक्रमण कर दिया। धीरे-धीरे राजपूतों के कई शूरवीर सेनानायक चंद्रभान, भोपतराय, माणिकचंद्र, दलपत आदि धराशायी हो गये। हसनखाँ मेवाती भी गोली का शिकार हो गा। राजपूतों की भारी क्षति से बाबर का हौसला बढ गया और उसने अपने सभी सुरक्षित सैनिकों को युद्ध में झोंक दिया। इस नये आक्रमण का सामना करते हुये रावत जग्गा, रावत बाघ, कर्मचंद आदि कई सरदार मारे गये। ऐसी गंभीर स्थिति में राणा ने स्वयं को भी युद्ध में झोंक दिया। परंतु दुर्भाग्यवश से अचानक राणा सांगा के सिर में तीर लगने से राणा मूर्छित हो गया।

अतः राणा के विश्वस्त सहयोगियों ने तत्काल राणा को युद्ध स्थल से बाहर निकाल लिया तथा अजमेर के पृथ्वीराज, जोधपुर के मालदेव और सिरोही के अखयराज की देखरेख में राणा को बसवा ले जाया गया। युद्ध भूमि में उपस्थित राजपूतों ने अंतिम दम तक लङने का निश्चय किया तथा राजपूत सैनिकों को राणा के घायल होने और युद्ध स्थल से चले जाने की बात मालूम न हो और उनका मनोबल बना रहे, इसके लिये हलवद (काठियावाङ)के शासक झाला राजसिंह के पुत्र झाला अज्जा को राणा साँगा के राज्यचिह्न धारण करवाये तथा उसे हाथी पर बैठा दिया।

कुछ समय तक झाला अज्जा के नेतृत्व में युद्ध चला, लेकिन शीघ्र युद्ध स्थल में राणा की अनुपस्थिति की बात फैल गयी, जिससे राजपूत सेना में शलबली मच गयी। इसी समय मुगल सेना ने राजपूतों को चारों ओर से घेर कर भीषण धावा बोल दिया। राजपूत वीरतापूर्वक लङे, परंतु तोपों के गोलों के समक्ष उनकी एक न चली। अंत में विवश होकर वे युद्ध क्षेत्र से भाग खङे हुए। राजपूतों को भागते देख सलहदी और नागौर के खानजादा ने राजपूतों का पक्ष छोङ दिया और वे बाबर की से जा मिले। उन्होंने बाबर को, राणा को घायलावस्था में युद्ध स्थल से बाहर ले जाने की सूचना दी बाबर की प्रसन्नता का ठिकान न रहा।

दोपहर तक युद्ध समाप्त हो गया । युद्ध भूमि पर मृतक तथा घायल राजपूतों के अलावा कोई राजपूत सैनिक दिखाई नहीं दे रहा था। बाबर की विजय निर्णायक रही। लाशों के टीले और कटे हुये सिरों की मीनारें बनाकर विजय की प्रसन्नता प्रकट की गयी। इस विजय के बाद बाबर ने गाजी की उपाधि धारण की।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
wikipedia : सांगा

Related Articles

error: Content is protected !!