इतिहासमध्यकालीन भारत

पेशवा साम्राज्य एवं इतिहास

पेशवा साम्राज्य एवं इतिहास

पेशवा साम्राज्य एवं इतिहास (Peshwa Empire and History) - मराठा साम्राज्य के प्रधानमन्त्रियों को पेशवा कहते थे। ये राजा के सलाहकार परिषद अष्टप्रधान के सबसे प्रमुख होते थे। राजा के बाद इन्हीं का स्थान आता था। छत्रपती शिवाजी महाराज के अष्टप्रधान मन्त्रिमण्डल में प्रधानमन्त्री अथवा वजीर का पर्यायवाची पद था। 'पेशवा' फारसी शब्द है जिसका अर्थ 'अग्रणी' है।

1795 में पेशवा माधवराव द्वितीय की निःसंतान मृत्यु हो गयी थी।किन्तु अपनी मृत्यु से पूर्व उसने बाबूराम फङके के सामने बाजीराव द्वितीय को अपना उत्तराधिकारी बनाने की इच्छा व्यक्ति की थी। किन्तु नाना तो राधोबा के किसी पुत्र को पेशवा बनाने को तैयार नहीं था। 

नाना चाहता था कि बाजीराव के छोटे भाई चिमाजी को माधवराव की पत्नी के गोद दे दिया जाय और उसे पेशवा बना दिया जाये। किन्तु महादजी के उत्तराधिकारी दौलतराव सिन्धिया ने बाजीराव का पक्ष लिया। चिमाजी इस समय अल्पवयस्क था और उसे पेशवा बनाने से शासन सत्ता नाना के हाथ में ही रहती। नाना ने अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए धर्मशास्त्र तथा सामाजिक नियमों को भी तिलांजलि दे दी। चिमाजी, माधवराव के चाचा थे, अतः माधवराव की पत्नी यशोदाबाई के श्वसुर थे। इसीलिए श्वसुर को गोद लिया जाना धर्मशास्त्र के विपरीत था। 
थोङे दिनों बाद बाजीराव ने नाना को आश्वासन दिया कि वह नाना को अपना मुख्यमंत्री बना देगा तो नाना ने बाजीराव का पक्ष ग्रहण कर लिया। सिन्धिया इस कार्यवाही से क्रुद्ध हो उठा और उसने चिमाजी का पक्ष ग्रहण कर लिया।
वस्तुतः नाना ने अपने पद पर कार्य करते हुए नौ करोङ रुपये की संपत्ति एकत्रित करली थी, जिसकी वह किसी तरह रक्षा करना चाहता था। पेशवा बनने के बाद बाजीराव ने अपने वचन को भंग करते हुए 1797 के अंत में नाना को बंदी बना लिया, किन्तु 1798 में उसे छोङ दिया। इस समय नाना का स्वास्थ्य ठीक नहीं था और धीरे-धीरे उसका चलना-फिरना भी बंद हो गया। अंत में 13 मार्च, 1800 को नाना की मृत्यु हो गयी।

जब 1689 में शिवाजी के पुत्र और उत्तराधिकारी शंभूजी को मुगल सेवाओं ने हरा कर मार दिया और उनके पुत्र शाहू को बंदी बना लिया तो यह औरंगजेब की विशेष सफलता थी। मराठा हार तो गए परंतु निर्जीव नहीं हुए। समस्त मराठा जनता मुगलों के विरुद्ध युद्ध में जुट गई और यह सर्वसाधारण का युद्ध बन गया। 
शिवाजी का छोटा पुत्र राजाराम यह युद्ध अपनी मृत्युपर्यन्त (1700 तक) लङता रहा और उसके बाद उसकी विधवा ताराबाई ने अपने अल्पव्यस्क पुत्र शिवाजी के अभिभावक होने के नाते, यह युद्ध जारी रखा और औरंगजेब का कङा विरोध किया। 

1707 के बाद मुगल राज्य की शिथिलताओं ने मराठों को अवसर दिया। शाहू पुनः महाराष्ट्र में लौट आया। मराठों में नई स्फूर्ति आ गयी। 18 वीं शताब्दी के प्रथम चरणों में मराठों का दक्षिण और उत्तर की ओर दोनों दिशाओं में प्रसार हुआ। मराठों का हिन्दू राष्ट्र का स्वप्न साकार होने लगा। इस नवीन मराठा साम्राज्यवाद के प्रवर्तक पेशवा लोग थे जो छत्रपति शाहू के पैतृक प्रधान मंत्री थे।

