सिंहथल व खेङापा के रामस्नेही कौन थे
सिंहथल व खेङापा के रामस्नेही – रामस्नेहियों की सिंहथल शाखा के प्रवर्त्तक संत हरिरामदासजी थे, जो बीकानेर राज्य के अंतर्गत सिंहथल के निवासी थे। 1743 ई. में उन्होंने रामस्नेही संप्रदाय की दीक्षा ग्रहण की। इन्होंने भी घूम-घूमकर रामभक्ति का प्रचार किया और 1778 ई. में इनका देहांत हो गया।
उन्होंने भी ईश्वर के बाद दूसरा स्थान गुरु को दिया, निर्गुण राम उपासना के विभिन्न सोपान तथा समाज में प्रचलित बुराइयों का खंडन किया। वे हिन्दू मुसलमानों के भेद को स्वीकार नहीं करते थे और दोनों को एक ही मानते थे।

रामस्नेहियों की केङापा शाखा के प्रवर्त्तक संत रामदासजी, सिंहथल के संत हरिरामदासजी के शिष्य थे तथा जोधपुर के निकट भीकमकोर नामक गाँव के निवासी थे और खेङापा (मारवाङ) में इनकी ननिहाल थी। 1752 ई. में इन्होंने संत हरिरामदासजी से दीक्षा ग्रहण की और मोलाना नामक गाँव में साधना करने के बाद आस-पास के गाँवों में रामभक्ति का प्रचार करते हुए खेङापा को अपना केन्द्र बनाया। रामदासजी गृहस्थ थे
और 1798 ई. में इनके देहांत के बाद उनका एकमात्र पुत्र दयालदास उनका उत्तराधिकारी हुआ। इन्होंने भी गुरु भक्ति पर जोर दिया। उनका कहना था कि ब्रह्मत्व, मायारहित निर्गुण-निराकार राम की अनन्य भक्ति द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।
उन्होंने भी समाज में प्रचलित बुराइयों का खंडन किया तथा सत्य, प्रेम, अहिंसा, निष्कपटता आदि गुणों को धारण करने का उपदेश दिया। रामदासजी के समय इस शाखा के साधु गृहस्थ थे और श्वेत वस्र पहिनते थे, किन्तु उनके पुत्र दयालदास के समय ये साधु विरक्त, विदेह, परमहंस, प्रवृत्ति और गृहस्थ इन पाँच श्रेणियों में बँट गये।
रामस्नेही संतों का आचार-व्यवहार
रामस्नेही संतों ने राम नाम के पावन मंत्र का प्रचार किया तथा दूर-दूर तक राम भक्ति का संदेश पहुँचाया। धीरे-धीरे इनकी शिष्य परंपरा का विकास होता गया और जगह-जगह रामद्वारों की स्थापना हुई। रामस्नेही साधु रामद्वारों में रहते हैं, प्रतिदिन नियम-पूर्वक राम-नाम स्मरण करते हैं और भिक्षा माँग कर उदरपूर्ति करते हैं।
ये प्रायः कमंडल, लंगोट, चादर, माला और पुस्तक के अलावा कोई दूसरी वस्तु अपने पास नहीं रखते। वे विवाह नहीं करते और साधुओं में हिन्दू जाति को ही लिया जाता है। ये गुलाबी रंग की धोती और उपवस्र भी पहिनते हैं तथा दाढी-मूँछ और सिर पर बाल नहीं रखते, धातु-पात्र का उपयोग नहीं करते, काठ के कमंडल से जल पीते हैं और मिट्टी के बर्तन में भोजन करते हैं।
इस संप्रदाय के साधु मूर्ति पूजा नहीं करते, रामद्वारों में केवल अपने गुरु का चित्र रखते हैं और गुरुवाणी का सुबह शाम पाठ करते हैं। इस पंथ में नैतिक आचरण, सत्यनिष्ठा और धार्मिक अनुशासन पर बल दिया जाता है, चाहे रामद्वारे का साधु हो या गृहस्थ अनुयायी, शाकाहारी होना सभी के लिये अनिवार्य है तथा राम की अर्चना स्री और पुरुषों के लिए वांछनीय है,
किन्तु स्री और पुरुष दोनों एक स्थान पर रहकर अर्चना नहीं करते। अर्चना के कार्यक्रम की परिपाटी पर मुस्लिम पद्धति का प्रभाव दिखाई देता है।
इस संप्रदाय में गुरु-वाणी को बङे प्रेम से गाया जाता है, जिनकी भाषा ब्रजभाषा या राजस्थानी होती है। इस प्रकार इस संप्रदाय की अलग-अलग शाखाएँ होते हुए भी इनका मूलस्रोत एक होने की इनकी शिक्षाओं में, व्यवस्था तथा आचार-व्यवाहार में एकरूपता दिखाई देती है। इस संप्रदाय में समन्वय की भावना अधिक होने से राजस्थान तथा आस-पास के राज्यों में यह संप्रदाय बङा लोकप्रिय है।
References : 1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
