इतिहासफ्रांस की क्रांतिविश्व का इतिहास

लुई सोलहवाँ(1774-1792ई.)कौन था

लुई सोलहवाँ (1774-1792ई.)

पृष्ठभूमि

फ्रांस यूरोप का एक शक्तिशाली देश था और संभवतः इंग्लैण्ड के बाद उसी की गणना की जाती थी। चौदहवें लुई के शासनकाल (1643-1715 ई.) में फ्रांस यूरोप में सबसे अधिक शक्तिशाली देश हो गया। उसने युद्धों के माध्यम से फ्रांस की सीमाओं का विस्तार किया, सामंतों की अवशिष्ट शक्ति का दमन किया और राज्य की संपूर्ण शक्तियों को अपने हाथों में केन्द्रित किया।

राज्य में कोई भी शक्ति ऐसी न रह पाई, जो किसी तरह उसका विरोध कर सके। परंतु लुई चौदहवें के युद्धों ने राज्य की आर्थिक स्थिति को बिगाङ दी। सरकार पर भारी कर्जा हो गया। उसकी मृत्यु के बाद पन्द्रहवें लुई ने लगभग साठ वर्षों तक शासन किया, वह स्वयं तो अयोग्य, आलसी और विलासी था ही, उसके मंत्री भी वैसे ही अयोग्य निकले।

दरबार के विलासी जीवन तथा युद्धों के कारण उसके शासनकाल में फ्रांस की आर्थिक स्थिति निरंतर बिगङती गई, परंतु उसे सुधारने का प्रयास नहीं किया गया।

लुई सोलहवाँ (1774-1792 ई.)

लुई सोलहवाँ फ्रांस में पुरातन व्यवस्था का अंतिम शासक था। लुई पन्द्रहवें की मृत्यु के बाद 1774 ई. में वह फ्रांस का राजा बना। उस समय उसकी आयु केवल बीस वर्ष की थी। उसे फ्रांस जैसे विशाल साम्राज्य का शासन चलाने योग्य आवश्यक शिक्षा तथा अनुभव प्राप्त नहीं हो पाया था।

राजा बनते समय वह एक भला तथा सदभावना वाला व्यक्ति था और उसकी नैतिकता तथा कर्तव्य – परायणता भी बढी-चढी थी, परंतु उसमें इच्छा-शक्ति का अभाव था। वह व्यक्तियों को परखने की योग्यता से वंचित था। अतः वह अपने से प्रभावशाली लोगों की बातों में बहुत जल्दी आ जाता था।

अपने शासन के प्रारंभिक काल में वह बुद्धिमान राजनीतिज्ञ तूर्गो के प्रभाव में रहा, परंतु बाद में उस पर उसकी पत्नी का प्रभाव बढ गया, जो उसके और पुरातन व्यवस्था, दोनों के लिये प्राणघातक सिद्ध हुआ।

रानी आन्त्वानेत

लुई सोलहवें की पत्नी रानी मारी आन्त्वानेत आस्ट्रिया की राजकुमारी थी। लुई के राज्याभिषेक के समय वह केवल 19 वर्ष की थी। चूँकि यूरोप की राजनीति में आस्ट्रिया फ्रांस का शत्रु था, अतः फ्रांसीसी लोगों को शुरू से ही यह वैवाहिक संबंध पसंद न आया और वे रानी को हमेशा घृणा की दृष्टि से देखते रहे।

मारी आन्त्वानेत काफी सुन्दर और उत्साही महिला थी और लुई के विपरीत उसमें बुद्धि का अभाव था और उसकी निर्णय – शक्ति का दायरा सीमित था। रानी बनने के बाद वह हठी होती गई। अनाप-शनाप खर्च करने लगी। उसमें घमंड और अहंकार की मात्रा बढती गयी। वह आमोद-प्रमोद की शौकीन बनकर भोग-विलास में डूबती चली गयी।

उसका आचरण भी ठीक न था और इसकी वजह से शीघ्र ही वह समूचे फ्रांस में आलोचना का विषय बन गई। उसके चारों ओर स्वार्थी तथा चापलूस लोगों का घेरा बना रहता था, जो उसे हमेशा गलत सलाह देने में दक्ष थे।