बालाजी विश्वनाथ (Balaji Vishwanath)(1713-20)

बालाजी विश्वनाथ कोंकण के एक ब्राह्मण कुल से थे जो आज भी अपनी बुद्धि और प्रतिभा के लिये प्रसिद्ध है। उनके पूर्वज जंजीरा राज्य में श्रीवर्धन के वंशानुगत कर संग्रहकर्त्ता थे। बालाजी विश्वनाथ के अंगरियों से, जो जंजीरा(जंजीरा के सिद्दी और कोलाबा के अंगरिया लोग भारत के पश्चिमी तट पर दो समुद्री शक्तियां थी। सिद्दी लोग सैयद से बिगङा शब्द प्रारंभ में हबश से आए नाविक थे जिन्होंने अहमद नगर के सुलतान के अधीन नौकरी कर ली थी। मुगलों का अहमद नगर को जीतने और मराठा राज्य के शिवाजी के बाद पतन के कारण सिद्दियों की शक्ति को बल मिला। जंजीरा के द्वीप से ये लोग समुद्री लुटेरों का काम करते रहे। 

अंगरिया लोग पश्चिमी तट पर मराठा नौ सेना के संरक्षक के रूप में कार्य करते थे।) के सिद्दियों के शत्रु थे, संबंधों के कारण इनका सिद्दियों से झगङा हो गया और उन्हें देश छोङ कर सासवाङ में बसना पङा। बालाजी के कर संबंधी ज्ञान के कारण उन्हें मराठों के अधीन कार्य करने का अवसर मिला। 1696 में वह पूना के सभासद थे। कालान्तर में वह पूरे पूना के (1699-1702) और फिर दौलताबाद के (1704-7) सर सूबेदार रहे। 

1699 से 1704 तक औरंगजेब पूना में और खेङ में पङाव डाले बैठा रहा, परंतु उन्होंने बालाजी विश्वनाथ को कुछ नहीं कहा। संभवतः वह औरंगजेब के लिये रसद जुटाने में लगे थे। औरंगजेब के उत्तराधिकारी बहादुरशाह ने शाहू को इस आशा से मुक्त कर दिया कि उसके महाराष्ट्र में पहुंचने पर वहां गृहयुद्ध छिङ जाएगा। औरंगजेब जब तक दक्षिण में रहा शाहू उसकी कैद में उसके साथ ही था। संभवतः बालाजी विश्वनाथ ने शाहू से उन्हीं दिनों कुछ तालमेल स्थापित किया। 1705 में विश्वनाथ ने प्रच्छन्नरूप से शाहू को स्वतंत्र कराने का प्रयत्न भी किया।

शाहू को राजकुमार आजम ने 1707 में मुक्त कर दिया। तुरंत गृहयुद्ध आरंभ हो गया। शाहू की चाची ताराबाई ने शाहू को झूठा दावेदार बतलाया और अपने पुत्र के लिए सतारा की गद्दी प्राप्त करने का प्रयत्न किया। अक्टूबर 1707 में खेङ में ताराबाई और शाहू के बीच गृहयुद्ध हुआ। बालाजी ने शाहू का साथ दिया और अपनी कूटनीति से ताराबाई के सेनापति धन्नाजी को अपनी ओर मिला लिया और मैदान मार लिया। 1708 में धन्नाजी की मृत्यु हो गयी और शाहू ने उसके पुत्र चंद्रसेन को अपना सेनापति नियुक्त कर लिया। 

चंद्रसेन का झुकाव ताराबाई की ओर था। शाहू ने चंद्रसेन के संभावित विश्वासघात से बचने के लिये एक नया पद सेनाकर्तें (सेना को संगठित करने वाला) बना दिया और बालाजी को उस पद पर नियुक्त कर दिया।
1712 में शाहू का भाग्य निम्नतम स्तरो पर था। चंद्रसेन ताराबाई से जा मिला। सीमा रक्षक कान्होंजी आंगङे ने स्पष्ट रूप से ताराबाई का समर्थन किया और शाहू और उसके पेशवा बहिरोपंत पिंगले को बंदी बना लिया और सतारा की ओर प्रस्थान की धमकी दी। 

