प्राचीन भारतइतिहाससातवाहन वंश

सातवाहन कालीन सामाजिक दशा कैसी थी

सातवाहन युगीन समाज वर्णाश्रम धर्म पर आधारित था। परंपरागत चारों वर्णों ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ) में ब्राह्मणों का स्थान सर्वोपरि था। सातवाहन नरेश स्वयं ब्राह्मण थे। नासिक प्रशस्ति में गौतमीपुत्र को अद्वितीय ब्राह्मण कहा गया है, जिसने समाज में वर्णाश्रम धर्म को प्रतिष्ठित करने तथा वर्णसंकरता को रोकने का प्रयास किया था। इस समय अनेक नई-2 जातियाँ व्यवसायों के आधार पर संगठित होने लगी थी। इस काल के समाज की प्रमुख विशेषता शकों तथा यवनों का भारतीयकरण है।

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अनेक शकों के नाम भारतीयकृत मिलते हैं, जैसे धर्मदेव, श्रषभदत्त, अग्निवर्मन् आदि। हिन्दुओं के समान ही वे तीर्थ-यात्रा पर जाते थे, यज्ञों का अनुष्ठान करते थे, तथा ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देते थे।यद्यपि सातवाहन नरेशों ने वर्ण-संकरता को रोकने का प्रयास किया था, फिर भी व्यवहार में अंतर्जातीय विवाह होते थे। शातकर्णी प्रथम ने अंग कुल की महारठी (क्षत्रिय) की पुत्री नागनिका से तथा पुलुमावी ने रुद्रदामन् की पुत्री से विवाह किया था।

इससे पता चलता है कि वे संपत्ति की भी स्वामिनी होती थी। मूर्तियों में हम उन्हें अपने पतियों के साथ बौद्ध प्रतीकों की पूजा करते हुये, सभाओं में भाग लेते हुये तथा अतिथियों का सत्कार करते हुये पाते हैं। उनके सावर्जनिक जीवन को देखते हुये ऐसा स्पष्ट है, कि वे पर्याप्त शिक्षित होती थी, तथा पर्दाप्रथा से अपरिचित थी।

समाज में स्त्रियों की दशा अच्छी थी। कभी-2 वे शासन के कार्यों में भी भाग लेती थी। नागनिका ने अपने पति की मृत्यु के बाद शासन का संचालन किया था। बलश्री ने अपने पुत्र गौतमीपुत्र के साथ मिलकर शासन किया था। सातवाहन राजाओं के नाम का मातृप्रधान होना स्त्रियों की सम्मानपूर्ण सामाजिक स्थिति का सूचक माना जा सकता है। इस समय के अभिलेखों में स्त्रियों द्वारा प्रभूत दान दिये जाने का उल्लेख है।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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