इतिहासराजस्थान का इतिहास

ऐतिहासिक राजस्थानी साहित्य

राजस्थानी साहित्य
राजस्थानी साहित्य

साहित्य की रचना भारत की प्राचीन परंपरा रही है और राजस्थान भी इस दिशा में पीछे नहीं रहा है। संस्कृत, राजस्थानी और हिन्दी भाषा में अनेकानेक रचनाएँ उपलब्ध होती हैं जो अपने समय की राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जन जीवन की व्यापक जानकारी देती हैं। इसमें भी जो ऐतिहासिक साहित्य है उसे हम कई भागों में बाँट सकते हैं

  • संस्कृत साहित्य,
  • राजस्थानी साहित्य
  • हिन्दी साहित्य
  • फारसी साहित्य
  • विदेशी साहित्य

संस्कृत भाषा में रचित ग्रंथों से हमें महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक जानकारी उपलब्ध होती है। जयानक द्वारा रचित पृथ्वीराज विजय से हमें चौहान शासकों के अंतर्गत अजमेर के साम्राज्य विस्तार के साथ-साथ पृथ्वीराज चौहान की विजयों की जानकारी मिलती है। कुम्भा द्वारा रचित नृत्य रत्नकोष से हमें भारतीय नृत्य तथा नृत्य कक्षों की जानकारी मिलती है।

कुम्भा के प्रमुख शिल्पी मंडन द्वारा रचित राज वल्लभ नामक ग्रंथ से मेवाङ के शासकों की वंशावली का ज्ञान होता है। इस ग्रंथ से पता चलता है, कि मध्यकाल के प्रारंभ में मेवाङ को मेदपाट और हाङौती को हाडावती कहा जाता था। इसमें तत्कालीन वर्ण-व्यवस्था एवं आश्रम-व्यवस्था का भी उल्लेख है।

15 वीं सदी में रचित भट्टिकाव्य के द्वारा हमें उस समय के जैसलमेर राज्य के विस्तार, जैसलमेर और लाद्रापुरी के निर्माण तथा शासकों की उपलब्धियों के बारे में जानकारी मिलती है। बीकानेर नरेश कल्याणमल के आदेश से सदाशिव द्वारा रचित राज विनोद नामक ग्रंथ से हमें बीकानेरवासियों के रहन-सहन, रीति-रिवाज, आमोद-प्रमोद आदि की जानकारी तो मिलती ही है, साथ ही सैनिक एवं आर्थिक स्थिति की भी पर्याप्त जानकारी मिलती है।

बीकानेर के मंत्री करमचंद द्वारा रचित वंशोत्कीर्तनकाव्यम् में बीकनेर राज्य के विस्तार, बीकानेर राज्य का वर्णन, दान पुण्य संबंधी संस्थाओं एवं दशहरे आदि के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। राजनीतिक इतिहास के अमरसार के अध्ययन से हमें महाराणा प्रताप, अमरसिंह प्रथम और कर्णसिंह के शासनकालों की महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।

राजनीतिक इतिहास के अलावा इस ग्रंथ से हमें उस युग में प्रचलित विभिन्न मिठाइयों, दास प्रथा, सैनिकों की वेश-भूषा, मल्ल-युद्धों, जानवरों की लङाइयों आदि के बारे में भी जानकारी मिलती है। रघुनाथ द्वारा रचित जगतसिंह काव्य में महाराणा जगतसिंह प्रथम की उपलब्धियों का उल्लेख है।

राज प्रशस्ति के लेखक रणछोङ भट्ट द्वारा रचित अमर काव्य वंशावली में बापा से लेकर राणा राजसिंह तक का मेवाङ का इतिहास मिलता है। इसमें जौहर तथा दीपावली का विस्तृत विवरण भी है। सदाशिव द्वारा रचित रत्नाकर भी महाराणा राजसिंह तक मेवाङ के राजनीतिक इतिहास की जानकारी देता है। महाराणा राजसिंह की सांस्कृतिक उपलब्धियों की जानकारी के लिये यह ग्रंथ बहुत अधिक उपयोगी है। जोधपुर नरेश अजीतसिंह के दरबारी कवि जगजीवन भट्ट द्वारा रचित अजितोदय मारवाङ के इतिहास की रचना के लिये एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।

इस ग्रन्थ में महाराजा जसवंतसिंह और अजीतसिंह के समय के युद्धों, संधियों, विजयों और राजनीतिक उपलब्धियों के साथ-साथ उस समय में प्रचलित रीति-रिवाजों और परंपराओं की भी जानकारी मिलती है। नयचंद्र सूरि द्वारा रचित हम्मीर महाकाव्य एक उच्च कोटि का राष्ट्रकाव्य है। इससे हमें चाहमाणों की वंशावली, समय-समय पर किये गये मुस्लिम आक्रमणों का प्रतिरोध आदि की जानकारी मिलती है।

इसमें चाहमाणों के मूल निवास स्थान शाकंभरी, सपादलक्ष देश और अजमेर नगर आदि की स्थापना संबंधी बातों का भी उल्लेख मिलता है। अलाउद्दीन खिलजी के रणथंभौर अभियान के बारे में यह ग्रंथ विस्तृत जानकारी देता है। इसी प्रकार अन्य बहुत सी रचनाओं से हमें उस युग के राजपूत राज्यों के बारे में विविध प्रकार की जानकारी मिलती है।