दिल्ली में शाहू के समर्थक जुलफिकार खां का गुटबंदी के झगङों में वध कर दिया गया था। ऐसे आङे समय में बालाजी शाहू के काम आया। उसने अपनी कूटनीति से न केवल सिंहासन को बचाया अपितु चंद्रसेन जादव को हराया। फिर उसने ताराबाई के समर्थकों में फूट डलवा दी। सबसे प्रमुख बात यह थी कि उन्होंने कान्होंजी आंगङे को बिना युद्ध के शाहू की ओर मिला लिया। एक ओर उन्होंने सिद्दियों,अंग्रेजों और पुर्तगालियों की शत्रुता का दबाव डाला और दूसरी ओर कान्होजी की राष्ट्रीयता को ललकारा कि मराठा राज्य शिवाजी की सब से महान देन है। और प्रत्येक मराठा को इसकी रक्षा तथा बनाए रखने के लिए प्रयत्न करना चाहिए।

सत्ता के लिये राजनीति के युद्ध में 1713 में फर्रुखसीयर सैयद बंधु हुसैन अली और अब्दुल्ला खां की सहायता से सिंहासन पर बैठ गया। शीघ्र ही दोनों में विरोध उत्पन्न हो गया और दरबार एक बार पुनः षङ्यंत्रों का केन्द्र बन गया। सम्राट ने मुख्य सेनापति हुसैन अली से मुक्ति पाने की इच्छा से उसे दक्षिण का वाइसराय नियुक्त कर दिया और दूसरी ओर गुजरात के गवर्नर दाऊद खां और शाहू को इसके विरुद्ध युद्ध करने और उसे समाप्त करने के लिए प्रेरित किया। सम्राट का यह उद्देश्य सैयद बंधुओं को विदित था।

1717 में अब्दुल्ला खां की दरबार में स्थिति इतनी बिगङ गयी कि वह हुसैन अली को बुलाने पर बाध्य हो गया। दूसरी ओर हुसैन अली ने यह अनुभव किया कि यदि उसे दक्षिण में अनुपस्थित रहना है तो वह मराठों से शत्रुता नहीं रख सकता।सैयद बंधुओं को मराठों और दरबारी षङ्यंत्रों के बीच पिस जाने का भय था अतः हुसैन अली ने दिल्ली की ओर प्रस्थान करने से पूर्व मराठों से मित्रता करने की सोची। शाहू अपनी माता तथा भाई को जो दिल्ली में बधक थे, मुक्त करवाना चाहता था, तुरंत इस मित्रता के लिये तैयार हो गया। संधि की शर्तें बनाई गई और मसविदा सम्राट की अनुमति के लिए दिल्ली भेज दिया गया। मुख्य शर्तें निम्नलिखित थी-

शाहू को शिवाजी का स्वरूप पूर्णरूपेण अधिकार में मिलेगा।
खानदेश,बराङ,गोंडवाना,हैदराबाद और कर्नाटक के वे सभी क्षेत्र जो मराठों ने पिछले दिनों विजय कर लिये थे, शाहू को मराठा राज्य के भाग के रूप में मिल जायेंगे।

मराठों का दक्कन में मुगल प्रान्तों से चौथ तथा सरदेशमुखी प्राप्त करने का अधिकार होगा। उसके प्रतिकार के रूप में मराठे 15,000 सैनिक सम्राट की सेवा के लिये देंगे तथा दक्कन में शांति बनाए रखेंगे। प्रतिकार के रूप में मराठे 15,000 सैनिक सम्राट की सेवा के लिए देंगे तथा दक्कन में शांति बनाए रखेंगे।
शाहू कोल्हापुर के शंभूजी को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाएगा।
शाहू सम्राट को 10 लाख रुपया वार्षिक का कर या खिराज देगा।
मुगल सम्राट शाहू की माता तथा अन्य संबंधियों को छोङ देगा।

अतएव बालाजी विश्वनाथ ने 15,000 सैनिकों समेत हुसैन अली के संग दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। इन सैनिकों की सहायता से सैयद बंधुओं ने सम्राट फर्रुखसीयर को सिंहासन से उतार दिया तथा अगले सम्राट रफी-उद्द-रजात ने इस संधि को स्वीकार कर लिया।

