संत रामचरण – रामस्नेही सम्प्रदाय की शाहपुरा शाखा के प्रवर्त्तक संत रामचरणजी का जन्म 1719 ई. में जयपुर राज्य के अन्तर्गत सोङा नामक गाँव में, एक बीजावर्गी वैश्य कुल में हुआ था। इनके माता-पिता मालपुरा के निकट बनवाङी नामक गाँव में रहते थे और सोङा में इनकी ननिहाल थी। इनका नाम रामकिश था।
वे प्रारंभ से ही कुशाग्र बुद्धि के थे, अतः बङे होकर उन्होंने पिता का काम संभाल लिया तथा शीघ्र ही उनकी कार्यकुशलता की ख्याति चारों ओर फैल गयी। अतः जयपुर नरेश ने उन्हें अपना मंत्री बना लिया। कुछ समय तक तो इस पद पर बङी निपुणता से कार्य करते रहे किन्तु अचानक वे सब कुछ त्याग कर सद्गुरु की खोज में निकल पङे।
यात्रा के दौरान उनकी भेंट संत कृपाराम (संतदास के शिष्य) से हुई। संत कृपाराम ने 1751 ई. में उन्हें रामनाम की दीक्षा देकर उनका दीक्षित नाम रामचरण रख दिया। दीक्षा के बाद उन्होंने 7 वर्ष तक अनवरत साधना की किन्तु 1758 ई. में उनका मन उचट गया और वे भीलवाङा पहुँचे जहाँ उन्होंने 10 वर्ष तक साधना की व निर्गुण उपासना एवं सभी के प्रति प्रेम भावना का उपदेश देना प्रारंभ किया।
यहाँ के अधिकांश लोग सगुणोपासक (मूर्तिपूजक) थे, अतः रामचरणजी का विरोध प्रारंभ हुआ। उनको विष देने तथा हत्या करने के भी षडयंत्र रचे गये। अतः वे भीलवाङा छोङकर वहाँ से ढाई मील दूर कुहाङे नामक गाँव में आ गये जहाँ उनकी रामधुन की ध्वनि से सैकङों श्रद्धालु आने लगे। थोङे समय बाद शाहपुरा से निमंत्रण आने पर वे वहाँ चले गये।
शाहपुरा के शासक राजा रणसिंह ने इनके रहने के लिये छतरी बनवा दी। यहीं पर वे मठ की स्थापना कर रामभक्ति प्रचार करते रहे और अपनी अनुभूतियों को उन्होंने अणर्भवाणी के रूप में अवतरित किया। 1798 ई. में संत रामचरणजी का देहांत हो गया। शाहपुरा में इनकी स्मृति में एक विशाल रामद्वारा बना हुआ है।

संत रामचरणजी ने भी मोक्ष प्राप्ति के लिये गुरु को आवश्यक माना है। उनका कहना था कि हमेशा राम-नाम स्मरण करते रहना चाहिए जो घर-घर में निवास करता है और निराकार है। राम-नाम के स्मरण से मोक्ष प्राप्ति संभव है। वे सत्संग पर बल देते हुए कहते थे कि गलियों का गंदा पानी भी गंगा में मिलकर निर्मल हो जाता है।
संत रामचरणजी ने भी निर्गुण राम की उपासना के चार सोपान बताये हैं, जिनमें गुजरता हुआ साधक राम में एक रूप हो जाता है। रामचरणजी ने भी मूर्तिपूजा, तीर्थाटन, बहुदेवोपासना, कन्या-विक्रय, हिन्दू-मुस्लिम भेदभाव, साधुओं का कपटाचरण आदि का जबरदस्त विरोध किया। उनके अनुसार मंदिर और मस्जिद दोनों भ्रम हैं तथा पूजा पाठ, नमाज आदि सभी ढोंग हैं।
उन्होंने भाँग, तंबाकू आदि मादक द्रव्यों तथा माँस-भक्षण का विरोध किया। उनका प्रचलित जाति-व्यवस्था में भी विश्वास नहीं था। रामचरणजी के 225 शिष्य थे, जिनमें 12 प्रधान थे। इन्होंने राजस्थान के अनेक नगर व कस्बों में रामद्वारे स्थापित किये तथा राम नाम का प्रचार किया।
इस शाखा का दिल्ली, बम्बई, बङौदा, आगरा, रतलाम आदि में भी व्यापक प्रचार हुआ और वहाँ के रामद्वारे बङे प्रसिद्ध हैं। शाहपुरा के रामस्नेही सिर मुण्डित रखते हैं और सिर पर केवल शिखा रखते हैं तथा गुलाबी रंग की चादर पहिनते हैं।
References : 1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
