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हुमायूँ एवं राजपूत संबंध

हुमायूँ एवं राजपूत संबंध

हुमायूँ एवं राजपूत संबंध – हुमायूँ के शासनकाल में केवल दो राजपूत राज्यों – मेवाङ और मारवाङ का केन्द्रीय सत्ता से संपर्क रहा। साँगा की मृत्यु के बाद उसका बङा पुत्र रत्नसिंह मेवाङ की गद्दी पर बैठा। साँगा ने अपने जीवनकाल में ही अपनी चहेती हाङा रानी कर्मवती के पुत्रों – विक्रमादित्य और उदयसिंह को रणथंभौर का दुर्ग और साठ लाख वार्षिक आय की जागीर प्रदान कर दी थी।

इसके अलावा मालवा के सुल्तान महमूद खलजी का रत्नजङित मुकुट और कमरपेटी भी कर्मवती के पास थे। शासक बनते ही रत्नसिंह ने अपनी विमाता से इनकी माँग की। कर्मवती इस समय अपने भाई के संरक्षण में रणथंभौर में थी। वह रत्नसिंह की माँग को टालती रही और बाबर के साथ भी सौदेबाजी करती रही।

संयोगवश 1531 ई. में सूरजमल हाङा द्वारा अहेरिया-उत्सव में निमंत्रण पाकर रत्नसिंह बून्दी गया। आखेट खेलते समय दोनों आपस में लङ पङे और दोनों की मृत्यु हो गयी। रत्नसिंह के बाद विक्रमादित्य मेवाङ का राणा बना। गुजरात के सुल्तान बहुादुरशाह ने चित्तौङ पर आक्रमण कर दिया। कहा जाता है कि इस अवसर पर कर्मवती ने हुमायूँ को राखी भिजवाकर सहायता की याचना की थी।

परंतु हुमायूँ अपने अमीरों की कट्टर धार्मिक भावनाओं के कारण मेवाङ की सहायता के लिये कोई सक्रिय कदम नहीं उठा पाया। विनाश को सम्मुख देखकर कर्मवती ने बहादुरशाह के साथ संधि कर लेना ही उचित समझा। यह घटना मार्च, 1533 ई. की है।

जनवरी, 1535 ई. में बहादुरशाह ने दूसरी बार चित्तौङ पर धावा बोल दिया। संयोगवश इस समय हुमायूँ भी उससे युद्ध करने के लिये प्रस्थान कर चुका था। कर्मवती ने इस बार भी हुमायूँ से सहायता की याचना की। वह सारंगपुर तक आ पहुँचा था। यहीं से उसे बहादुरशाह का संदेश मिला कि जब तक वह काफिरों के विरुद्ध युद्ध में लगा हुआ है, वह हुमायूँ अपने सधर्मी भाई पर आक्रमण न करे।

अपने कट्टरपंथी मुस्लिम सरदारों के भय से हुमायूँ ने बहादुरशाह पर हमला नहीं किया। यह हुमायूँ की बहुत बङी राजनैतिक भूल थी। यदि हुमायूँ बहादुरशाह पर उसी समय आक्रमण कर देता जबकि वह चित्तौङ का घेरा डाले हुये था, तो बहादुरशाह की शक्ति चित्तौङ में नष्ट हो जाती और राजपूतों की सहानुभूति भी प्राप्त हो जाती । कर्मवती ने विक्रमादित्य और उदयसिंह को बून्दी भिजवा दिया और 13,000 स्रियों सहित स्वयं ने जौहर किया।

8 मार्च, 1535 ई. को बहादुरशाह ने चित्तौङ जीत लिया। हुमायूँ 8 जून, 1536 ई. को चित्तौङ आया। तब तक अपने सरदारों की सहायता से विक्रमादित्य चित्तौङ पर अपना अधिकार जमा चुका था। फिर भी, हुमायूँ ने मेवाङ को क्षति नहीं पहुँचाई। उसकी वापसी के कुछ दिनों बाद ही विक्रमादित्य के आचरण से दुःखी होकर उसके सरदारों ने उसकी हत्या कर दी और शासन सत्ता राणा रायमल के पुत्र पृथ्वीराज के औरस पुत्र बनवीर के हाथों में चली गयी।

वह स्वयं महाराणा बनना चाहता था। अतः उसने अपने मार्ग की बाधा उदयसिंह को मौत के घाट उतारने का निश्चय किया। परंतु धाय पन्ना उदयसिंह को बनवीर के चंगुल से बचाकर कुम्भलगढ ले गयी। बाद में सिसोदिया सरदारों ने उदयसिंह के नेतृत्व में चित्तौङ पर धावा बोल दिया। पराजित बनवीर वहाँ से भाग निकला और 1540 ई. तक उदयसिंह संपूर्ण मेवाङ का स्वामी बन गया। इस समय तक दिल्ली की केन्द्रीय सत्ता में परिवर्तन आ गया था।