रिचर्ड टेम्पल ने इस संधि को मराठा साम्राज्य के मैगनाकार्टा की संज्ञा दी है। मुगल सम्राट अकबर दक्कन के छः प्रांतों से चौथ तथा सरदेशमुखी की मांग को नहीं ठुकरा सकते थे। वास्तव में चौथ का देना इस तथ्य का द्योतक था कि मुगलों की स्थिति मराठों की तुलना में क्षीण हो गयी थी। मराठों ने मुगलों की कमर तोङ दी थी और मुगलों की दक्कन की आय का चौथा भाग उन्हें मिलने लगा। इससे तथा शाहू के राज्य पर अधिकार को मान्यता मिलने से महाराष्ट्र में उसका मान बढ गया। 

वह मराठों का पूर्णरूपेण नेता बन गया। शंभूजी की आकांक्षाओं पर पानी फिर गया। अब निश्चय ही आकाश में एक नया तारा चमक रहा था।
दिल्ली से लौटने पर बालाजी का अंतिम कार्य कोल्हापुर के विरुद्ध सैनिक अभियान था। शंभूजी उसकी अनुपस्थिति में अनेक कठिनाइयां उत्पन्न करने का प्रयत्न कर रहे थे। विश्वनाथ का 2 अप्रैल, 1720 को देहावसान हो गया।

बालाजी विश्वनाथ का मूल्यांकन

बालाजी स्वनिर्मित व्यक्ति थे। शून्य से चल कर वह पेशवा बन गए। आज उनका स्मरण एक वीर योद्धा के रूप में ही नहीं अपितु राजनीतिज्ञ और राजमर्मज्ञ के रूप में किया जाता है। वह मराठा राजनीति की गहनता को समझते थे और इसी कारण उन्होंने ताराबाई अथवा यशुबाई को छोङकर शाहू को अपनाया। अपनी कूटनीति के कारण उन्होंने धन्नाजी यादव, खांडे राव दहबाङे, परशोजी तथा सबसे प्रमुख कान्होजी आंगङे को शाहू की ओर मिला लिया। अपनी कूटनीति से उन्होंने देश को गृहयुद्ध से बचाया तथा माधाजी कृष्ण जोशी जैसे साहूकारों की सहायता से शाहू को अपनी वित्तीय कठिनाइयों से छुटकारा दिलाया। उसके सैयद बंधुओं के सौदे के कारण राज्य को 30 लाख रुपया मिला और नियमित रूप से 35 प्रतिशत वार्षिक कर, चौथ तथा सरदेशमुखी के रूप में मिलने लगा। युद्धपीङित देश में शांति स्थापित कर मराठों की शक्ति को साम्राज्य के गठन में लगाया।

बाजीराव प्रथम (Bajirao I) (1720-40)

1720 में शाहू ने बालाजी विश्वनाथ के बङे पुत्र बाजीराव प्रथम को पेशवा नियुक्त कर दिया। यद्यपि वह केवल 19 वर्ष का युवक था परंतु उसकी सूझबूझ अद्भुत थी। उसे अपने पिता से कूटनीति तथा प्रशासन में बहुत प्रशिक्षण प्राप्त था।

बाजीराव के सम्मुख कार्य बहुत कठिन था। दक्षिण के निजाम उसके चौथ तथा सरदेशमुखी प्राप्त करने के अधिकार को चुनौती दे रहा था। स्वराज्य का एक बङा भाग जंजीरा के सिद्दियों के अधीन था। शिवाजी के वंशज कोल्हापुर के शंभूजी, शाहू की सर्वोच्च सत्ता का स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे तथा अन्य मराठा सरदार स्वायत्तता प्राप्त करना चाहते थे। 

बाजीराव ने एक सफल खिलाङी की तरह इन सब गुत्थियों को सुलझा लिया। उसकने दक्कन में अपनी सर्वोच्चता पुनः स्थापित कर ली और उत्तर विजय की योजना बनाई। उसने मुगल साम्राज्य के भावी पतन से मराठों के लिये लाभ उठाने का निश्चय किया और शाहू को इन शब्दों में ललकाराः अब समय आ गया है कि हम विदेशियों को भारत से निकाल दें और हिन्दुओं के लिये अमर कीर्ति प्राप्त कर लें। आओ हम इस पुराने वृक्ष के खोखले तने पर प्रहार करें, शाखाएं तो स्वयं ही गिर जाएंगी। हमारे प्रयत्नों से मराठा पताका कृष्णा नदी से अटक तक फहराने लगेगी।