तूर्गो के सुधार कार्य

लुई सोलहवें ने शासक बनते ही तूर्गो को अपना वित्त मंत्री नियुक्त किया। तूर्गो अपने युग का प्रसिद्ध अर्थशास्त्री तथा राजनीतिज्ञ था और असाधारण साहस तथा योग्यता थी। उसने लगभग दो वर्ष तक इस पद पर रहते हुये फ्रांस की आर्थिक स्थिति को सुधारने का अथक प्रयास किया।

उसने उद्योग तथा व्यापार की उन्नति के लिये इस क्षेत्र को अधिक स्वतंत्रता तथा सुविधाएँ दिलवाने तथा कष्टप्रद करों में कमी करने का प्रयास किया। फ्रांस के दिवालियेपन को दूर करने के लिये उसने राजा के सामने दो उपाय रखे – सरकारी व्यय में कमी और सार्वजनिक धन की वृद्धि।

सरकारी आय को बढाने के लिये कृषि, उद्योग तथा व्यापार को बहुत से प्रतिबंधों मुक्त करना जरूरी था। तूर्गो ने बहुत से अनावश्यक खर्चे कम करके काफी धन की बचत कर ली, परंतु इससे वे सभी लोग उसके शत्रु बन गये जो अब तक उस अनावश्यक खर्चे पर ही शान-शौकत का जीवन बिता रहे थे।

इसके साथ ही तूर्गो ने खाद्य सामग्री के व्यापार पर लागू बहुत से प्रतिबंधों को हटाकर अनाज के व्यापार में स्वतंत्रता का सिद्धांत लागू किया। तूर्गो ने व्यावसायिक श्रेणी का अंत कर दिया, इससे कारीगरों तथा दस्तकारों को नए-नए उद्योग खोलने का प्रोत्साहन मिला। तूर्गो के इस कदम से सटौरिए तथा श्रेणियों के नेता उसके शत्रु बन गये। तूर्गो ने कोरवी नामक कर को भी समाप्त कर दिया।

इसके अंदर किसानों को बिना मजदूरों के सङकों पर काम करना पङता था और किसान लोग इसे घृणा की दृष्टि से देखते थे। अब किसानों को इस कार्य के लिये पारिश्रमिक देने की व्यवस्था की गयी। इस धन की पूर्ति के लिये कुलीन वर्ग तथा अन्य भूस्वामी-वर्ग पर एक समान कर लगाए गये। अंत में, जब 1776 ई. के मार्च मास में तूर्गो ने कई विशेषाधिकारों को समाप्त करने, राज्यों के करों में कमी करने, नमक कर हटाने, किसानों को आर्थिक सहायता उपलब्ध कराने आदि प्रस्ताव रखे तो समस्त विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग उसके विरुद्ध हो गया।

उन्होंने रानी मारी को भी अपने पक्ष में कर लिया। रानी और कुलीनों ने मिलकर लुई पर दबाव डाला कि वह तूर्गो को मंत्री पद से हटा दे। लुई अपनी रानी के आग्रह को न टाल सका और विवश होकर अपने योग्य मंत्री को हटाना पङा।

नेकर का कार्यकाल

तूर्गो की पदच्युति से सुधार का मार्ग पुनः बंद हो गया। उसके स्थान पर नेकर को नियुक्त किया गया। उसके स्थान पर नेकर को नियुक्त किया गया। वह एक चालाक बैंकर था और उसमें दूरदर्शिता का अभाव था। नेकर ने फ्रांस की आर्थिक स्थिति को सुधारने का तो पूरा प्रयास किया, परंतु उसने असंतोषजनक सामाजिक प्रश्नों को हल करने का प्रयास नहीं किया।

संयोग से इसी समय अमेरिका का स्वतंत्रता संघर्ष शुरू हो गया। नेकर ने राजा को सलाह दी कि यदि फ्रांस ने खुल्लमखुल्ला इसमें भाग लिया तो फ्रांस का दिवालियापन और भी अधिक बढ जाएगा, परंतु राजा ने उसकी बात न मानी और सरकार ने लोगों से भारी कर्जा लेकर भी अमेरिकी उपनिवेशों को सहायता पहुँचाई।

नेकर ने भी तूर्गो का अनुसरण करते हुये सरकारी खर्च में कमी का प्रस्ताव रखा। इस अवसर पर उसने राज्य की आय-व्यय के आँकङे अपनी रिपोर्ट सहित प्रकाशित करवा दिए। इससे दरबारी और कुलीन लोग उसके शत्रु बन गये। अब तक किसी भी मंत्री ने सरकारी आय-व्यय के आँकङों को जनता के सामने प्रकट नहीं किया था।