शेरशाह सूरी ने हुमायूँ को परास्त करके आगरा दिल्ली से खदेङ दिया था। हुमायूँ के शासनकाल में – मुगलों की केन्द्रीय सत्ता और मेवाङ दोनों को अपनी-अपनी आंतरिक और बाह्य कठिनाइयों के फलस्वरूप सहयोग और प्रतिरोध का अवसर ही नहीं मिल पाया।

हुमायूँ एवं राजपूत संबंध

मालदेव और हुमायूँ

हुमायूँ के समय में राजपूत राज्यों में सर्वोपरि स्थान मारवाङ राज्य का था। 1532 ई. में राव गांगा का पुत्र मालदेव मारवाङ की गद्दी पर बैठा। उस समय उसे केवल जोधपुर और सोजत के दो परगने ही उत्तराधिकार में मिले थे। परंतु तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों का लाभ उठा कर मालदेव ने विस्तारवादी कार्यक्रम को हाथ में लेकर अपनी सर्वोच्चता को स्थापित करने का प्रयास किया। 1542 ई. तक मालदेव की शक्ति अपनी चरम सीमा पर पहुँच गयी थी।

उसके राज्य की सीमाएँ उत्तर में बीकानेर एवं हिसार, पूर्व में बयाना एवं धौलपुर, पश्चिम में भाटियों के राज्य और दक्षिण में मेवाङ की सीमा तक पहुँच गई थी।

चौसा और कन्नौज के युद्धों में हुमायूँ की निरंतर पराजय के फलस्वरूप मुगल साम्राज्य का पतन हो गया और दिल्ली तथा आगरा पर शेरशाह सूरी की सत्ता स्थापित हो गयी। पराजित हुमायूँ को आश्रय की तलाश में इधर-उधर भटकना पङा। 1541 ई. के प्रारंभ में वह सिन्ध की ओर भक्कार नामक स्थान पर जा पहुँचा और सितंबर तक वहीं बना रहा।

इस अवधि में शेरशाह ने अपनी सत्ता को सुदृढ बनाने के लिये सिन्ध, पंजाब, बिहार, मालवा आदि प्रदेशों में अपनी सैन्य टुकङियाँ भेजी। वह स्वयं एक शक्तिशाली सेना के साथ बंगाल के विद्रोही हाकिम की तरफ गया।

इन सभी परिस्थितियों में मालदेव के लिये अपनी सर्वोच्चता को सिद्ध करने का उपर्युक्त सयम नहीं था और इसकी पूर्ति के लिये उसने निर्वासित सम्राट हुमायूँ को निमित्त बनाया तथा उसको सहायता देने का संदेश भिजवाया। मालदेव के इस निमंत्रण पर मारवाङ की ख्यातों से विस्तृत जानकारी नहीं मिलती, परंतु फारसी वृतांतों से पता चलता है कि मालदेव ने हुमायूँ को 20,000 घुङसवारों से सहायता देने का संदेश भिजवाया था। यह संदेश जनवरी, 1541 ई. में भिजवाया गया था।

1541 ई. के पूर्व हुमायूँ और मालदेव के मध्य किसी प्रकार के संबंध अथवा संपर्क की जानकारी नहीं मिलती।अतः प्रश्न यह उठता है कि उपर्युक्त परिस्थितियों में मालदेव ने हुमायूँ को सैनिक सहायता देने का आश्वासन क्यों दिया? इसमें कोई संदेह नहीं कि इसके पीछे मालदेव के राजनीतिक स्वार्थ थे।

उसका पहला स्वार्थ अपनी सर्वोच्चता का प्रदर्शन करना था। उसका दूसरा स्वार्थ शेरशाह की बढती हुयी शक्ति को नियंत्रित करना था। शेरशाह को अधिकांश पठान-अफगानों का समर्थन प्राप्त था और वे सभी मुगलों का सफाया करके भारत में पुनः अफगान सत्ता कायम करना चाहते थे। संयोगवश, मालदेव के विरोधी राजपूत शासक – वीरमदेव (मेङता) और कल्याणमल (बीकानेर)भी शेरशाह के दरबार में पहुँच चुके थे।