शाहू इस तरुण पेशवा की ललकार से अति प्रभावित हुए और बोले, नहीं, आप निश्चय ही इसे हिमालय के पार गाङ देंगे। आप सत्य ही योग्य पिता के योग्य पुत्र हैं। 
बाजीराव ने हिन्दू पद पादशाही के आदर्श का प्रचार किया और इसे लोकप्रिय बनाया ताकि अन्य हिन्दू राजे इस योजना में मुगलों के विरुद्ध इनका पक्ष लें और साथ दें।

निजाम से संबंध

आसफजाह निजामुलमुल्क जो 1713-15 और 1720-21 तक दक्कन का वाइसराय रह चुका था, 1724 में पुनः दक्कन में आ विराजमान हुआ। चूंकि वह स्वयं एक स्वायत्त राज्य बनाना चाहता था, वह मराठों से ईर्ष्या करता था। उसने इस प्रश्न को हल करने के लिये कूटनीति अपनाई। यह जानते हुए कि वह मराठों के देश में जीत नहीं सकता उसने कोल्हापुर गुट को प्रोत्साहित कर मराठों के बीच फूट डलवाने का प्रयत्न किया। जब 1725-26 में बाजीराव कर्नाटक गया हुआ था, तो उसने शंभूजी की सैनिक सहायता की और शाहू को अपनी अधीनता स्वीकार कराने में लगभग सफलता प्राप्त की। 

परंतु पेशवा ने लौट कर इस बिगङी परिस्थिति को संभाल लिया और 7 मार्च, 1728 को पालखेङ के समीप निजाम को करारी हार दी। उसे मुंगी शिवागांव की संधि मानने को बाध्य कर दिया जिसके अनुसार निजाम ने शाहू को चौथ कर सरदेशमुखी देना, शंभूजी को सहायता न देना, विजित प्रदेश लौटाना तथा बंदी छोङ देना स्वीकार किया।

निजाम की इस हार से दक्कन में मराठों की सर्वोच्चता स्थापित हो गयी और उनका पूर्व तथा दक्षिण में प्रसार करना अब केवल समय का प्रश्न था। शंभूजी के षङयंत्र असफल हो गए और अंत में उसने वारना की संधि (अप्रैल, 1731) से शाहू की अधीनता स्वीकार कर ली। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि इससे सब लोग बाजीराव की कूटनीति तथा सैनिक नेतृत्व का लोहा मान गए और उन्हें अपने स्वप्न साकार करने की प्रेरणा मिली।

गुजरात तथा मालवा विजय

1573 में अकबर की गुजरात विजय के पूर्व ही गुजरात भारत तथा पश्चिमी एशिया तथा पूर्वी अफ्रीका के बीच व्यापार का प्रमुख केन्द्र बन गया था। 1705 में खाण्डेराव दहाङे के नेतृत्व में मराठों ने गुजरात पर एक धावा किया था। सैयद हुसैन अली और विश्वनाथ के बीच हुई बातचीत में मराठों ने गुजरात से भी चौथ प्राप्त करने का अधिकार मांगा था परंतु वे असफल रहे थे। इसके बाद मराठों ने गुजरात पर अनेक अभियान किए तथा कई जिलों से चौथ ली। 

मुगल शासन लुप्तप्रायः हो गया था। 1730 के मार्च मास में मुगल सूबेदार सरबुलंद खां ने बाजीराव के छोटे भाई चिमनजी के साथ संधि की, जिसमें मराठों का चौथ तथा सरदेशमुखी प्राप्त करने का अधिकार स्वीकार कर लिया गया था। परंतु मुगल अधिकार की अंतिम कङी 1753 तक नहीं टूटी।
मालवा उत्तर भारत तथा दक्कन को जोङने वाली एक कङी थी। दक्कन तथा गुजरात को जाने वाले व्यापार मार्ग यहां से गुजरते थे। मराठों ने महाराष्ट्र में मुगलों के आक्रमणों के प्रतिकार के रूप में मालवा पर 18 वीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में आक्रमण करने आरंभ कर दिए थे। 

बालाजी विश्वनाथ ने 1719 में मालवा से चौथ इत्यादि प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त करने का असफल प्रयत्न किया था। जो कूटनीति तथा बातचीत द्वारा प्राप्त नहीं हो सका वह बाजीराव ने बाहुबल से प्राप्त करने का प्रयत्न किया। ऊदाजी पवार तथा मल्हारराव होल्कर ने आक्रमणों से मुगल सत्ता की जङे उखाङ डाली। सवाई जयसिंह, मुहम्मद खां बंगया तथा जयसिंह जैसे मुगल सूबेदार मराठों के आक्रमणों को रोकने में असफल रहे और 1735 में पेशवा स्वयं उत्तर की ओर बढे। मालवा पर मुगलों की सत्ता लुप्तप्राय हो गयी थी।

बुंदेलखंड की विजय

बुन्देले राजपूतों का एक कुल थे। वे मालवा के पूर्व में यमुना तथा नर्मदा के बीच पहाङी प्रदेश में राज्य करते थे। उन्होंने अकबर, जहांगीर तथा औरंगजेब का डट कर विरोध किया था। बुन्देलखंड इलाहाबाद की सूबेदारी में था। जब मुहम्मद खां बंगश इलाहाबाद का सूबेदार नियुक्त हुआ तो उन्होंने बुन्देलों को समाप्त करने की ठानी। उन्हें कुछ सफलता मिली और उन्होंने जैतपुर जीत लिया। बुन्देल नरेश छत्रसाल ने मराठा सेना की सहायता मांगी। 1728 में मराठों ने बुंदेलखंड के सभी विजित प्रदेश मुगलों से वापिस छीन लिए। कृतज्ञ छत्रसाल ने पेशवा की शान में एक दरबार का आयोजन किया तथा काल्पी, सागर, झांसी तथा ह्रदयनगर पेशवा को निजी जागीर के रूप में भेंट की। 

दिल्ली पर आक्रमण तथा भोपाल का युद्ध

उत्तरी बुंदेलखंड पर आक्रमणों में मल्हारराव होल्कर के अधीन एक मराठी टुकङी ने यमुना नदी पार की थी तथा अवध पर आक्रमण कर दिया। सआदत खां की बहुसंख्यक घुङसवार सेना के कारण उन्हें लौटना पङा। सआदत खां ने इसका एक अत्यन्त अतिशयोक्ति पूर्ण विवरण मुगल सम्राट को भेज दिया। पेशवा ने सम्राट को मराठा शक्ति की एक झलक दिखाने के लिए दिल्ली पर आक्रमण कर दिया। केवल 500 सवारों के साथ, जाटों तथा मेवातियों के प्रदेश को विद्युत गति से लांघता हुआ, बाजीराव दिल्ली पहुंचा (29 मार्च, 1737)। मुगल सम्राट ने दिल्ली से भागने की तैयारी कर ली। 

बाजीराव दिल्ली केवल 3 दिन ठहरा। परंतु सआदत खां और मुगल सम्राट के खोखलेपन का स्पष्ट प्रदर्शन हो गया।
ऐसे समय में जब मुगल सम्राट मराठों को अतिरिक्त रियायतें देने की सोच रहा था, निजाम ने सम्राट को उबारने का प्रयत्न किया। निजाम पहले ही मराठों की सैनिक शक्ति, चौथ इत्यादि प्राप्त करने से दुःखी था और उसने भोपाल में मराठों से टक्कर ली, हार खाई तथा संधि करने पर बाध्य हुआ। परिणामस्वरूप निजाम ने पेशवा, को सम्राट से मालवा दिलवाने का वचन दिया। इसके अलावा चंबल तथा नर्मदा के बीच के प्रदेशों पर पूर्ण मराठा अधिकार स्वीकार किया जिसकी पुष्टि सम्राट से होनी थी तथा 50 लाख रुपया युद्ध की क्षति पूर्ति के लिए भी दिए।
इस प्रकार मराठों को मालवा मिला, निजाम को पूर्णरूपेण नीचा देखना पङा तथा मराठा शक्ति की सर्वोच्चता स्वीकार करवा ली गयी। मुख्य बात यह कि उत्तर में मराठा शक्ति का उदय हुआ।