राजस्थानी साहित्य

राजस्थानी भाषा का साहित्य प्राचीन एवं समृद्ध है। नवीं शताब्दी से ही राजस्थानी भाषा की रचनाएँ उपलब्ध होती हैं जिनमें रासो अधिक लोकप्रिय रहा। 16 वीं शताब्दी के पूर्व लिखे गये रासो साहित्य के अन्तर्गत बीसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो और क्याम खाँ रासो ऐतिहासिक दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं।

रासो साहित्य से हमें तत्कालीन राजपूत राज्यों की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक स्थिति के बारे में उपयोगी जानकारी उपलब्ध होती है।

16 वीं सदी के बाद राजस्थान के ऐतिहासिक गद्य के अनेक रूप देखने को मिलते हैं जैसे कि – ख्यात, वात, वंशावली, पीढियावली, पट्टावली, विगत, हकीकत, हाल, याद, वचनिका आदि। ख्यात इतिहास को कहते हैं। वात में किसी व्यक्ति या जाति या घटना या प्रसंग का संक्षिप्त इतिहास होता है। ख्यात बङी होती है और वात छोटी। वंशावली और पीढियावली में पीढियाँ दी जाती हैं, जिनके साथ में व्यक्तियों का संक्षिप्त या विस्तृत परिचय भी प्रायः रहता है।

पट्टावली में जागीरदारों के पट्टे अर्थात् जागीरों का विवरण रहता है। हकीकत और हाल में किसी घटना या प्रसंग का विस्तृत विवरण होता है। याद याददाश्त को कहते हैं। वचनिका ऐतिसाहिक काव्य होता है।

क ) ख्यात साहित्य

इस समय उपलब्ध ख्यातें 17 वीं शताब्दी से ही आरंभ होती हैं।राजकीय ख्यातों के लेखक राजकीय कर्मचारी, पंचोली आदि लोग थे। पर कई व्यक्तियों ने स्वतंत्र रूप से भी ख्यातें लिखी। नैणसी, दयालदास और बाँकीदास के नाम विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। इनकी ख्यातों का महत्त्व ऐतिहासिक ही नहीं, किन्तु साहित्यिक भी है।

ख्यात के दो प्रकार किये जा सकते हैं 1.) जिसमें लगातार या संलग्न इतिहास हो जैसे – दयालदास की ख्यात 2.) जिसमें अलग-अलग बातों का संग्रह हो, जैसे – नैणसी और बाँकीदास की ख्यात।

मध्यकालीन एवं आधुनिक राजस्थान के विशुद्ध इतिहास के निर्माण में ख्यात साहित्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह ठीक है, कि ख्यातों के अधिकांश लेखक राजाओं के परंपरागत मुसाहिब थे और उनका एकमात्र लक्ष्य अपने शासक की यशोगाथा का वर्णन करना था, फिर भी, राजपूत राज्यों एवं उनके शासकों के बारे में जानकारी पारसी में लिखित ग्रन्थों में नहीं मिलती, वह ख्यात साहित्य में उपलब्ध हो जाती है जिनके माध्यम से विशुद्ध इतिहास की रचना की जा सकती है।

उदाहरणार्थ, मारवाङ नरेश मालदेव और शेरशाह सूरी के मध्य लङे गये युद्ध, जयपुर के मानसिंह और राणा प्रताप की उदयसागर के पाल पर मुलाकात का वर्णन आदि घटनाओं का जितना व्यापक विवरण नैणसी की ख्यात से प्राप्त होता है, उतना अन्य किसी भी साधन में नहीं मिलता।

फिर भी ख्यातों के आधार पर इतिहास का निर्माण करते समय काफी ध्यान रखने की आवश्यकता है, क्योंकि उनमें कई प्रकार की कमियाँ रह गई हैं, जिन्हें अन्य साधनों की सहायता से पूरा करने की जरूरत है। उदाहरणार्थ- i.)ख्यातों में वर्णित बहुत सी तिथियाँ सही नहीं पाई गयी हैं ii.) ख्यातों में वर्णित व्यक्तियों और स्थानों के नामों को लिखने में भी शुद्धता की तरफ विशेष ध्यान नहीं दिया गया iii.) ख्यातों में घटनाओं का विवरण तिथि क्रमानुसार नहीं किया गया है।

iv.)नैणसी के आलावा अन्य किसी ख्यातकार ने अपने ऐतिहासिक स्रोत का उल्लेख नहीं किया है, जिससे उनके द्वारा वर्णित घटना को प्रामाणिक मानने में कठिनाई होती है। फिर भी, ख्यात साहित्य के ऐतिहासिक महत्त्व के कम नहीं किया जा सकता।

कुछ प्रमुख ख्यातों की जानकारी निम्नलिखित है

मुण्डीयार की ख्यात

मुण्डीयार नागौर से 10 मील दूर स्थित है। मारवाङ के राठौङ शासकों ने मुण्डीयार गाँव चारणों को अनुदान में दिया था। उन्हीं ने ख्यात की रचना की। इस ख्यात को राठौङों की ख्यात भी कहा जाता है। ख्यात के लेखक तथा रचनाकाल के बारे में निश्चित जानकारी उपलब्ध नहीं है।

विद्वानों का मानना है, कि यह ख्यात संभवतः जोधपुर नरेश जसवंतसिंह के समय में लिखी गयी होगी क्योंकि इसमें मारवाङ के राठौङ शासकों का राव सिंहा से लेकर महाराजा जसवंतसिंह की मृत्यु तक का विवरण दिया गया है। इस ख्यात में मारवाङ के प्रत्येक राजा का जन्म, राज्याभिषेक और स्वर्गवास का तिथिक्रम दिया गया है। इसके साथ ही प्रत्येक राजा की पत्नियों तथा उनसे उत्पन्न संतानों का भी उल्लेख किया गया है। समय-समय पर मुगल शासकों को ब्याही गई मारवाङ की राजकुमारियों का उल्लेख भी किया गया है।

इस ख्यात से पता चलता है, कि मोटा राजा उदयसिंह ने अकबर के पुत्र सलीम का विवाह अपनी सगी बहन से न करके अपनी दत्तक बहिन के साथ किया था जो इतिहास में जोधाबाई के नाम से प्रसिद्ध है। ख्यात के अनुसार जोधाबाई राजा मालदेव की एक दासी की पुत्री थी। इस ख्यात की एक प्रति सीतामऊ के नटनागर में उपलब्ध है। अन्य ग्रंथों में जोधाबाई को उदयसिंह की पुत्री बतलाया गया है।

नैणसी की ख्यात

बाँकीदास की ख्यात

कविराज बाँकीदास का जन्म भाण्डियावास गाँव में वि.सं. 1838 में हुआ। बाँकीदास एक महान कवि और इतिहासकार थे। अपनी काव्य प्रतिभा से ही उन्होंने एक निर्धन चारण कुल में जन्म लेकर जोधपुर के महाराजा मानसिंह के राज दरबार में सर्वोच्च सम्माननीय आसन प्राप्त किया था।

राजस्थान के पराक्रमहीन राजाओं ने जब बिना युद्ध के ही अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली तो कवि बाँकीदास ने अपने रचनाओं के माध्यम से उन्हें काफी प्रताङित किया। आयो अंगरेज मुलक रे ऊपर शीर्षक का गीत राजस्थान में बहुत प्रसिद्ध हो गया है। इससे बाँकीदास की राष्ट्रीय भावनाओं का पता चलता है।

कवि होने के साथ ही बाँकीदास एक इतिहासकार भी थे। उनकी कृति बाँकीदास री ख्यात राजस्थानी गद्य में लिखी गई है।

नैणसी की भाँति बाँकीदास की ख्यात भी बातों का संग्रह है। उसकी बातें छोटे-छोटे फुटकर नोकरों के रूप में हैं। लेखक को जब भी और जो बात भी नोट करने योग्य मिली, उसने तभी उसे नोट कर लिया। उनमें कोई क्रम नहीं है। क्रम से लगाने पर भी उससे श्रृंखलाबद्ध और संलग्न इतिहास नहीं बनता।

अधिकांश बातें दो-दो अथवा तीन-तीन पंक्तियों की हैं। ख्यात में लगभग 2000 बातों का संग्रह है। वि.सं. 1890 में बाँकीदास का देहांत हो गया था।

बाँकीदास की ख्यात ऐतिहासिक घटनाओं तथा सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति की जानकारी का अपूर्व खजाना है। इसमें जोधपुर और जयपुर की स्थापना का विस्तृत विवरण है, जो अन्य साधनों से भी पुष्ट होता है। उसकी ख्यात में विविध वेशभूषा तथा उस युग में प्रचलित वस्रो, यथा – फूमरी, रूमाल, गुलबंद आदि के नाम भी मिलते हैं।

इसी प्रकार उस युग में प्रचलित आभूषणों, जैसे कि – चूङी, तिमणियों, जुगावली आदि का विवरण भी प्राप्त होता है। बाँकीदास हमें यह जानकारी भी देता है, कि बीकानेर के महाराजा रतनसिंह ने वि.सं. 1885 में गया के पवित्र तीर्थ स्थान पर अपनी प्रमुख सरदारों की बैठक बुलाई थी और उनसे यह प्रण करवाया कि वे भविष्य में अपनी शिशु कन्याओं का वध नहीं करेंगे। बाँकीदास ने राजस्थान के प्रमुख पर्व त्यौंहारों का भी वर्णन किया है।

नैणसी की भाँति उसने भी भौगोलिक स्थानों तथा मार्गों की जानकारी दी। उसने अपने समय में प्रचलित सिक्कों – रुपया, फिरोजशाही, आलमशाही, नौरंगशाही आदि का भी उल्ल्ख किया है। बाँकीदास गंथावली की प्रस्तावना में ओझाजी ने इस ख्यात के संबंध में लिखा है – यह इतिहास का खजाना है। राजपूताना के तमाम राज्यों के इतिहास संबंधी रत्न उसमें भरे पङे हैं। मुसलमानों, जैनों आदि के संबंध की भी बहुत सी बातें हैं।

उनके राज्यों और सरदारों के ठिकानों की वंशावलियाँ भी हैं। अनेक राजाओं के जन्म और मृत्यु के संवत्, मास, पक्ष, तिथि आदि दिये हैं। वस्तुतः राजस्थान का पूर्ण क्रमिक इतिहास तैयार करने में बाँकीदास की ख्यात एक आधार ग्रंथ के रूप में सहायक हो सकती है।

दयालदास की ख्यात

दयालदास सिढायच बीकानेर रतनसिंह (1828-1851 ई.) के विश्वस्त दरबारी थे और महाराजा के आदेश से उन्होंने अपनी ख्यात लिखी थी। इस कार्य के लिये उन्होंने अपलब्ध वंशावलियों एवं पीढियावलियों, पट्टे, बहियों, शाही फरमानों तथा ख्यात साहित्य का अध्ययन मनन किया था। दयालदास की ख्यात दो खंडों में है।