शेरशाह ने उन्हें मालदेव के अधिकार से उनके पैतृक राज्य वापस दिलवाने का आश्वासन दिया। अतः मालदेव और शेरशाह में किसी दिन युद्ध होना अवश्यम्भावी था। इस संदर्भ में डॉ.कानूनगो ने ठीक ही लिखा है, कि कूटनीति की शतरंज में शेरशाह के विरुद्ध मालदेव एक प्यादे के रूप में हुमायूँ का उपयोग करना चाहता था। मालदेव का सोचना था कि यदि उसकी सहायता से हुमायूँ अपना खोया हुआ राज्य पुनः प्राप्त कर लेता है तो शेरशाह का संकट टल जाएगा और हुमायूँ भी उसका पक्षधर बना रहेगा।

ऐसी स्थिति में उसका अपना राज्य भी सुरक्षित बना रहेगा। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि जिस समय मालदेव ने हुमायूँ को संदेश भिजवाया था, उस समय तक हुमायूँ की स्थिति बहुत खराब नहीं हुई थी। उसके पास एक शक्तिशाली सेना थी और उसके भाई-बंधु भी उसे थोङी बहुत सहायता दे सकते थे।

परंतु हुमायूँ समय की आवश्यकता को न पहचान पाया और मालदेव के संदेश का लाभ नहीं उठा पाया। उसने मालदेव के संदेश का उत्तर भिजवाना भी उचित नहीं समझा। जब हिन्दाल, नासिर मिर्जा और मुगल सरदार उसका साथ छोङकर चलते बने, उसकी सैनिक शक्ति कमजोर पङ गयी और कहीं से सहायता की ओई आशा नहीं रही तो उसे मालदेव की याद आई और इधर-उधर भटकने के बाद वह मालदेव के राज्य के फलौदी परगने में पहुँचा।

यहाँ से उसने अतकाखाँ को अपना दूत बनाकर मालदेव के पास भेजा। मालदेव ने शिष्टाचारवश हुमायूँ की सेवा में थोङे से फल और मेवा भिजवा दिया परंतु सैनिक सहायता का पक्का आश्वासन नहीं दिया। अतकाखाँ ने लौटकर हुमायूँ को बताया कि मालदेव की नीयत ठीक प्रतीत नहीं होती और हमें शीघ्र ही यहाँ से कूच कर देना चाहिये।

इसके पूर्व मालदेव की सेवा में रहने वाले हुमायूँ के पूर्व पुस्तकालयाध्यक्ष मुल्ला सुर्ख ने भी हुमायूँ को संदेशा भिजवाया था कि आप जिस स्थान पर ठहरे हुए हैं, वहीं से वापस लौट जायें, क्योंकि मालदेव का विचार आपको बंदी बनाने का है और इस संबंध में शेरशाह का एक दूत यहाँ आया हुआ है। इस प्रकार की सूचनाएँ मिलने के बाद हुमायूँ मारवाङ से तुरंत वापस लौट गया।

लगभग सभी मुगल इतिहासकारों ने मालदेव पर हुमायूँ के साथ विश्वासघात करने का आरोप लगाया है। जौहर तथा अबुल फजल के विवरणों से यह ध्वनि निकलती है कि मालदेव हुमायूँ के जवाहरात लेना चाहता था और इस उद्देश्य से अपना एक विश्वस्त व्यक्ति भी हुमायूँ के पास भेजा था। इस प्रकार का आरोप एकमद निराधार है।

इसी प्रकार, उसे बंदी बनाने वाली बात भी निराधार है। यह ठीक है कि परिवर्तित राजनैतिक स्थिति में मालदेव हुमायूँ की सहायता करने की स्थिति में नहीं था, फिर भी, उसकी नीयत बुरी नहीं थी। यदि ऐसा होता तो वह सरलता के साथ हुमायूँ को बंदी बनाकर शेरशाह के सुपुर्द कर सकता था।

वस्तुतः मालदेव द्वारा हुमायूँ की सहायता न करने का मुख्य कारण तत्कालीन परिस्थितियाँ थी। जिस समय हुमायूँ मालदेव से सहायता प्राप्त करने को फलौदी पहुँचा, उसकी सैनिक शक्ति बिल्कुल समाप्त हो चुकी थी और उसके पास नाममात्र के सैनिक बच गये थे। दूसरी तरफ, शेरशाह ने अब तक उत्तरी भारत में अपनी स्थिति को सुदृढ बना लिया था और उसकी एक सेना मारवाङ की सीमा तक आ पहुँची थी।

मालदेव इस समय शेरशाह के साथ संघर्ष की स्थिति में नहीं था। अतः उसने हुमायूँ को सहायता देना उचित नहीं समझा। इसके लिये हुमायूँ का विलम्ब उत्तरदायी था। मालदेव ने उसके साथ विश्वासघात नहीं किया था।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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