बाजीराव का मूल्यांकन 
बाजीराव एक महान योद्धा,राजनीतिज्ञ, राजमर्मज्ञ तथा राज्य निर्माता थे। वास्तव में वह एक कर्मठ व्यक्ति तथा पूर्ण योद्धा थे। अपने पेशवा काल के बीस वर्षों तक वे गतिशील ही रहे। बढे चले जा रहे हैं और युद्ध जीत रहे हैं। उन्हें लोग लङाकू पेशवा के रूप में ही स्मरण करते हैं। सत्य ही वह शक्ति का अवतार थे। वह तोपखाने के क्षेत्र में मराठों की कमजोरी को जानते थे और इसीलिए वह शत्रु के सन्मुख आकर युद्ध कम करते थे। प्रायः शत्रु की रसद तथा संभरण काट देते और उसे झुकाने में सफल हो जाते थे। 

पालखेङ तथा भोपाल में उन्होंने इसी नीति को अपनाया। उसकी सेना की प्रमुख विशेषता थी गतिशीलता तथा तीव्रगति। 1737 में दिल्ली पर हल्ला एक आश्चर्यजनक घटना थी। वह एक सफल सैनिक, महान नेता तथा सामरिक नीतिज्ञ थे। वह अपने आक्रमणों की योजना बहुत ही ध्यानपूर्वक बनाते। जिस प्रकार उन्होंने निजाम को दो बार अपने चंगुल में फंसा कर हराया वह उनकी अद्भुत विशेषता को दर्शाता है।
वह जन्मजात नेता थे। गुणपारखी थे। 

यह उन्ही की क्षमता थी कि उन्होंने सिंधिया, होल्कर, पंवार, रेत्रेकर, फङके जैसे नेताओं को खोज निकाला। एक बार वह अपना चयन कर लेते थे और फिर उस पर पूर्ण विश्वास रखते थे। जिससे वे व्यक्ति और भी कर्तव्यपरायण बनने का प्रयत्न करते। उन्होंने जाट, राजपूत, बुन्देलों तथा अन्य हिन्दू तत्वों की मुगल विरोधी भावनाओं से लाभ उठाया। सवाई जयसिंह तथा छत्रसाल की मित्रता से उन्हें बहुत लाभ हुआ।
बाजीराव ने वृहद महाराष्ट्र की नींव डाली। राव बहादुर जी.एस.सरदेसाई लिखते हैं - अब शाहू एक छोटे से राज्य को राजा नहीं थे जिनके आधीन एक भाषाभाषी लोग रहते थे, जैसा कि उनके पिता अथवा पितामह के काल में था। 

अब वह दूर-दूर तक विस्तृत तथा भिन्न प्रदेशों के महाराजा थे। मराठों का राज्य अब अरब सागर से बंगाल की खाङी तक फैला था और भारतीय रेखाचित्र पर स्थान-स्थान पर मराठा शक्ति के केन्द्र थे। भारतीय शक्ति का केन्द्र-बिन्दु अब दिल्ली नहीं पूना बन गया था।

डाक्टर वी.जी.दीघे, जिन्होंने बाजीराव तथा मराठा शक्ति के प्रसार का विशेष अध्ययन किया है, बाजीराव की अदूरदर्शिता के विषय में लिखते हैं उन्होंने राजनैतिक संस्थाओं को सुधारने का कोई प्रयत्न नहीं किया जिससे जनता को स्थाई लाभ होता। मराठों में सामंतवाद की जो भावना शिवाजी की मृत्यु के बाद उभरी, उसे उन्होंने नहीं रोका अपितु वह स्वयं ही अपने समय के सबसे महान सामंत बन गए। इस प्रथा की हानियां तभी प्रत्यक्ष में आई जब मराठा शक्ति भारत से दूर-दूर तक फैल गई। परंतु दूसरी ओर सर जे.एन.सरकार बाजीराव को रचनात्मक पूर्व दृष्टि रखने वाला मानते हैं। 

वह लिखते हैं यदि सर राबर्ट वालपोल ने इंग्लैण्ड के प्रधान मंत्री पद को अप्रतिरोध्य संत्ता का केन्द्र बना दिया तो ठीक उसी समय में, ठीक उसी प्रकार बाजीराव ने ऐसी ही सत्ता का केन्द्र मराठा राज्य में भी बना दिया। ऐसा लगता है कि डाक्टर दीघे कुछ कङे आलोचक हैं। विघटन की जो शक्तियां सामने आई वे बाजीराव के उत्तराधिकारियों के कारण थी और संभवतः के समकालीन स्थिति में निहित थी। वह हिन्दू राष्ट्र की भावना का अडिग रूप से अनुसरण करते रहे।


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