नेकर की रिपोर्ट में दरबारियों को मिलने वाली पेंशनों तथा भत्तों का भी उल्लेख था और यह भी कहा गया था, कि इसके बदले में वे किसी प्रकार की कोई भी सेवा नहीं करते। एक बार पुनः कुलीनों ने रानी से विनय की और एक बार पुनः रानी के प्रभाव में आकर लुई को अपना वित्त मंत्री (नेकर)हटाना पङा।

केलोन के कार्य

1781 ई. में नेकर के बाद केलोन को वित्त मंत्री नियुक्त किया गया। वस्तुतः उसकी नियुक्त कुलीन वर्ग की तीव्र इच्छा के कारण ही की गयी थी और इसमें कोई संदेह नहीं कि कुलीनों की इच्छानुसार कार्य करने वाला दूसरा वित्त मंत्री और कोई नहीं हुआ। केलोन जिस वर्ष मंत्री बना, सरकारी बजट में लगभग 6 करोङ 20 लाख फ्रेंक का घाटा था।

केलोन ने इस समस्या का समाधान कर्ज लेकर किया। इसके लिये उसने ब्याज की दर को बढा दिया, जिससे आकर्षित होकर लोगों ने सरकार को कर्ज दे दिया, परंतु कुछ वर्षों बाद कर्ज मिलना बंद हो गया। अगस्त, 1786 ई. में सरकारी खजाना बिल्कुल खाली हो गया और कहीं से कर्ज मिलने की संभावना भी न दिखी।

केलोन ने भी अब राजा को सलाह दी कि एक ऐसा कर लगाया जाये, जिसे तीनों वर्गों के लोगों को समान रूप से चुकाना होगा। विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग को यह पसंद नहीं आया और वे केलोन के विरोधी हो गये। केलोन ने समझदारी से काम लिया और अपने पद से त्याग-पत्र दे दिया।

इस्टेट्स जनरल की माँग

केलोन के बाद लोमनी द बीने को अर्थ मंत्री नियुक्त किया गया। उसके प्रयत्नों के बाद भी फ्रांस की आर्थिक दशा में थोङा बहुत सुधार भी नहीं हो पाया, अतः विवश होकर उसने राजा को नए कर लगाने का सुझाव दिया। राजा ने नए कर लगाने की स्वीकृति दे दी, लेकिन पेरिस की पार्लमां ने इन करों का घोर विरोध किया और इन्हें अपने रजिस्टर में दर्ज करने से इंकार कर दिया। जब तक नए कर अथवा नियम पार्लमां के रजिस्टर में दर्ज नहीं हो पाते, तब तक उन्हें लागू नहीं किया जा सकता था।

पेरिस पार्लमां का कहना था, कि करों को लगाने का अधिकार उन्हीं लोगों को है, जो कि उन्हें अदा करते हैं। अतः उसके लिये इस्टेट्स-जनरल का अधिवेशन बुलाया जाना चाहिये। राजा ने पार्लमां को आतंकित करने की दृष्टि से एक बार उसे भंग कर दिया और उसके सदस्यों को बंदी बनाने की सोचने लगा, परंतु जनता ने पार्लमां का जोरदार समर्थन किया और सेना ने उसके सदस्यों को बंदी बनाने से इन्कार कर दिया।

विवश होकर राजा ने पुनः पेरिस की पार्लमां को बुलाया, परंतु इस बार भी उसने नए करों को रजिस्टर में दर्ज करने से इंकार कर दिया। प्रांतों की विभिन्न पार्लमाओं ने भी पेरिस की पार्लमां का समर्थन करते हुये इस्टेट्स जनरल के अधिवेशन की माँग की। समूचे फ्रांस ने इस माँग का समर्थन किया। फिर भी लुई सोलहवें ने कुछ दिनों तक इस माँग को स्वीकार नहीं किया। उसने नेकर को पुनः अर्थ मंत्री नियुक्त किया, परंतु अब काफी देर हो चुकी थी।

नेकर भी समस्या को हल करने में अपने आपको असमर्थ पा रहा था। अंत में, राजा को जनता की माँग के सामने झुकना पङा। राजा का झुकना इस बात का संकेत था, कि अब निरंकुश शासन का समय निकट भविष्य में ही समाप्त होने वाला है।

इस्टेट्स जनरल (एतात जनराल)

इस्टेट्स जनरल फ्रांस की एक पुरानी संस्था थी, जिसका प्रथम अधिवेशन सम्राट फिलिप-द-फेयर ने बुलाया था, परंतु 1614 ई. के बाद से लेकर क्रांति के पूर्व तक इसका एक भी अधिवेशन नहीं हुआ था। इस संस्था का मुख्य काम शासन को परामर्श देना था, न कि कानून निर्मित करना।

इसमें पादरी, कुलीन और सर्वसाधारण के प्रतिनिधि लगभग बराबर संख्या में बैठते थे, किन्तु विचित्र बात यह थी, कि तीनों वर्गों के प्रतिनिधि एक साथ न बैठकर, वर्गों अथवा श्रेणियों के हिसाब से पृथक-पृथक बैठते थे और व्यक्तिगत रूप से मत न देकर श्रेणियों के अनुसार मत प्रदान करते थे, अर्थात् एक श्रेणी का एक ही मत माना जाता था।

कुल तीन श्रेणियाँ थी और कुल मत भी तीन ही थे। जिस किसी योजना अथवा प्रस्ताव को दी श्रेणियाँ की स्वीकृति मिल जाती, वह इस्टेट्स जनरल द्वारा स्वीकृत समझा जाता था। बहुधा ऐसा प्रतीत होता है, कि प्रथम और द्वितीय श्रेणी अपने दो मतों से तृतीय श्रेणी (साधारण श्रेणी)को परास्त कर देते थे।

लुई सोलहवें ने स्टेट्स जनरल को बुलाना स्वीकार कर लिया, परंतु उस समय फ्रांस में कोई जीवित व्यक्ति ऐसा नहीं था, जिसे इस संस्था के संगठन, निर्वाचन तथा मताधिकार आदि के बारे में जानकारी रही हो। अतः इसके लिये एक आयोग की स्थापना की गयी, जिसने पुराने सरकारी कागजातों का गहन अध्ययन करके संस्था के प्रतिनिधियों के निर्वाचन आदि के बारे में सरकार को रिपोर्ट प्रस्तुत की। इस समय संपूर्ण फ्रांस में दो महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर चर्चा चल रही थी।

एक तो यह कि क्या पहले की भाँति तीन श्रेणियों के सदस्यों की संख्या बरकरार रहेगी। दूसरा, यह कि क्या पहले की भाँति पृथक-पृथक बैठकें होंगी और प्रत्येक श्रेणी का एक ही मत माना जाएगा अथवा तीनों श्रेणियों की सम्मिलित सभा होगी और व्यक्तिगत रूप से मतदान करने की व्यवस्था होगी। अर्थ मंत्री नेकर यह चाहता था, कि किसी प्रकार पादरी और कुलीन वर्ग के लोग कर देना स्वीकार कर लें।

उन्हें आतंकित करने अथवा सर्वसाधारण को संतुष्ट करने के उद्देश्य से उसने सम्राट को सलाह दी कि तीसरी श्रेणी के सदस्यों की संख्या दुगुनी कर दी जाये। सम्राट ने उसकी बात को मानकर तीसरी श्रेणी के सदस्यों की संख्या दुगुनी कर दी। परंतु एक साथ बैठने की बात भविष्य के लिये टाल दी गयी। और यह बात घातक सिद्ध हुई। इसी समय लुई सोलहवें ने मतदाताओं को यह भी कह दिया, कि वे अपनी शिकायतों का अथवा जो सुधार चाहते हैं, उसका एक लेखा तैयार करके अपने-अपने क्षेत्र से निर्वाचित प्रतिनिधि को दें।

इस प्रकार से तैयार किए गए स्मृति पत्र फ्रांसीसी भाषा में काहियेर अथवा कैहियर कहा जाता है। अंत में 5 मई, 1789 ई. के दिन वर्साय में इस्टेट्स जनरल का अधिवेशन बुलाया जाना तय हुआ। अप्रैल महिने में इस्टेट्स जनरल के प्रतिनिधियों के निर्वाचन की व्यवस्था की गयी। तीनों श्रेणियों ने पृथक-पृथक रूप से अपने प्रतिनिधियों का निर्वाचन किया। तीसरी श्रेणी के प्रत्येक व्यक्ति को, जिसकी आयु 25 वर्ष थी और जो प्रत्यक्ष रूप से कोई कर देता था, को मत देने का अधिकार दिया गया था।

1. पुस्तक- आधुनिक विश्व का इतिहास (1500-1945ई.), लेखक - कालूराम शर्मा

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