प्रथम खंड में बीकानेर के राठौङों का प्रारंभ से लेकर जोधपुर के राव जोधा तक का विस्तृत विवरण है। दूसरे खंड में राव बीका से लेकर बीकानेर के महाराजा सरदारसिंह के राज्याभिषेक तक का वर्णन है। इस प्रखार यह ख्यात बीकानेर के राठौङ शासकों की उपलब्धियों की यशोगाथा है परंतु प्रसंगवश इसमें जोधपुर के राठौङों का भी उल्लेख मिलता है।

नैणसी और बाँकीदास की ख्यातों के विपरीत यह संलग्न अथवा लगातार इतिहास है। इसमें बातों का संग्रह मात्र नहीं है। विद्वानों का मानना है कि दयालदास ने अपने समय की जिन घटनाओं को उल्लेख किया है, वे काफी प्रामाणिक मानी जा सकती हैं परंतु उसके पहले की घटनाओं को अन्य स्रोतों से पुष्ट करने की आवश्यकता है, क्योंकि दयालदास का ध्येय अपने संरक्षक एवं आश्रयदाता के घराने की प्रशंसा करना रहा होगा।

फिर भी, बीकानेर राज्य के इतिहास के निर्माण में यह ख्यात काफी उपयोगी स्रोत मानी जाती है।

जोधपुर राज्य की ख्यात

यह ख्यात भी दो खंडों में है। इसमें राठौङों की उत्पत्ति से लेकर महाराजा मानसिंह के राज्यकाल तक का विवरण है। इससे स्पष्ट है कि यह ख्यात महाराजा मानसिंह के शासनकाल में लिखी गयी होगी। ख्यात में वर्णित प्रारंभिक इतिहास काफी काल्पनिक एवं पक्षपातपूर्ण है।

और इसका तीथिक्रम भी सही नहीं है। राव जोधा के समय के बाद का भाग प्रामाणिक माना जा सकता है। इस ख्यात के संबंध में ओझाजी ने लिखा है कि, लेखक ने विशेष खोजबीन नहीं करके जनश्रुति के आधार पर बहुत सी बातें लिख डाली हैं जो निराधार होने के कारण काल्पनिक ही ठहरती हैं, साथ ही राज्याश्रय में लिखी जाने के कारण इसमें दिये हुए बहुत से वर्णन पक्षपातपूर्ण एवं एकांगी हैं।

अतः इस ख्यात का उपयोग करते समय हमें अन्य स्रोतों से इसके विवरण को पुष्ट करने की जरूरत पङती है।

इन सभी ख्यातों के आलावा अन्य बहुत सी ख्यातें हैं जिनमें कविराज की ख्यात, बीकानेर के राठौङों की ख्यात प्रमुख हैं। वस्तुतः राजस्थानी भाषा का साहित्य यत्र-तत्र बिखरा पङा था।

मुनि जिन विजय के अथक परिश्रम एवं प्रयासों के बाद राजस्थान सरकार ने जोधपुर में प्राच्य-विद्या-प्रतिष्ठान स्थापित किया और उसमें उपलब्ध राजस्थानी साहित्य को संगृहीत किया गया। इस संस्था ने हस्तलिखित पांडुलिपियों को प्रकाशित करवाने का निर्णय लिया और अब तक बहुत से ग्रंथों का प्रकाशन हो चुका है।

जोधपुर की चौपासनी शिक्षा समिति द्वारा संस्थापित राजस्थानी शोध संस्थान ने भी राजस्थानी साहित्य के प्रकाशन में अभूतपूर्व सहयोग दिया है।

राजस्थानी भाषा में अन्य ऐतिसाहिक साधन

  • राजस्थानी भाषा में हजारों की संख्या में ऐतिहासिक वार्ताएँ एवं वचनिकाएँ आदि लिखी गयी हैं। वार्ताओं एवं वचनिकाओं में राजस्थानी संस्कृति का बङा ही अनूठा चित्रण किया गया है। ऐतिहासिक प्रसंगों के अलावा इनमें राजस्थानी जनता की दिनचर्या, हाट, उपवन, घर-प्रांगण, उत्सव, क्रीङा आदि का विस्तृत और सजीव वर्णन मिलता है।
  • सबसे प्राचीन वचनिका चारण शिवदास की बनाई हुई अचलदास खींची री वचनिका है, जिसकी रचना वि. सं. 1490 के लगभग हुई थी। इससे गागरोन के खींची शासकों के बारे में जानकारी मिलती है। इसके अलावा उस समय प्रचलित कपङों, यथा – जामा, झागा, निर्धन लोगों की गूदङी, चौपङ के खेल आदि की भी जानकारी मिलती है। इससे यह भी पता चलता है, कि वर वधु का चयन करने के लिये भाट और भाटियों को भेजा जाता था।
  • सार्दूल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट, बीकानेर द्वारा प्रकाशित दलपतविलास भी महत्त्वपूर्ण स्रोत है। इस अधूरे ग्रन्थ की रचना बीकानेर के महाराजकुमार दलपत ने की थी। प्रस्तुत रचना से पता चलता है, कि पानीपत के दूसरे युद्ध के बाद हेमू का वध सम्राट अकबर ने नहीं किया था। इसी प्रकार अन्य ऐतिहासिक तथ्यों की जानकारी इससे प्राप्त होती है।
  • खिङिया शाखा के चारण जग्गा की बनाई हुई राव रतन महेसदासौत की वचनिका भी काफी महत्त्वपूर्ण है। इसका रचनाकाल वि.सं. 1715 के लगभग है। जग्गा रतलाम के रतनसिंह का दरबारी कवि था और उसने इस वचनिका की रचना धरमत के युद्ध के बाद की थी। अतः धरमत के युद्ध के बारे में अन्य ऐतिहासिक तथ्यों की जानकारी इससे प्राप्त होती है।
  • प्रतापसिंह म्होकमसिंघ हरीसिंघोत री वात – इस ऐतिहासिक वार्ता के लेखक किशनगढ नरेश बहादुर सिंह (1749-1782ई.) थे। प्रस्तुत वार्ता में उत्तर मुगलकाल में प्रचलित युद्ध प्रणाली का विशेष वर्णन है। इसमें कथाकार ने औरंगजेब की शास नीति का वर्णन किया है।
  • बीरमदेव सोनगरा री बात – यह एक अर्द्ध-ऐतिहासिक रचना है। इससे अलाउद्दीन खिलजी द्वारा जालौर अभियान के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है।
  • कान्हङदेव प्रबंध – कवि पद्मनाभ की कृति है। प्राे. कान्तिलाल व्यास ने इसका संपादन किया है। उनके मतानुसार ऐतिहासिक दृष्टि से कान्हङदेव प्रबंध संपूर्ण पश्चिमी राजस्थानी साहित्य में अद्वितीय है। शायद ही एकमात्र ऐसा ग्रंथ है जो हमें ऐतिहासिक घटनाओं की सच्ची जानकारी देता है। यह ऐतिहासिक काव्य 1455 ई. के आसपास लिखा गया था। इसमें जालौर के शासक कान्हङदेव और दिल्ली सुल्तान अलाउद्दीन के मध्य लङे गये संघर्ष का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। यह ग्रन्थ जैन देवनागरी में लिखा हुआ है और इससे राजस्थानी भाषा के विकास, समकालीन भूगोल, सामाजिक परंपराओं, सैन्य व्यवस्था आदि के बारे में जानकारी मिलती है।
  • 1543 ई. के आसपास मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित पद्मावत महाकाव्य में भी कुछ जानकारी उपलब्ध होती है। इसमें अलाउद्दीन खिलजी के चित्तौङ अभियान, राणा रतनसिंह द्वारा किये जाने वाले प्रतिरोध, दर्पण में पद्मिनी की छवि देखने का अनुरोध, रतनसिंह की गिरफ्तारी, पद्मिनी द्वारा उसकी रिहाई आदि घटनाओं रोमांचक वर्णन मिलता है।
  • जोधपुर नरेश अभयसिंह के दरबारी कवि करणीदान द्वारा रचित सूरज प्रकाश से जोधपुर के शासकों – जसवंतसिंह, अजीतसिंह और अभयसिंह के समय की कई महत्त्वपूर्ण घटनाओं की जानकारी मिलती है। इसके अलावा इस ग्रन्थ से तत्कालीन वेश भूषा, आभूषणों, मनोरंजन के साधनों आदि की भी जानकारी मिलती है।
  • जोधपुर नरेश अभयसिंह के आदेशानुसार कवि रतन चारण वीरभाण द्वारा रचित राजरूपक भी एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। इसमें सेतराम से लेकर अभयसिंह के समय तक की घटनाओं का उल्लेख है। इसमें मुगल सेनाओं के विरुद्ध राठौङों द्वारा लङे गये विभिन्न युद्धों (देसूरी, नागौर, नाडौल आदि) और इन युद्धों में सूजा, जेता, हरनाथ, गिरधारी आदि के शौर्य का उल्लेख किया गया है। इसके अलावा तत्कालीन सामाजिक स्थिति पर भी प्रकाश डालता है।
  • जोधपुर नरेश गजसिंह के समय में हेम कवि द्वारा रचित गुणभाष से हमें मारवाङ में महाराजा गजसिंह द्वारा अपने प्रभाव को सुदृढ बनाने के संबंध में किये गये प्रयासों की जानकारी मिलती है। इसके अलावा लेखक जोधपुर के राजप्रासादों, उद्योगों तथा दरबार का भी विस्तृत विवरण देता है। उस युग में प्रचलित शिक्षा पद्धति का उल्लेख भी मिलता है।
  • महाराजा गजसिंह के समय में केशव दास द्वारा रचित गुणरूपक, विवाह-समारोहों, दशहरा-पर्व, वेश-भूषा, आभूषण आदि का विस्तृत विवरण देता है। इसके लेखक ने बहुत सी बातें गुणभाष से ली है।
  • मेवाङ के महाराणा राजसिंह के समकालीन कवि मान द्वारा रचित राजविलास महाराणा राजसिंह की उपलब्धियों का अतिशयोक्ति के साथ विवरण देता है। फिर भी, राजसिंह और जगतसिंह के समय का एक अच्छा स्रोत माना जा सकता है। इस ग्रन्थ से हमें मेवाङ और बागङ की भौगोलिक स्थिति, उदयपुर नगर निर्माण, राज समंद झील के निर्माण, अकाल राहत कार्यों, राज्याभिषेक संस्कार आदि के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है।

इन सभी ग्रन्थों के अलावा अन्य कई ग्रन्थ हैं जिनसे ऐतिहासिक जानकारी मिलती है । रणथंभौर के हम्मीर के संबंध में मंडनविजयसा की हम्मीरदेव चौपाई, चंद्रशेखर का हम्मीर हठ, जोधराज का हम्मीर रासो और राजरूप का हम्मीर रा छाङा महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं।

मेवाङ के इतिहास की जानकारी के लिये डिंगल एवं पिंगल भाषा की कृतियों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है, जिनमें महाराणा एवं सामन्तों के शौर्य के साथ-साथ परंपरागत रीति-रिवाजों, अभिरुचियों एवं व्यक्तित्व पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। इनमें मुख्य हैं – दलपत कृत खुमान रासो, खेता द्वारा रचित चित्तौङ गजल और भाग्यसुन्दर द्वारा रचित उदयपुर गजल।

इन रचनाओं में नगरों के बाजारों, भवनों, उद्यानों तथा अन्य बातों की जानकारी मिलती है। जोधपुर राज्य के इतिहास की जानकारी के लिये बहादर कवि द्वारा रचित वीरबॉण, आशान्द द्वारा रचित उमादे भटियाणी रा कवित्त, केशवदेव कृत गुणरूपक और दलपति मिश्र कृत जसवंत उद्योग इत्यादि महत्त्वपूर्ण हैं।

फारसी भाषा में लिपिबद्ध साधन

दिल्ली सुल्तानों और मुगल सम्राटों के इतिहास की जानकारी के लिये राजकीय अधिकारियों तथा स्वतंत्र इतिहासकारों द्वारा फारसी भाषा में लिखित साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है। स्वयं मुगल शासकों द्वारा लिखित आत्मकथाएँ तथा अन्यों के द्वारा लिखित उनकी जीवनियाँ मिलती हैं।

इस प्रकार मध्यकालीन भारत के इतिहास की जानकारी के स्रोत अधिकांशतः उन लोगों के माध्यम से प्राप्त हुए हैं जो या तो स्वयं घटनाओं के प्रत्यक्षदर्शी थे अथवा उन्होंने प्रत्यक्षदर्शियों से सुनकर अपनी रचनाएँ लिखी थी।

प्रमुख फारसी ग्रन्थ

ताज-उल मासिर

इसका लेखक सदरउद्दीन हसन निजामी है। इस पुस्तक में 1229 ई. तक का हाल मिलता है।इसमें अजमेर के बारे में बताया गया है। इसमें दी गयी जानकारी से अजमेर नगर की समृद्धि तथा मुस्लिम आक्रमणों से होने वाली बर्बादी का पता चलता है।

तबकाते नासिरी

इसका लेखक काजी मिनहाज-उस-सिराज अपने समय का एक प्रमुख विद्वान था। दिल्ली सुल्तान शम्सुद्दीन इल्तुतमिश के राज्यकाल से लेकर सुल्तान नासिरुद्दीन के राज्यकाल के पन्द्रहवें वर्ष तक का हाल उसने स्वयं अपनी जानकारी के आधार पर लिखा है। इस ग्रन्थ से पता चलता है, कि लेखक के समय तक उत्तर-पूर्वी राजस्थान को मेवात के नाम से पुकारा जाता था। इससे जालौर और नागौर पर मुस्लिम शासन की जानकारी मिलती है।

खजाइनुल फुतूह

इसका लेखक अमीर खुसरो सल्तनत युग का महान कवि, इतिहासकार और साहित्यकार था। उसने बहुत से ग्रन्थों की रचना की थी। वह कई सुल्तानों का दरबारी रहा। इस ग्रन्थ की रचना उसने 1311 ई. में की थी। इसमें उसने अलाउद्दीन खिलजी की विजयों के साथ-साथ उसके आर्थिक सुधारों और बाजार भाव नियंत्रण का भी उल्लेख किया है।

राजस्थान के संबंध में उसके द्वारा चित्तौङ और रणथंभौर का वर्णन तथा अलाउद्दीन के आक्रमणों का विवरण काफी महत्त्वपूर्ण है। चित्तौङ अभियान में वह स्वयं बादशाह के साथ था। अमीर खुसरो ने सती प्रथा का भी विवरण दिया है। इस ग्रन्थ में खुसरो ने बङी क्लिष्ट तथा आलंकारिक भाषा का प्रयोग किया है।

रानी पद्मिनी की कहानी के बारे में वह इसी प्रकार की सांकेतिक भाषा का प्रयोग करता है। जिससे काफी भ्रम एवं विवाद उत्पन्न हो गया है। खुसरो की दो अन्य रचनाओं गुरात-उल-कमाल तथा देवलरानी से हमें रणथंभौर के बारे में जानकारी मिलती है।

तारीख-ए-फीरोजशाही

इसका लेखक जियाउद्दीन बरनी है जो अपने युग का प्रतिभासम्पन्न इतिहासकार था और जिसने दिल्ली के कई सुल्तानों की सेवा की थी। उसके ग्रन्थ से हमें रणथंभौर और उस पर होने वाले मुस्लिम आक्रमणों की जानकारी मिलती है।

तारीखे-मुबारकशाही

इसका लेखक याहया-बिन-अहमद-अब्दुशाह-सरहिन्दी है। तुगलक काल के इतिहास की जानकारी का यह मुख्य स्रोत है। इस ग्रन्थ से हमें मुबारक शाह खिलजी द्वारा मेवात क्षेत्र में बहादुर नासिर के विरुद्ध किये गये अभियान की जानकारी मिलती है। चंबल क्षेत्र के बहुत से मार्गों की जानकारी भी प्राप्त होती है।

तुजुक-ए-बाबर

मुगल सम्राट बाबर द्वारा लिखित स्वयं की आत्मकथा को बाबरनामा के नाम से भी पुकारा जाता है। बाबर ने अपनी आत्मकथा तुर्की भाषा में लिखी थी। बाबरनामा को प्रामाणिक ऐतिहासिक स्रोत माना जाता है परंतु राजस्थान के इतिहास के संबंध में इससे कुछ भ्रान्तियाँ पैदा हो गयी हैं। उदाहरणार्थ, बाबरनामा में लिखा है कि उसे राणा साँगा ने भारत पर आक्रमण करने के लिये आमंत्रित किया था। इस प्रश्न पर आज भी विवाद बना हुआ है।

पानीपत युद्ध के बाद खानवा युद्ध तक की विस्तृत जानकारी इसी ग्रन्थ से मिलती है। बाबर ने अपने अभियान के मार्ग में पङने वाले स्थानों का उल्लेख किया है। उसके विवरण के आधार पर तत्कालीन मेवात तथा मेवाङ की सीमाओं को निर्धारित करने में मदद मिलती है। बाबर ने उत्तर-पूर्वी राजस्थान की जलवायु, वर्षा, रेगिस्तान, सिंचाई के साधन इत्यादि का भी विस्तृत वर्णन किया है।

हुमायूँनामा

इस ग्रन्थ की लेखिका गुलबदन बेगम थी। इससे हुमायूँ के मारवाङ और मेवाङ के शासकों के साथ संबंधों की जानकारी मिलती है। शेरशाह के हाथों पराजित होने के बाद हूमायूँ मारवाङ के शासक मालदेव से मिलने कब और किस मार्ग से गया, वापिस क्यों लौट गया इत्यादि घटनाओं के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। इसके अलावा गुलबदन ने राजस्थान के रेगिस्तानी क्षेत्र और यहाँ की जलवायु का भी विस्तृत विवरण दिया है।

तजकिरात-उल-वाकेयात

इसका लेखक जौहर आफताबची था। यह ग्रन्थ भी हुमायूँ की जीवनी है। लेखक ने मारवाङ, बीकानेर और जैसलमेर के मरुक्षेत्र की कठिनाइयों का विस्तार से उल्लेख किया है। इस ग्रन्थ से भी हुमायूँ द्वारा मालदेव से मिलने जाने के लिये अपनाये गये मार्गों का उल्लेख मिलता है।

अकबरनामा

इसका लेखक अकबर का प्रमुख दरबारी और अधिकारी अबुल फजल था। लेखक ने मेवाङ, कोटा, मेवात, भरतपुर और जयपुर के आस-पास के क्षेत्रों की विस्तृत भौगोलिक जानकारी दी है। उसने राजस्थान की प्रमुख फसलों का भी उल्लेख किया है। लेखक के अनुसार मेवाङ के शासकों की स्वतंत्रता का मुख्य कारण उसकी भौगोलिक एवं प्राकृतिक स्थिति थी।

इस ग्रन्थ से अजमेर नगर में अकबर द्वारा करवाये गये निर्माण कार्यों की जानकारी भी मिलती है। प्रस्तुत ग्रन्थ अकबर के साथ राजपूत राजकुमारियों के विवाह की भी जानकारी देता है। राजस्थान के तीर्थ स्थान पुष्कर तथा राजस्थान के कुछ प्रमुख मार्गों की जानकारी भी इस ग्रन्थ से मिलती है।

आईन-ए-अकबरी

यह ग्रन्थ भी अबुल फजल द्वारा लिखा गया है। इस ग्रन्थ से हमें अकबर द्वारा अधिकृत मेवाङी क्षेत्र की शासन व्यवस्था, अजमेर की जलवायु, जनसंख्या, राजस्थानी वेश भूषा एवं वस्रो के नाम, राजस्थान में मनाये जाने वाले पर्व त्यौहारों तथा मुद्रा के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।

तबकाते अकबरी

इसका लेखक ख्वाजा निजामुद्दीन अहमद है। इसके तीन खंड हैं। इस ग्रन्थ से हमें मुगलों के साथ राजपूत राजकुमारियों के विवाह के संबंध में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। लेखक ने जौहर का भी सजीव वर्णन किया है। आगरा और दिल्ली से गुजरात और मालवा जाने वाले मार्गों का उल्लेख करते समय लेखक ने मार्ग में पङने वाले राजस्थानी नगरों तथा गाँवों का भी उल्लेख किया है।

लेखक यह जानकारी भी देता है कि मुगल सेना के लिए प्रशिक्षित ऊँट राजस्थान से मँगवाये जाते थे। निजामुद्दीन के बारे में विद्वानों की राय है कि उसमें कट्टरपन और पक्षपात आदि दोषों का अभाव है। अतः उसे एक विश्वसनीय इतिहासकार माना जाता है।

मुन्तखव-उत-तवारीख

इसका लेखक अब्दुल कादिर बदायूँनी है। यह भी अकबर का दरबारी तथा प्रमुख विद्वान व्यक्ति था। राजस्थान के इतिहास के संबंध में हमें इस ग्रन्थ से निम्नलिखित बातों की जानकारी मिलती है – अलवार, जयपुर और चित्तौङ के आसपास के क्षेत्रों की भौगोलिक स्थिति, भयंकर गर्मा, राजा भारमल की लङकी का अकबर के साथ विवाह, जौहर-प्रथा, रक्षा बंधन का पर्व, हल्दीघाटी का युद्ध आदि।

तारीखे शेरशाही

इसका लेखक अब्बास खाँ सरवानी है। मालदेव और शेरशाह के मध्य लङे गये सुमेल के युद्ध में लेखक स्वयं मौजूद था। इस ग्रन्थ की रचना उसने अकबर के आदेश से की थी। उसके ग्रन्थ से हमें मालदेव और उदयसिंह के विरुद्ध शेरशाह की गतिविधियों तथा आने-जाने वाले मार्गों के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।

मखजान-ए-अफगानी

इसका लेखक नियामुतुल्ला है। इस ग्रन्थ से हमें लोदी वंश के समय उत्तर-पश्चिमी राजस्थान, विशेषतः मेवात क्षेत्रकी जानकारी मिलती है। इसमें सिकंदर लोदी के नागौर-अभियान का भी उल्लेख मिलता है।

तारीख-ए-फरिश्ता

इसका लेखक मुहम्मद कासिम हिन्दूशाह है। यह एक विशाल ऐतिहासिक ग्रन्थ है। इसके द्वारा हमें महाराणा कंभा तथा रायमल की गतिविधियों, ईडर और मेवाङ के संबंध, नागौर तथा जालौर के बिहारी पठानों, मारवाङ के रेगिस्तान तथा बनास नदी का मार्ग, अकबर द्वारा अजमेर में कराये गये निर्माण कार्यों और राजस्थान से गुजरने वाले प्रमुख मार्गों के बारे में जानकारी मिलती है।

तुजुक-ए-जहाँगीरी

इसे मुगल शासक जहाँगीर ने स्वयं लिखा था। इसे जहाँगीरनामा भी कहा जाता है। इससे अजमेर सूबे और अजमेर नगर, दक्षिण-पश्चिमी राजस्थान पर हुए मुगल आक्रमणों के फलस्वरूप बर्बाद हुए गाँवों, रणथंभौर दुर्ग, मेवाङ के साथ सम्पन्न संधि और संधि के बाद दी गयी भेटों, राजपूतों का मद्यप्रेम, राजपूत राजकुमारियों का शाही घरानों में विवाह, दशहरा, होली, दीपावली आदि पर्वों, राजस्थान के शिल्प उद्योग के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है।

जहाँगीर ने भगवंतदास की जगह भगवानदास लिखकर आधुनिक इतिहासकारों को उलझन में डाल दिया है और आमेर के इतिहास में मानसिंह का सही परिचय देने में काफी विवाद पैदा हो गया।

इकबालनामा

इसका लेखक मोतमिद खाँ है। उसने अपने अनुभव से राजपूतों का चरित्र-चित्रण किया है जो काफी आकर्षक है। शहजादे खुर्रम द्वारा मेवाङ में की गयी हत्याएँ तथा मेवाङ की आर्थिक बर्बादी का विवरण भी महत्त्वपूर्ण है। मोतमिद खाँ भी राजस्थान के प्रमुख मार्गों की विस्तृत जानकारी देता है।

बादशाहनामा

इसका लेखक अब्दुल हमीद लाहौरी है इसमें चित्तौङ और उसके आसपास के क्षेत्रों की भौगोलिक विशेषताओं, इस क्षेत्र के मुख्य मार्गों तथा राजकुमार कर्ण के पुत्र जगतसिंह को मुगल सम्राट की ओर से दिये गये उपहारों आदि का उल्लेख है।

शाहजहाँनामा

इसका लेखक इनायत खाँ है। इस ग्रन्थ से पता चलता है कि मुगलों के साथ संधि कर लेने के बाद जब मेवाङ के राणा ने संधि के विरुद्ध चित्तौङ दुर्ग की मरम्मत करवा ली तो मुगल सेना को उसे तोङकर नष्ट कर देने के लिये भेजा गया। इस संबंध में मुगल सेना द्वारा गाँवों की बर्बादी का भी उल्लेख है।

मासिर-ए-आलमगीरी

मुहम्मद साकी मुस्तैदखाँ द्वारा लिखित इस ग्रन्थ से अजमेर का महत्त्व, मुगलों द्वारा बर्बाद किये गये राजस्थानी गाँवों, मुगलों द्वारा प्रयोग में लिये जाने वाले वस्र – धोती, दुपट्टा, फेंटा आदि, मुद्रा, निर्धन लोगों का खाना खिचङी, उस युग का धातु उद्योग, राजस्थान से गुजरने वाले प्रमुख मार्ग, मुख्य नगर आदि के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है। औरंगजेब के समय में किये गये अभियानों की जानकारी भी मिलती है।

मुन्तखव-उल-लुबाब

इसका लेखक मुहम्मद हासिम खाफीखाँ के नाम से विख्यात है। इस ग्रन्थ में 17 वीं सदी के राजस्थान की राजनातिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति के बारे में जानकारी मिलती है।

इन सभी ग्रन्थों के अलावा फारसी भाषा में सैकङों ग्रन्थ लिखे गये जिससे राजस्थान के इतिहास के बारे में जानकारी मिलती है। ऐसे ग्रन्थों में सुजानराय खत्री का खलासुत-उत्-तवारीख, ईसरदास नागर का फतूहात-ए-आलमगारी भीमसेन बुरहानपुरी का नुस्का-ए-दिसकश, शिवदास का मुनव्वर-ए-कलाम आदि मुख्य हैं।

इस प्रकार राजस्थान के लेखकों ने फारसी – उर्दू में राजस्थान का इतिहास लिखा है। इस प्रकार के ग्रन्थों में मुंशी ज्वालासहाय द्वारा लिखित वाकया-ए-राजपूताना, कालीराम कायस्थ का तारीख-ए-राजस्थान तथा मुहम्मद अबैदुल्लाह फहरती का तारीख तुहुफ-ए-राजस्थान अधिक प्रसिद्ध हैं।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
wikipedia : राजस्थानी साहित्य

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