राजसमंद – उदयपुर से लगभग 42 मील उत्तर में तथा कांकरोली रेलवे स्टेशन से 5 मील की दूरी पर स्थित राजसमंद एवं कृत्रिम झील है, जो राजस्थान में जलाशय वास्तुकला का सर्वश्रेष्ठ नमूना है। इसका निर्माण मेवाङ के महाराणा राजसिंह (1652-1680 ई.) ने करवाया था।
राजनगर के निकट दो पहाङियों के मध्य बहने वाली गोमती नदी के पानी को रोककर यह झील बनवायी गयी है। इसका निर्माण वि.सं. 1718 माघ बदी 7 को प्रारंभ हुआ और माघ सुदी 9, वि.सं. 1732 को इसकी प्रतिष्ठा हुई। बाँध के नौ चौकी नामक स्थान पर 25 बङी-बङी शिलाओं पर 25 सर्गों (अध्याय) में राजप्रशस्ति महाकाव्य उत्कीर्ण करवाया। इस महाकाव्य की रचना तैलंग ब्राह्मण रणछोङ भट्ट ने की थी।
धनुषाकृति में निर्मित यह बाँध लगभग तीन मील लंबा और डेढ मील चौङा है। संपूर्ण बाँध पर राजनगर की खानों में उपलब्ध संगमरमर के पत्थर का प्रयोग किया गया है। मध्य में तोरण द्वार बना हुआ है, जिसके निर्माण में देवालय तोरण निर्माण शैली का अनुकरण किया गया है।
तोरण त्रिकोणाकृति में बना हुआ है। तोरण द्वार के दोनों वर्गाकार स्तंभ पूर्णरूप से अलंकृत हैं। तोरण द्वार के पास के हिस्से को नौ चौकी कहा जाता है, क्योंकि बाँध के नीचे वाले तीन बङे चबूतरों पर तीन-तीन छतरियों वाले मंडप बने हुए हैं, जिनका योग नौ होता है। मंडपों की बनावट वैसी ही है जैसी किसी समाधि छतरी की होती है किन्तु इन पर शिखर या गुम्बद नहीं हैं।
मंडपों के खंभों पर पशु-पक्षी, पत्र-पुष्प, मंगल घट तथा स्री की मूर्तियाँ हिन्दू शैली के अनुरूप बङे बङे रोचक ढंस से खोदी गयी हैं। किन्तु यहाँ जालियाँ तथा बेल-बूटों के अलंकरण मुगल शैली के हैं। शीर्षपटों पर सूर्य, ब्रह्म, इन्द्र, इन्द्राणी, पार्षद, गन्धर्व, नर्तकी मंडली आदि की प्रतिमाएँ कलात्मक ढंग से उत्कीर्ण हैं।
स्री मूर्तियों के वस्र मेवाङी ढंग के हैं जबकि आभूषण मुगलकालीन हैं। वर्गाकार छत के केन्द्र में शतदल कमल की आकृति उभारी गयी है और साथ ही गोलाकृति में कृष्णलीला प्रदर्शित है। मंडपों की छत पूर्णतया अलंकृत है।
बाँध के ऊपरी भाग पर बने चबूतरों के किनारों पर खोदे गये स्थर तत्कालीन जन जीवन की झाँकियाँ प्रस्तुत करते हैं। तीसरे मंडप के सामने वाले चबूतरे के स्थर पर पशु पक्षियों का उत्कीर्ण चित्रण मुगल शैली पर आधारित है। एक अन्य चबूतरे के स्थर में पौराणिक कथाओं के दृश्य उत्कीर्ण हैं।
मारीच-वध वाले खंड में राम लक्ष्मण की पोशाक मुगलों जैसी है, किन्तु गोवर्द्धन धारण की ग्वाल – ग्वालिनियों की पोशाक मेवाङी है। एक अन्य चबूतरे के स्थर पर ससुराल जाती हुई नव वधु का उत्कीर्ण चित्र अत्यन्त सजीव और वास्तविक दिखाई देता है। इसके बाद एक दृश्य में एक सामंत को अपने दरबारियों के साथ ऊँची कुर्सी पर बैठा दिखाया गया है। और सामने एक नर्तकी झीने कपङे पहने हुए नृत्य कर रही है और उसके अन्य साथी पास खङे-खङे वाद्य बजा रहे हैं। एक अन्य दृश्य में पशु-युद्धों को दर्शाया गया है। इस प्रकार मंडपों, छतों, स्तंभों व चबूतरों के स्थर को पूर्णतया अलंकृत किया गया है।
राजसमंद की तक्षण कला केवल मध्ययुगीन स्थापत्य कला का श्रेष्ठ नमूना ही नहीं है, बल्कि 17 वीं शताब्दी के जन-जीवन की उत्कृष्ट झाँकी भी प्रस्तुत करती है। बाँध की ताकों में लगी हुई प्रशस्तियों से तत्कालीन समाज एवं संस्कृति की जानकारी उपलब्ध होती है।
References : 1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास